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Full text of "Akyu Pressor Prakritik Chikitsa"

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3 ज्च्क का का च चओ ज्, 
( प्राकृतिक उपचार ) 


लेखक 


डॉ० पी. पी. शर्मा व डॉ. दी, आर, चौधरी 


॥.0, (६०४), (उणव शि०वआ४50 एव्युप्रेशर विशेषज्ञ 


बजरुणा शब्मोहत राग एस्तकालब कम 
ब्रतिष्ठान, को एकादा के होजस्थ है 


(8..0) 0565 
(वकायलिय) 406633 
(नियाश) 409226 


भाषा भवन, मथुरा 


जकायव्छ 


आणा अवज 
हालननगंज, मथुश - 287007 


१० 


पुस्तकालय ससकरण . 200 ड. 


ञ्् 


( लेखक - 


मूल्य: रु, 480/- 


है. ई 


मुद्ढक : 
भाजा भवन प्रेस, मथुरा, 


'लिपषय-सूची 


अशम भाग-- 
4. .प्रस्तावना नजर 
2. एक्युप्रेशर - विस्तृत रूप शो-आंए 
() एक्युग्रेशर की पारिभाषिक जानकारी 
(0) एक्युप्रेशर का मूल सिद्धान्त 
(0 एक्युप्रेशर पद्धति एवं कार्य-प्रणाली 
(५) उपचार विधि 
(४) एक्युप्रेशर की शाखाएं 
(५) जोनोलॉजी और उसमे समाईं रिफ्लेक्सोलोजी 
3. मानव शरीर के प्रतिबिम्ब केन्द्रों का सचित्र रंगीन चित्र जिसमें ४ 
प्रानव शरीर के सभी अंगो से सम्बन्धित दाब बिन्दु दर्शाएं गए हैं 
अध्याय-- 
।. मस्तिष्क एवं इससे सम्बन्धित रोग एवं इनका उपचार -5 
() मस्तिष्क का सामान्य परिचय (॥) लकवा अथवा पक्षाघात 
(6) मूरछा अथवा मिरगी (४) मल्टीपल स्केलोग्रेसिस (४) पोलियो 
(श) सम्बन्धित रोगों की एक्यूप्रेशर द्वारा चिकित्सा (॥॥) मायोपैथी 
(शा) मस्वयूलर डिस्ट्रोफी (00) मानसिक तथा भावात्मक रोग 
00) निराशा 04) हिस्टीरिया 00 अनिद्रा, वेज सर दर्द, माइग्रेन 
2, मुंह एवं गले के विभिन रोग एवं उपचार 46-9 
() टॉन्सिल्स () गले में दर्द (#) दांतों में दर्द (५) मसूढ़ों मे 
सूजन (५) गला सूखना 


बद सूची 


रीढ़ की हे, गर्दन, पीठ एवं कंधे के रोग 
() रीद की हड्डी की आकृति, अध्ययन एवं अतिबिम्ब केस 
(0) गर्दन से सम्बन्धित गेग एवं उपचार (&) सरवाइकल 
स्पोच्डीलोसिस (वक्‍्कर आना) (8) गर्दन में ऐठन, कन्धे में दर्द 
एवं जकड़न (॥) पीठ, कृल्हे, पैरों एवं एड़ियो का दर्द उपचार 
एवं प्रतिबिम्ब केन्र 
हृदय एवं ख़त संचार सम्बन्धी रोग एवं उपचार 
() हृदय की आकृति एवं कार्य प्रणाली (॥) ह्ग्य तथा रत संचार 
सम्बन्धी रोग एवं निवारण .(॥]) उच्च रतवाप (हाईब्लड प्रेशर) 
(५) निम्न रतचाप (लो ब्लड ज्रेशर) (५) उच्च रतचाप से 
सम्बन्धित प्रेशर बिन्दु (रु) निम्न ख़तचाप से सम्बन्धित केन्र 
बिन्दु (॥) हृदय के वाल्व का उ्रतिबिम्ब केन्द्र (॥॥) रक्तचाप 
सम्बन्धित दलिका 
पाचन तंत्र 
() पाचन तंत्र के प्रमुख भाग लीवर-यकृत, आमाशय, आंतें (॥) 
यकृत के प्रमुख कार्य (॥ एक्युप्रेशर द्वार इसके रोगो का उपचार 
(४) भोजन एवं अन्य ध्यान देने योग्य बातें (४) पाचन तंत्र के 
अन्य रोग (५) अपेंडिसाइटिस (जा) कब्ज, बवासीर (५॥) अन्य 
पेट सम्बन्धी गेम (50) पेच्यूटी, नाभिचक्र के अस्थायी रोग (५) 
शा जज 8 868०७ 5५४ 
शिवाटिका 
() शिवाटिका रोग के कारण (॥) रोग के प्रमुख लक्षण (॥) रोग 
निदान 

', गुर्दे तथा मूत्राशय सम्बन्धी रोग 
(] बुर्दे के शेख के लक्षण (॥] गुर्दे की पथरी (॥) मूगराशव की 
फ्थरी 


मधुमेह 
(0) रोग के कारण (॥) भधुमेह के रोगियों के लिए आह्यर एवं 
ख्न्य खानकररी ([॥) एक्युग्रेशर और मधुग्रेह 


एक्युभैज्र-इलर्द प्राकृतिक जीवन पति 


जोड़ो, मासपेशियो एवं अस्थि सम्बन्धी रोग 

(0) गाउट यानि जोड़ों में दर्द व सूजन (॥) अर्थराइटिस के प्रकार - 
रूमेटाइड अर्थराइटिस, अस्थि संधिशोध (॥) गठिया एवं जोड़ों 
के दर्द का आयुर्वेदिक घरेलू चिकित्सा द्वार निशकरण 

स्वास्थ्य का रक्षक नाभिचक्र 

अन्तःखावी ग्रंथियां 

() पिद्यूटरी गंथि (॥) पीनियल ग्रंथि (॥) पैरा थायराइड अधि 
(४) थायराइड ग्रंथि (५) पेंक्रियाज ग्रंथि (()) थायमस ग्रंथि ((॥) 
एड्रीनल मंधि (शा॥) गोनाड्स अधि 

श्वसन तंत्र 

() श्वसन तंत्र के अवयव (#) नाक (॥) श्वास प्रणाली (५) 
फुफ्फुस (४) श्वसन क्रिया (४) फुफ्फुस मे वायु-विनिमय (शा) 
रक्त के द्वारा वायु का परिवहन 

आंख के रोग 

() ग्लुकोमा () डिपलोपिया (॥) आंख आना (४५) रेटिना मे सूजन 
(४) रतौंधी (५) मोतियाबिंद (श॥) रोग का निवारण तथा बचाव 
नाक व कान के रोग 

() कानों के विभिन रोग (॥) कानों की बीमारियों से बचाव अथवा 
निवारण (॥) नाक की बीमारियां (४) जुकाम एवं नजला एवं 
साइनसिस 

सखत्री-जनित रोग--- 

() ख्री के जनन अंग एवं क्रिया (॥) अस्थिमय शणी (॥) डिम्ब 
ग्ंथियां (४) गर्भाशय नलिकाएं (५) गर्भाशय (४) योनि मार्ग (शो) 
मासिक धर्म (५४) यौवनारंभ (00 रजोनिवृत्ति (१) गर्भधारण (४) 
गर्भस्थ शिशु (30) प्रजनन अंगों सम्बन्धी रोग (0) प्रथम मासिक 
धर्म में देरी या मासिक धर्म न आना (४४५) कम झूतुखाव (१९४) 
वेदनामय ऋतुखाव 0५) अत्यधिक ऋतुख्नाव होना ((शा) मीसिक 
शर्म के पहले वेदना (४२४४) श्वेठ प्रदर (५0९) गर्भाशय प्रवाह 


3-73 


का5 
78-8/ 


82-86 


87-90 


9-93 


94- 03 


जिदस-खुची 


2, 
22. 


(900 योनि प्रवाह (७0) यौन सम्बन्धी रोग 007॥ योनि के रोग 
(00) गर्भाशय का अपने स्थान से हटना (१05४) बांझपन (0070४) 
स्वाभाविक गर्भपात (५०८५) एड्स 


- आधृषण और स्वास्थ्य 
. राहत पहुंचाने की विधि 
. एक्युप्रेशर चिकित्सा मे प्रयुक्त होने वाले प्रमुख उपकरणों का 


परिचय एवं उपयोग 


- सेग और उनके उपचार बिन्दु 
. आहार चिकित्सा 


()अन ब्रह्म का मानव देह से सम्बंध (॥ आहार शुद्धि 
(#) भोजन कैसे करें (५) आहार का जीवन में आध्यात्मिक महत्त 
(५) अन की महिमा (७) आह्वर संस्कार में पाश्चात्व मिश्रण (शो) 
आहार संस्कार की मर्यादा (शा) आहार के अतियोग, अयोग 
और मिथ्यायोग (0 आहार की कुछ सावधानियां - 0 महत्त्वपूर्ण 
बिन्दु (आचार्य चतुरसेन) (४) भोजन का तौर-तरीका (2!) उत्तम 
स्वास्थ्य - एक संदेश (0) बटरस--मधुर, अम्ल, लवण, तिक्त, 
कट, कषाय (२) प्रकृति के सानिध्य में आरोग्य (6४) खद्याननों 
में पोषक तत्त एवं उनके प्रभाव (५५) रुग्णावस्था में प्रकट होने 
वाले लक्षण (४श!) आध्यात्मिक तथ्य एवं स्वास्थ्य 

ट्जन घटने एवं बढ़ाने हेतु आहार विकित्सा 

एफ?! 


कक 


प्रशावना 





एव्युप्रेशर उपचार-पद्धति प्रकृति-पदत्ते विज्ञान है। हमारे ऋषि, प्रुंनि और 
गृहरुथ इसको उपयोग करते रहे हैं, पर विज्ञान के पीछे अंधी दौड़ के कारण भारत 
के इस प्रावीन ज्ञान को हमने भुला दिया है। सुश्रुत के लेखों पे इस विद्या का उल्लेख 
है, एवं 3000 वर्ष पूर्व यह पद्धति भारत में प्रचलित थी। इस सहजपूर्ण, अहिंसक 
और निशुल्क पद्धति के व्यापक ग्रवार व अध्ययन द्वारा विश्व आरोग्य विशेषकर 
भारत जैसे अनेक विकासशील एवं निर्धन देशों की गहन समस्या सरलता से हल 
की जा सकती है। 


हम सभी नीरोग, स्वस्थ एवं सुखी रहना चाहते हैं और विभिन्‍न संप्रदायों से 
जुड़े हुए विभिन्‍न विधियों और नियमों के अम्तर्गत प्रयासरत भी रहते हैं। मानव शरीर 
संश्लिप्ट दोषरहित उपकरण है, जो कि संपूर्ण क्रियाये स्वदः संचालित करता रहता 
है। उसकी अपनी संपन्न, कारगर, अत्यन्त ग्भावकारी, सहज और सार्वजनौन, 
सार्वकालिक, सार्वभौमिक एवं सार्वदेशिक विधियाँ हैं। उसके अन्तर्गत यदि हम भोजन, 
श्रम और विज्ञाम में संतुलन न रखें और इनके आधारभूत निवों का उल्लघंन करते 
हैं, हो शरीर में विषैले तत्वों का संग्रह प्रारम्म हो जाता है जिसके फलस्वरूप 
जैव-रसायनिक, जैक-ऊर्जा और अन्य शारीरिक क्रियाओं पर प्रभाव पड़ता है। शगैर 
में इन अवांछनीय तत्वों का संग्रह ही रोग है। जिसका नामकरण सम्बन्धित लक्षणों, 
शरीर के अंग्रें या सूकषमओकों के आषार पर किश्य जज है। इस चिकिन्सा पद्धति के 


| इक्युपेडार--स्तक्श प्राकृतिक जीवन पसाति 


एवं सर्वप्राह्न है! हमारे ऋषि, भुनि, साधु, संत और गृहर्थ इसका प्रयोग करते 
रहे हैं। आज भी अनेक आधूषणों और वच्चो का उपयोग, गृहकार्य और श्रपकार्यों मे 
एक्बुप्रेशर जुड़ा हुआ है। हाथ में कड़ा, पैर में झांज, गले में हार, छोटे बच्चो को 
काला धागा पहनाना, कान में जनेऊ का लपेटना, हाथ मे कलेवा बॉधना, कपड़े धोना, 
कुएं से पानी निकालना, लस्सी बनाना, बेलन चलाना, सर पर घड़ा रखना आदि के 
मूल में एक्यु्रेशर समाया हुआ है। प्रशासन, अर्डपदमासन, सुखासन, वज्ासन आदि 
द्वाश योग में एवं नित्यप्रति के क्रिया-कलापों द्वात किस प्रकार यह विधि हमें लाभान्वित 
करती आ रही है। अब इस ज्ञान, सजगता और एकाग्रता में जब-जब दैनिक जीवन 
की क्रियाओं की प्रेक्षा करेंगे गो पौड़ा-मुक्त होने की, तनाव-मुक्त होने की और सुखी 
जीवन जीने की कला निश्चित जाम जायेंगे! पर पुरातन मूल्यों को जानना है, श्रमजीवी 
होना है, स्वयं तपना है, तब ही पूर्ण लाभ होगा। 

यह चिकित्सा पद्धति भारतवर्ष में 3000 वर्ष पूर्व प्रचलित थी पर शुद्ध रूप 
में यह विद्यमान मन रह सकी। चीनी यात्री यहां निरन्‍तर आते-जाते रहते थे। यहां से 
सीख कर वे इस ज्ञन को चीन ले गये। धीरे-धीरे भारत में यह चिकित्सा लुप्त हो 
गई लेकिन चीन में इस चिकित्सा पद्धति का बहुत विस्तार हुआ और बाद में विशेषकर 
एक्यूपंचर का जन्मदाता चीन को कहां जाने लगा। 

भारत में लंका, चीन, जापान आदि देशों मे बौद्ध भिष्ठु इस ज्ञान को लेकर 
गये। स्पष्ट उल्लेख मिले हैं कि छठी शताब्दी में बौद्ध भिक्षुओं ने इस ज्ञान को जापान 
पहुँचाया। जापान में यह पद्धति “शिआस्तु'' के नाम से विकसित व लोकप्रिय हुई, 
इसे यूर्ण मान्यता प्राप्त हुई और इसके शिक्षण संस्थान स्थापित हुए। अमेरिका, ग्रेट 
ब्रिटेन, कनाडा, आस्ट्रेलिया, भारत आदि देशों में भी अब यह लोकप्रिय होती जा 
रही है। इस लोकप्रियता का प्रमुख कारण है इस पद्धति की सहजता और यह विशेषता 
कि यह रोगी को घर बैठे, सिनेमा या टी.वी. देखते, चलते-फिरते यात्रा करते किसी 
भी स्थान पर दी जा सकती है। 

आकृठिक नियमों के उल्लधंन के परिणाम-स्वरूप गेग उत्पल होते हैं। पर इस 
उल्लंघन को आकृतिक प्रक्रिया जरा जो कि हमारे श्र में ही निहित है सुधारा भी 
जा सकता है। इस अकृत्षिक भिकिल्फ़ पद्धति को इस स्वयं कर सकते हैं. अपने 


च्रस्तायनों ग् 


शकयुलिः चद्धति ण्‌ढं कार्य-प्रणाल्ी :- 


हमास शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश पंच अज्पुद्कों से दिर्मित 
है। इसका संचालन हमारे देह में स्थित शण-शक्द्रि अर्थात्‌ चेतना रूपी बिजली से 
होता है। इसे से हम जैव-विधुत अथवा जैव-शक्ति के रूप में जानते हैं। यह प्राभ 
शक्ति हमारे शरीर में गर्भाधान के समय आती है। कुछ यौगिक क्रियाओं एवं ध्यान 
पद्धवियों द्वाव इसे कपाल के मध्य भाग में बंद आँख से भी देखा जा सकका है। 
ध्यान की सूक्ष्म स्थितियों में शरीर में समग्र घारा प्रवाह की अनुभूति (अनुलोग व 
अतिलोम प्रक्रियाओं में) साथक इसके माध्यम से करते हैं। सृक्ष्मतर अवस्थाओं में 
भारहीन स्थिति के बोध के झ्मय कहीं कोई स्थूलता नहीं, तरंयें ही तरंगें व सारा 
बह्माण्ड प्रकंपित लगता है। क्यों? विद्युत प्रवाह दोनो हाथ पैरों की सभी अंगुलिकों 
और सिर के मध्य प्रवाहित होता खूता है। चेतना के इस विद्युत प्रवाह की रेखाएँ कि 
में दिखाई गई हैं (चित्र देखें) इन चौदह मेरीडियन रेखाओं के निकट अनेक दाब 
बिन्दु स्थित हैं। 

जिनमें 36। दाब बिन्दु प्रभुख हैं। शरीर में प्रवाहित होने वाले इस जैव-विंद्युत 
के स्विच बोर्ड दोनों ह्येलियों और दोनों पगथलियों में हैं। पैर व हाथ के तलुबों में 
7,200 स्नायु के सिरे स्थित हैं। विभिल रेस्कपित्रों द्वारा भिल-भिन्‍न स्विचों की स्थिति 
एवं शरीर के अवयवों व गंधियों से ये किस प्रकार संबद्ध हैं यह दर्शाया गया है। 
एक्युग्रेशर पद्धति के सिद्धांत के अनुसार शरीर के किसी अवयव में रक्त परिवहन 
यथा स्नायु ठंत में अवरोध या हथेली व पगवली में स्थित स्नायु तंत्र से संबंधित अंग 
के अंतिम छोर पर उपस्थिव आपद्वव्य या क्रिस्टल जमा होता है। 


इनको दूर करने के लिए हवेली एवं पगवली के स्विचों या रिफ्लैक्स बिन्दुओं 
पर चिकित्सानुसार दबाव डालकर जैसे-जैसे ये आपद्रव्य या क्रिस्टल दूर होते जाते हैं 
त्यों-त्यों रोग का निवारण होता जाता है। स्नावु तंत्र तथा रक्त परिवहन तंत्र पूनः सुचार 
ह्ष्प ४ चलने लगते हैं। जैव-ऊर्जा का संतुलन पुन: ठीक हो जाता है। हम स्वस्थ हो 
जाते हैं 

इस चिकित्सा पद्धति में शरीर को दस हिस्सों में बांटा जाना जोनोलोजी कहलाता 
है। शरीर के निर्दिष्ट जोन में दबाव देकर रोग से राहत पाना जोम थेरेपी के अन्तर्गत 
ही आता है। बायें हाथ की अंगुलियों पर दाब शरीर के बायें अंग के उपचार व दाहिने 
हाथ की अंगुलियों पर दाब दाहिने अंग के उपचार के लिये देते हैं। हाथ की इंचेलियों 





पर झब््युप्रेशार--स्वस्थ प्राकृतिक जीवन पदूति 


से जब रोगो की जांच व चिकित्सा की जाती है तो इसे हैण्ड >फ्लेक्सोलॉजी' कहते 
हैं। जब रोश की पहचान व उपचार पैरो के हलवों द्वारा किया जाता है तो यह पद्धति 
'फ़ट रिफ्लेक्सोलॉजी' के नाम से जानी जाती है। शरीर मे स्थित दाब जिन्दुओ के 
माध्यम से जब उपचार किया जाता है तब इसे 'शिआत्सु' कहते हैं! शिआत्सु जापानी 
भाषा का शब्द है जो कि दो अक्षरों से मिलकर बना है “शि” का अर्थ अंगुली और 
आत्सु का मतलब है दबाव! 


उपचार सिधि :-- 


सर्वप्रथम रोग की पहचान की जादी है। परीक्षण के लिए एक यंत्र का उपयोग 
करते हैं, जिसे जिमी कहते हैं। यह जिमी घातु या प्लास्टिक की बनी होती है जिसके 
दोनों सिरे गोल होते हैं। जिमी के स्थान पर गोल सिरे वाली पेन, पेन्सिल, अंगूठा, 
अंगुली आदि का प्रयोग भी किया जा सकता है। जिमी को पांद के तलवे या हथेली 
पर हल्के दबाव से धीरे-धीरे घुमाते हैं। गेगी को हथेली या पागथली के जिस हिस्से 
को दबाने पर पीड़ा की अनुभूति होती है उस स्विच से संबंधित अवयव में उपस्थित 
विकार का झञन हो जाता है। इस प्रकार सभी स्विचों का परीक्षण करने के उपरान्त 
अस्वस्थ अंगों 5 रोगों का पंजीकरण कर लिया जाता है एवं पद्धति अनुसार चिकित्सक 
उपचार देता है। 





प्रस्तावना धर 


उपचार . 

उपचार के अन्तर्गत निर्दिष्ट पंव के तलवे या हथेली या शरीर के दाबं बिन्दुओं 
पर निश्चित समय के लिए निश्चित दबाव चिकित्सक द्वारा अंगूठे, हथेली या जिमी 
या अन्य विधि से एक्युप्रेशर विशेषज्ञ तय करते है। यह दबाव रक्त संचार एवं 
जैव-विद्युत संचारित करके शरीर में स्फूर्ति व नई चेतना प्रदान करता है। दाब के 
प्रकार, प्रमाण और प्रयोग पर ध्यान दें। मुख्य नियम है रोग व अवयव को अधिक 
महत्व न देकर जहाँ पीड़ा हो उस बिन्दु व प्रतिवर्ती बिन्दुओ पर उपचार दें। 


मानव के शरीर, मन और चेतना के गहनतम स्तरों तक शांति प्रदान करने का 
काम एक्युप्रेशर करता है। रोग रोकने, नष्ट करने व पुनः न होने देने का ज्ञान देना 
और आह्वर-विहार, रहन-सहन, आचार-विचार और पएठन मे शुद्धि लाना एक्युप्रेशर 
का लक्ष्य है। 


एक्युप्रेशर पद्धति सीधी, सरल और निर्मल है! बिना दवा के और बिना खर्च 
के काम करने वाली है। समय कम लगता है और जगह भी कम लगती है। अहिंसक 
है। अपने आप कर सकते हैं। विपरीत असर कोई नहीं और निदान साथ ही समाया 
हुआ है। अतः सामान्य मनुष्य को अति उपयोगी होने के कारण इसका प्रचार करने 
में और तालीम लेने में सब को सहयोगी बनना चाहिए। 


एक्युप्रेशर में निर्धारित दाब बिन्दुओ पर दबाव देने के लिए हाथ के अंगूठे 
और उंगलियो का उपयोग होता है। तलवे की चमड़ी कोमल न होने पर कभी कभी 
“'जिमी' का उपयोग भी किया जाता है। 


डॉ. हेरी एडवर्ट ने अपनी पुस्तक “ग्राप्ता। 8009 5.9॥#री।9/ +७७॥76” मे 
अपने चालीस वर्षो के चिकित्सा शाख्र के अनुभवों के बाद लिखा है कि प्रकृतिदत्त 
इस दुर्लभ मानव देह को दुनिया के चिकित्सक बीस फीसदी से ज्यादा समझ नहीं 
पाये है। 


औषध-विज्ञन आज भी तीर-तुक्का ही बना हुआ है। छोटी-छोटी बीमारियों के 
लिए रोग से पीड़ित व्यक्ति एक के बाद दूसरे डॉक्टर का दखाजा जीवन भर 
खटखटाते रहते हैं और उस मर्म के लिये निर्धारित औषधियो मे से प्रायः सभी का 
प्रयोग कर चुके होते हैं। पर उस कुचक्र मे धन, समय और स्वास्थ्य खोते रहते है 
पर हाथ कुछ थी नहीं लगता। यही स्थिति पिचानवे फीसदी रोंगियो की होती है जो 
भिन्न-भिन्न औषधियो का आश्रय लेते रहते है। ऐलोपेथी, होमियोपेथी, आयुर्वेद एव 
ढेरों चिकित्सा पद्धतियां हैं और हर पद्धति का डॉक्टर अपनी-अपनी पद्धति का दावा 


क्र 'एक्यज्रेशर-स्वस्थ प्राकृतिक जीवन पद्धति 


जोस्शोर स्रे करता है और विज्ञान की नई-नई उपलब्धियों पर बढ़ा-चढ़ा कर दावे 
पेश करत है। पर हकीकत में देखा गया है कि उनमें से किसी में भी बहुत ज्यादा 
दम-खम नहीं है। 

गेगी प्रायः इधर-उधर भटकते-भटकते जहां के तहां ही बने रहते हैं। यदि कोई 
रोगी अच्छा हो भी जाता है तो अपने शरीर की अन्तःशक्ति या प्रकृति मां की कृपा 
और मां के सानिध्य का पुरस्कार ही मान सकते है। 

अतः अन्तःशक्दि और प्रकृति की कृपा ही कारगर हो सकती है, शेष सारे 
के सारे झूठ और फरेब के पिटारों के अलावा कुछ नहीं। रोगों का मूल कारण जहां 
तक झ्ञत किया जा सका है वो ये है-- 

. कुबुद्धि 2. अशुद्ध संस्कार 

3. दृश्चिन्ता 4... अहं और क्रोध 

हम जानते हैं कि दवाइयां विष हैं और इसकी थोड़ी बहुत मात्रा भी जीवनशक्ति 
का हास करती है। स्वास्थ्य यदि दवाइयो के बल पर बना रहता तो किसी भी डॉक्टर, 
वैद्य अथवा हकीम के परिवार का कोई सदस्य कभी बीमार नहीं होता। स्वास्थ्य यदि 
पैसों से खरीदा जाता तो संसार में कोई भी धनवान रोगी नहीं रहता। 

स्वास्थ्य की कुंजी इंजेक्शन, यंत्रो, बड़े-बड़े हॉस्पीटलों और डॉक्टरी डिग्रियो 
से नहीं मिलती अपितु प्रकृति के नियमों का संयमपूर्वक पालन करने से मिलती है। 

मनुष्य शुद्ध व सात्विक आहार, नियमित रहन-सहन, उदार विचार एवं सदाचार 
पूर्वक रहे तो बीमारी से कोसों दूर रह सकता है एवं सुखी, संतुष्ट तथा प्रसनचित्त 
बना रह सकता है। 

अकृति के बल-बूते पर जब पशु-पक्षी भी बिना डॉक्टरों और औषधियों के 
स्वस्थ रह सकते हैं तो मनुष्य स्वस्थ क्यों नहीं रह सकता? यदि श्रकृति के नियमो 
का बयबर पालन किया जाए तो मनुष्य सभी प्रकार के जंजाल से मुक्त हो सकता है। 

सर्दी-गर्मी सहन करने की शक्ति, काम एवं क्रोध को नियंत्रण रखने की शक्ति, 
कठिन परिश्रम करने की शक्ति, स्फूर्ति, सहनशीलता, हंसमुखता, बराबर भूख लगना, 
पेट साफ रहना एवं गहरी नींद सच्चे स्वास्थ्य के प्रमुख लक्षण हैं। 

मनुष्य के शरीर मे 50% से अधिक बीमारियां हीनता, भय और आत्मविकास 
क्मी कमी के कारण होती हैं। इससे शरीर के होरमोन्स गड़बड़ा जाते हैं और प्रकृति 
दत्त प्रतिरोधात्मक शवित धीरे-धीरे नष्ट छेने लगती है प्रो स्कीनर न्यूवार्क ने 'साईको 


प्रशावना | 


सजेस्टिव थेरेपी”” को विकसित करने पर बल प्रदान किया है। इस चिकित्सा के जरिये 
शेगी के आत्मविश्वास और दृष्टिकोण मे परिवर्तन लाना है जिससे मनुष्य की अन्तः 
शक्तियों को जागृत करना होता है। जो रोगी अपना दृष्टिकोण बदलने व आत्म-विकास 
जगाने मे सफल हो जाते है वे आश्चर्यजनक ढंग से स्वस्थ हो जाते हैं। परिणामस्वरूप 
उनके सोच-समझ का नजरिया बदल जाता है और जो हीनता के संस्कारों से ऊपर 
नही उठ पाते ये धीरे-धीरे अपनी जीवन-शक्ति खो बैठते हैं। 

अतः मनुष्य जो कुछ बनता है वो अपनी स्वयं की विचार-शक्ति, इच्छा शक्ति, 
संकल्प-शक्ति और कर्मशक्ति के बल पर ही आगे बढ़ता है। 

हालांकि वर्तमान वैज्ञनिक युग में चिकित्सा पद्धतियों मे अभूतपूर्व खोज हुई 
तथापि आधुनिकतम बीमारियों ने भी मानव को चौंका दिया है। कहने का तात्पर्य यह 
है कि प्रकृति के विरुद्ध किया गया गत्येक कार्य निष्फल हो जाता है। 


प्रश्न यह उठता है कि ऐसी कौनसी चिकित्सा पद्धति है जिससे बिना किसी 
खर्च, बिना प्रतिकूल प्रभाव और प्रकृति के नियमानुकूल शेगी का इलाज किया जा 
सके। 

एक्युप्रेशर चिकित्सा पद्धति ही मात्र ऐसी पद्धति है जिसमे समस्त समस्याओं 
के निराकरण की अदभुत क्षमता है क्योकि इसमें बिना दवा के जटिलतम रोग दूर 
किये जा सकते हैं। इससे स्पष्ट परिलक्षित होता है कि यह पद्धति सबसे सस्ती, सुगम 
एवं प्रतिकूल प्रभावों से सर्वथा मुक्त है। 


एक्युप्रेशर की शाखाएँ 
एक्यूप्रेशर थेरेपी की अमेक शाखाएँ है, जैसे कि :-- 
एक्युप्रेशर 


मेरीडीयनोलोजी : जोनोलोजी शिआत्सु 


हेन्ड रिफ्लेक्सोलोजी फुट रिफ्लेक्सोलोजी अन्य जैसे कि 
आई रिफ्लेक्सोलोजी, 
इयर रिफ्लेक्सोलोजी 


भरी एक्युप्रेशर-स्वस्थ प्राकृतिक जीः 


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आकृति 2 


प्रस्ककता छ़्‌ 


पेरीडीयबनोलीजी :-- 


चीन की थ्योरी के अनुसार शरीर में 44 मेरीडीयन हैं गा 44 नदियों का प्रवाह 
है, जिसे सामान्यतः शक्ति के प्रवाह कह सकते हैं। इस शक्ति के परवाहो को चीन 
में “ची” जापान में “की” और भारत में आद्रशक्ति के नाम से लोग जानते है। 
आधद्रशक्ति को भारत में अन्य नाम भी दिए गए हैं। जैसे कि ओजस, तेजस, घारक, 
आप, वीर्य, चैतन्य और आत्मशक्ति। इस शक्ति को कोई “बाथों इलेक्ट्रो मेग्नेटिक 
करंट” भी कहते है। इस शक्ति के नेगेटिव और पोजेटिव ऐसे दो गुणधर्म हैं। इन 
दोनों गुणधर्मों का संतुलन (बेलेसिंग) करना जिसे होमीयोस्टेसिस याने कि शरीर की 
निसेगी स्थिति कह सकते है! इस संतुलन के अभाव (म्बेलेन्स) वाली शारीरिक स्थिति 
को रोगी कहेंगे। संतुलन के अभाव मे कोशों को पहुंचने वाले ज्ञनतंतुओं के अथवा 
रक्त के अवाह में विक्षेप पैदा होने से कोश बीमार पड़ जाते हैं। एक्युप्रेशर असंतुलन 
को दूर करके रक्त प्रवाह को व्यवस्थित करता है। इस तरह कोशो की स्वास्थ्य वृद्धि 
होने से संबंधित अदयव कार्यरत होते हैं और रोग दूर हो जाते हैं! इस तरह यह 
थेरेपी सूक्ष्म कोशों को प्रभावित करके अवयकबों को रोग-मुक्त करती है। इसलिए यह 
अधिक अभावशाली है। 


शिआत्सु :-- 


यह पद्धति जापान की है। बहुत पुरानी है। काफी मात्रा में इसका प्रसार हुआ 
है और सरकास्-मान्य है। शिआत्सु मे “शि” यानि उंगलियाँ और “आत्मु”' यानि 
दबाव! शरीर पर निर्धारित दाब बिन्दुओ पर दबाव देकर रेग-भुक्त करने की पद्धति 
को शिआत्सु कहते हैं। इस पद्धति में दाब बिन्दु सारे शरीर पर फैले हुए हैं। इस 
थेरेपी की ध्योरी यह है कि जब कोई अवयव बीमार हो तो उस्त अवयव के क्षेत्र में 
ही निश्चित दाब बिन्दुओ पर दबाव देने से गेग टूर किए जा सकते है। हमारे चिकित्सा 
केद्रो मे इसका उपयोग किया जाता है| 


जोनोलोजी और उसमें समाई रिफ्लेक्सोलोजी :-- 


जोनोलोजी जोन थ्योरी पर आधारित अति महत्वपूर्ण चेरेपी है। इसमें से 
रिफ्लेक्सोलोजी का जन्म हुआ है। रिफ्लेक्सोलोजी पाँव के तलवे मे आए हुए दाब 
बिन्दुओं द्वास शरीर के संबंधित अवयवो और ग्रंधियो को रोगमुक्त करने की चिकित्सा 
पद्धति है। इस थेरेपी का अभ्यास करने का हमारा म्रुख्य हेतु है। इसलिए इसे 
विस्तारपूर्वक समझ लेना जरूरी है। पाँव के तलवे के छोटे-छोटे दाब बिल शंशेर मे 


द् ऋषणुओशर स्वस्थ प्राकृत्तिक जवीनन पद्ति 


व्याप्त अंडे पर कैसे आपर करते हैं? दोनों के बीच क्या संबंध या संयोजन होगा? 
यह समझने के लिए तालीमार्थी को प्रथम जोन थीयरी समझ लेना जरूरी है। 

जोन व्यवस्था की तुलना यदि करनी हो तो घर में लगे बिजली के तारों के 
ताने-बाने की व्यवस्था से कर सकते हैं! बिजली के तार में जिस तरह विद्युत्त प्रवाह 
बहता है, उप्ती दरह जोन में रिब्लेक्स प्रवाह बहता है। यह याद रहे कि ज्ञनतंतुओ 
के प्रवाह की व्यवस्था और रिफ्लेक्स की व्यवस्था अलग-अलग है। 

पाँव के बलवों से अवयवों और अंधियो का संबंध अनेक रिफ्लेक्सीस की 
काल्पनिक लम्बी रेखाओं से जुड़ा है। हर एक जोन एक-एक उंगली के भीतर आया 
हुआ है। 

जोन थ्योरी के अनुसार शगर को दस लाइनों अर्थात दस विभिन्‍न विभागों मे 
विभक्त किया गया है। यह दस जोन बने (आकृति सं. ॥ देखें)। चित्र मे बताए गए 
अनुसार यह जोन्स शरीर की पूरी लम्बाई में से मस्तिष्क के ऊपर के हिस्से मे से 
पाँव की उंगलियों तक गुजरते हैं। तालीमार्थी को इस जोन थेरेपी के साथ संलग्न होना 
है ताकि जोन और उसके साथ जुड़े अवयवों और ग्रंथियो की जानकारी सरलता से 
और ध्यानपूर्वक समझी जा सके। एक उदाहरण द्वारा समझने की कोशिश करे। मान 
लो कि हमने एक फ्रूट केक बनाई है। उसमें हमने बादाम, काजू, पिस्ता और चिरोजी 
डाले हैं (जैसे शरीर में छोटे-छोटे अवयव स्थान बद्ध हुए हैं)। इस केक का आकार 
मानव के समान बनाया गया है। इस फ्रूट केक मानव को हम 0 भागो में इस तरह 
विभकक्‍त (आकृति सर. 2 के अनुसार) करेगे कि हर एक स्लाइस (टुकड़ा) एक जोन 
बने। हर एक जोन की वस्तुएँ एक-दूसरे के साथ रिफ्लेक्स के सहरे जुड़ी हुई हैं। 
एक छोटी उंगली से जोन को समझना आरंभ करे तो यह साय जोन छोटी उंगली 
से ऊपर जाकर कान पर से निकल कर खोपड़ी के बाह्य भाग पर होकर सिर के 
अंतिम छोर तक के भाग को घेर लेता है। इस विभाग के तलवे में आए हुए संबंधित 
दाब बिन्दु पर उपचार करने से इस जोन में स्थित सारे अवयवों को प्रभावित कर 
सकते हैं। इसी तरह जोन न॑. । पर नजर करें तो यह जोन पाँव के अंगूठे से लेकर 
घुटने की तरफ के विभाग का समावेश करता है, तथा शरीर की मध्य रेखा के 
आसपास के अवयवो को घेरता हुआ मस्तिष्क के ऊपर के विभाग तक पहुंचता है। 
इस विभाग के बलवे मे आए हुए संबंधित दाब बिन्दुओं (आगे अध्ययन करेंगे) पर 
उपचार करने से इस जोन मे स्थित हर एक अवयब को प्रभावित कर सकते है। 


शरीर के दस जोन बनाए मए हैं के इसमें से एक स्थान पर हमें लक्ष्य देगा 





जा 


आवश्यक है और वह है हमारा मस्तिष्का शरीर के (धड़ के) दस विभाग करे तो 
हर एक जोन में शर्रर के अलग-अलग अवयव स्थित दिखाई पड़ते हैं। जबकि 
मस्तिष्क में दसो जोन एकत्रित होते दिखाई देते हैं (आकृति सं. )। पाँव के तलवे 
में मस्तिष्क का संबंधित विभाग अंगूठा है। अतः पाँव के दोनो अंगूठों में दसों जोन 
का समावेश हुआ है यह न भूले। 

जोन में स्थित हमारे शरीर के अवयव पाँव के हलवे मे स्थित दाब बिन्दुओ 
के साथ किस तरह संबंधित हैं? यह हम किस तरह जान सकते हैं? इस सवाल का 
जवाब आकृति न॑. । में देखने से मिल जाता है। जिसमे मानव शरीर के दोनों तरफ 
पाँव के तलुओं का आकार रखा गया है। 


'कुदरत का करिश्मा देखें कि जिस तरह मानव शरीर मे ऊपर से नीचे जाते 
जाते हर एक अवयव स्थानबद्ध हुआ है उसी तरह पाँव के तलुए में उंगलियो के 
सिरे से लेकर नीचे तक संबंधित रिफ्लेक्स पोइन्टस के स्थान स्थित हैं। जोन में शरीर 
को विभाजित करते समय जिन अवयवों के पहले जोन मे दो टुकड़े होते हो उन सारे 
अवयवों के संबंधित रिफ्लेक्स पोइन्टस के स्थान पाँव के दोनो तलवों मे शामिल हुए 
है। और जो दो भागो मे विभाजित नहीं हैं वे एक ही पाँव के तलवे में शामिल हैं। 
बाईं तरफ के बाएँ पैर के तलवे में (जैसे कि हृदय, प्लीहा, सीगमोईड) और दाहिने 
ओर के दाहिने पाँव के तलवे में (जैसे कि लीवर, गालब्लेडर, ई-वाल्व, एपेण्डिक्स) 
स्थित है। 

पाँव के तलवे मे स्थित अवयवों के संबंधित दाब बिन्दुओं मे क्रिस्टल्स जमा 
होने से अवरोध पैदा करते हैं (ऊपर एक्युप्रेशर के सिद्धान्त मे बतलाया है)। वहाँ 
दबाने से दर्द महसूस होता है। उसमें वेदना होती है (इससे इन बिन्दुओं को प्रतिवेदन 
बिंदु नाम भी दे सकते हैं)। इस प्रकार जोन थेरेपी से यह जान सकते है कि बिंदु 
किस अवयव से सबंधित है और यह कुदरत की अनमोल देन है। इसका यदि 
ध्यानपूर्वक अच्छा अभ्यास किया जाय तो हम खुद अपने डॉक्टर बन कर रोग-मुक्त 
हो सकते हैं और दूसरों को भी गेग-मुक्ति दे सकते हैं। इस प्रकार यदि पूरे तलवे 
को चिकित्सा देंगे तो पूरे शरीर की चिकित्सा की है ऐसा कह सकते हैं। दाहिना पैर 
दाहिने शरीर के लिए और बायां पैर बाएँ शरीर के लिए, इस प्रकार सारा शरीर दस 
जोन में स्थित है। जब एक जोन का कोई भी भाग बिगड़ेगा तो उस जोन मे स्थित 
अन्य भागों पर भी इसका खराब असर हो सकता है। 

१++ 


चनकलकन+ ++ +-« 





एक्युप्रेशर की पारिभाषिक जानकारी 





एक्युग्रेशर मूल रूप से दो शब्दों के मिलाग से (800 + 855७४) बना 
है जिसका अर्थ यह है कि #00 ८ तीद्षण, [76550/8 < दवाब, यानि निश्चित जगह 
पर तीक्षण अथवा तेज दबाव देकर चिकित्सा करने की विधि को एक्युप्रेशर चिकित्सा 
प्रणाली कहते हैं। 


कहा जाता है कि यह पद्धति सर्वप्रथम चीन में विकसित हुई थी पर्तु यह 
किवदन्ति ही मानी जाएगी क्योंकि भारत में प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों में यह भी एक 
प्रमुख पद्धति रही है जिसके कई प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। 

इस पद्धति के समकक्ष कई अन्य पद्धतियां भी विकसित हुई हैं परन्तु यह अपने 
आप में एक परिपूर्ण पद्धति है जिसका किसी अन्य चिकित्सा पद्धति से कोई सरोकार 
नहीं है। 

मानव देह में निस्‍्तर चेतना रूपी विद्युत प्रवाह बना रहता है। यदि इस प्रभाव 
में कभी रुकावट अथवा बाधा उत्पन होती है तो उस दशा में बीमारी का प्रादृभ/व 
होता है। बीमारी की दशा में रोगअस्त भाग को दबाने पर दर्द होता है। उसे पुनः 
सक्रिय करा ही 'एक्युप्रेशर' है। ह 

एक्युप्रेशर एक ऐसी प्राकृतिक उपचार पद्धति है जिसमें बिना किसी वंत्र अबवा 
मशीन के केवल पीड़ित अथवा रोगबस्त अंग की जांव मात्र प्रेशर प्वाइंट द्वारा की 
जा सकती है एवं उस अंग को कार्यशील एवं रोगधुक्त किया जा सकता है। 

हमारी देह के चारों ओर जो वादृभंडल है इसके द्वारा हमारे शरीर की प्राण 
ऊर्जा संतुलित रहदी है एवं यह हमारे कि स्वभाव एवं व्यक्ति को आध्यात्मिक 


जग 





आछबुप्रेशार ज्ही पाश्िादिव् 


स्तर की अभिव्यक्ति कराता है। सृष्टि का विधान भी दो विपरीत धाराओं के बीच 
संतुलित है इसी से पृथ्वी पर क्रमशः रात-दिन, सर्दी-पर्मी और जन्म-मृत्यु होते हैं। 
इसी प्रकार प्राण ऊर्जा के भी संतुलन के दो रूप हैं जिन्हे ऋण (४०प००४॥४७) एवं 
घन (20900५४8) बल कहते हैं। जिन मार्गों से शरीर मे प्राण ऊर्जा का प्रवाह होता 
है उन्हें प्राण ऊर्जा मार्ग एवं इनका स्विच बोर्ड अथवा नियन्रण केन्द्र मानव की दोनो 
हयेलियां, तलुवे हैं। 

जैसा कि सनातन धर्म विश्व का सबसे प्राचीन धर्म है उसी प्रकार एक्युप्रेशर 
का इतिहास भी भारत की ही देन है। इसका प्रमुख आधार गहरी मालिश करना है। 
अ्सिद्ध प्राचीन भारतीय चिकित्सक चरक' के अनुसार दबाव के साथ मालिश करने 
से रक्त संचरण सही होता है एवं शरीर मे स्फूर्ति एवं शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। 
शारीरिक शक्ति विकसित होने पर शरीर में जमा अवांछनीय एवं विषैले पदार्थ 
मल-मूत्र एवं पसीने के रूप मे शरीर से बाहर निकल जाते है जिससे शरीर स्वस्थ 
हो जात है। 

चरक संहिता के सूत्र 85-87 मे लिखा है कि किस प्रकार तेल मालिश से 
शरीर सुदृढ़, सुन्दर एवं त्वचा कोमल और चिकनी हो जाती है और शरीर मे व्याप्त 
गेबों का नाश हो जाता है। शरीर मे कष्ट एवं धकान सहन करने की क्षमता उत्पन्न 
हो जाती है। अभ्यद्ञ (तिल) त्वचा को कोमल बनाता है, कफ और वायु को रोकता 
है एवं रसादि सप्त धातुओं को पुष्ट करता है तथा त्वचा की शुद्धि कर बलवर्ण को 
अद्ान करता है। ग्राचीन भारतीय सौन्दर्य प्रसाधनों में उबटन द्वार तेल मालिश का 
महत्त्वपूर्ण वर्णन है। विवाह एवं तमाम मांगलिक अवसरों पर आज भी यह प्रथा बरकरार 
है। नवजात शिशु एवं उसकी मां को उबटन लगाकर लम्बे अंतराल तक मालिश की 
जाती है। 

भारत में ख्लियां एवं पुरुष आभूषण पहनते हैं तथा ख्रियां माथे पर बिन्दी लगाती 
हैं। जनेऊ धारण करने की प्रथा भी प्राचीन काल से चली आ रही है। इन सब का 
परोक्ष अथवा अपसेक्ष रूप से एक्युप्रेशर से सम्बन्ध है क्योंकि इनमे प्रेशर प्वाइंट 
क्र के आप आवश्यकदानुसार दबाव पड़ता है जिसके फलस्वरूप शरीर स्वस्थ 
रहता है। 


ऋचीन एव्जुप्रेशर पद्धति के सारांश रूप में कुछ नमूने आज भरी निरन्तर उपयोग 


अा४ शकधुप्रेशइार--सककम ऋषृातिया ज्रीषमः कड़कि 
द्वाग ठीक करना, कलाई की मालिश द्वार गलगंठ को डींक करना इंत्वादि। 


एक्यूप्रेशर का मूल सिद्धान्त 


हमारे शरीर के प्रत्येक अवयव का हथेलियों एवं पैरों के तलवों के बिन्दुओं 
से खास सम्बन्ध है। हमार शरीर पंच तत्तों से निर्मित है जिसका संचालन शरीर की 
ग्राण ऊर्जा करती है। इसे बायो-इलेक्ट्रिसिटी (80-5६॥9ल्‍##णा9) कहते हैं। पैरों, हाथों 
एवं शरीर के विभिन भागों पर स्थित केद्ध बिन्दुओं को दबाने से पीड़ा अथवा दर्द 
उतठ्पन होता है वहाँ सम्बन्धित अंगों की बिजली लीक ॥००॥०' करती है जिसके कारण 
किसी न किसी प्रकार का विकार उत्पन हो जाता है। यही सिर. उन केद्धों पर प्रेशर 
(दबाव) देने से दूर हो जाता है और प्राण ऊर्जा अथवा शक्विरूपी बिजली का प्रवाह 
सामान्य हो जाता है। द्ाधो-पैरों के कुछ निश्चित बिन्दु शरीर के निश्चित अंगो के 
पतिनिधि हैं इसलिए इन बिन्दुओ पर दबाव का उपचार देकर उसका प्रभाव संबंधित 
अवयदों पर पहुंचाकर उन अंगो - कार्यक्षमता मे वृद्धि को जा सकती है और उन्हें 
रोग-मुक्त किया जा सकता है। शरीर के प्रत्येक अवयव के बिन्दु हाथ और पैर में 
अवस्थित है, फिर भी उपचार के लिए पैर के तलवे को अधिक महत्त्वपूर्ण माना 
जाता है 


डॉ. फिट्जजेराल्ट के कथनानुसार पैरो के तलवों और हथेलियों में स्थित ज्ञान 
तन्तु डक जाते हैं जिससे शरीर की विद्युत चुम्बकीय शक्ति का भूमि के साथ सम्पर्क 
नहीं हो पाता दबाव के उपचार से ज्ञान तन्‍्तुओं के छोर पर हुआ जमाव दूर हो जाता 
है और शरीर की विद्युत चुम्बकीय तरंगों का पुनः मुक्त संचरण होने लगता है। 

डॉ. रॉबर्ट वाकेर के मतानुसार शरीर को दो भागों में विशभ्वक्त किया गया है 
दायां और बायां भागा जो अंग शरीर के दायें और बायें शाग मे स्थित है, उनके 
जाँच एवं उपचार के बिन्दु उसी तरफ फाये जाते हैं। 





आकृति 3 





भस्तिष्क एवं इससे सम्बश्धित रोग एवं इनका उपचार 


(छ047॥ & िछ४७७5५ 59580) 





मस्तिष्क की संरचना 
आकृति 4 


सिष्क का सामान्य परिशल :--+ 


मानव मस्तिष्क इस संसार की सबसे सामर्थ्यवान कृति है जो विधाता की अदर 
तरह 


न तक आओ 


थ्र चक्युप्रेशर-स्वत्ण ग्राक 


सैकण्ड का समय लगे तो पूरी गिनती करने मे 300 सदियों लग * 

मानव शरीर में कार्य करने वाली आठ प्रमुख अन्यियाँ जो 
करती हैं, मस्तिष्क संतुलित रखना उनका पूल आधार है। तथापि 
कार्य को प्रभु की कृपा मात्र समझकर करता है तो उसका मानसिक : 
बना रहता है। 

मस्तिष्क में अनगिनत उल्टे-सीधे विचारों को जन्म देना ही मरि 
का श्रीगणेश करना है। जब मस्तिष्क मे अशुद्ध व अपवित्र विचार 
तो सर्वप्रथम शरीर के हारमोन्स गड़बड़ा जाते हैं जिसका प्रभाव अूू 
है। यहीं से शरीर में पोषण की कमी होकर रोग की शुरुआत होती 
असन्तुलन ही रोगो को निमंत्रण देना है। 

अतः त्वचारोग, मानसिक विकार, उदर विकार, रक्तचाप, म 
हृदय रोग जैसी घातक बीमारियों से मुक्ति पाने के लिए शरीर को ए 
शक्ति हारमोन्स को संतुलित बनाये रखना होगा। मस्तिष्क को मुख्य 
विभक्त किया गया है-- 
4. अग्र भाग 
2 मध्य भाग 
3 पृष्ठ भाग 





अर्फ्िना एवं इजलो सामयश्ाट शोथ एवं इकका डकार डर 


मस्तिष्क का अत्येक्त भाग अलग-अलग उपखण्डो में विभक्त है। मस्तिष्क का 


अग्र भाग सबसे महत्ववूर्ण हिस्सा माना गया है। अग्रभाग की भी दो शाखाएँ हैं जो--- 
4. वृहद्‌ एवं 2, प्रम॑स्तिष्क हैं । 


व. 


बृह़द भाग : यह निम्न प्रिण्डो मे विभकत होता है। 
() अग्र पिष्ड 

(॥).प्रार्श्व पिष्ड 

(॥) पश्च पिण्ड 

(४) गोलाकार पिण्ड 


प्रत्येक पिण्ड का कार्य भी अपने हिसाब में निर्धारित है, जैसे-- 


अग्र पिण्ड : यह मनुष्य के व्यवहार, शरीर संचालन एवं व्यक्तित्व विकास 
में सहायक है। 


2. पाएरव पिण्ड : ये मनुष्य के चासें ओर के वातावरण को शरीर के अनुपात 
में नियत्रित करते हैं और परिस्थिति के अनुसार शरीर को प्रतिपादित करने मे 
योगदान देते हैं। 

3, पश्च पिण्ड : यह मुख्यतः मस्तिष्क के पीछे का हिस्सा है और मस्तिष्क के 
आंतरिक क्षेत्र एव दृष्टि को संचालित करता है। 

4... गोलाकार पिण्ड : ये पिण्ड मस्तिष्क के नीचे कनपटियों के पास होते हैं और 
मानव शरीर को रसगंध की क्षमताओं का बोध कराते हैं। 

मस्तिष्क सम्बन्धी रोग 


मस्तिष्क सम्बन्धी रोग मुख्यतः रक्त संचार मे रुकावट, संक्रमण तथा अंगो में 


विकार उत्पन होने के कारण ग्रकट होते हैं। यह स्पष्ट विदित है कि इन रोगों का 
उपचार एक्युप्रेशर चिकित्सा पद्धति मे निहित है। 


की रे लि 


मस्तिष्क एवं स्नायु संस्थान से सम्बन्धित उत्पन्न होने वाले प्रमुख रोग-- 
लकवा अथवा पकश्चाधात 

मूर्छा-मिरगी 

मल्टीपल स्केलेगेसिस (४ए॥७०0७-50008ां8) 

पोलियो 


न्‍न प्क्ष्युग्रेशर-स्वस्थ प्राकृतिक जीवन पद्धति 


5... मायोपैथी (//०0थ४॥४) 
6. मस्कुलर डिस्ट्रोफी 

4. “लकवा अथवा पक्षाघात' '-- शरीर के तन्तुओं का शिधिल पड़ना अथवा 
सचालन शक्ति का हास होना लकवा कहलाता है। मस्तिष्क मे रक्त का पूर्ण संचरण 
न होना एवं रीढ़ की हड्डी मे विकृति के कारण इसका उदय होता है। लकवे का शरीर 
पर कितना असर होता है यह इस बात पर निर्भर करता है कि शरीर एवं मस्तिष्क 
का कौनसा भाग कितना प्रभावित हुआ है। मस्तिष्क शरीर को कितना नियंत्रित रखता 
है यह जानना भी आवश्यक है। वैसे मस्तिष्क का दायां भाग शरीर के बायें हिस्से 
को एवं बाया भाग शरीर के दायें हिस्से को संचालित करता है। 


लकतवे के प्रकार :- 


4 पूर्णांण लकवा 

2 अर्द्धांय लकवा 

3 एकांश लकवा 

4. निम्नांग लकवा 

5. स्वस्यँत्र का लकवा 
8, आवाब का लकवा 
7. मुंह का लकवा 


पूर्णाॉग लकबा : यह सम्पूर्ण शरीर को प्रभावित करता है अर्थात्‌ दोनों हाथ 
एवं पैर निम्माण हो जाते हैं। 

अर्द्धांग लकवा : इसमें शरीर का आधा हिस्सा चाहे बायां हो अथवा दायां, 
पूर्ण रूप से प्रभावित होता हैं एवं सम्बन्धित अंग निश्चेतन अवस्था मे हो जाते हैं। 

एकांग लकवा : इसमें केवल एक हाथ अथवा एक पैर प्रभावित होता है। 

निम्मांग लकवा : इसमे नाभि से नीचे का सम्पूर्ण भाग जैसे जांघें एवं पैर 
निश्चेतन हो जाते हैं।..' 

स्वरयंत्र का लकवा : इसमें मुख्यतः मनुष्य का बोलना पूर्ण रूप से अथवा 
आंशिक रूप से बन्द हो जाता है अथवा विकृति आ जाती है। 


आवाज का लकवा : इसमे जीभ मे ऐठन आकर जकड़न-सी हो जाती है 
बिससे बोलते में अत्यधिक तकल्"फ ड्ोती है 


परश्लिष्क एवं इससे सम्बन्धित रोग एवं इनका उपचार 


मुंह का लकवा : इसमें मुँह एवं चेहरे में विकृति आ जाती है जैसे मुँह टे. 
ते जाना, आँख का खुला रहना अथवा मुँह एवं आँख से पानी आते रहना आदि 

इस रोग में कुल 0 प्रकार के लकवे से प्रभावित होना पाया गया है। एक्युप्रेर 
पद्धति में सभी तरह के लकवो का इलाज करना सम्भव है। नीचे चित्र मे दिखाये ग 
प्रतिबिम्ब केंद्रों पर आवश्यक दवाब देकर चिकित्सा करें-- 


ः | 


के 






कान. पाक | कक ० बल, 
७४.८ 


क 
५ 
| 
| 
मै 
है 
| 
4 
है 
4 
| 
॥ 
+ 
8 
ु 
ी 


। 


आकृति 5 
मूछां अथवा मिरगी : शोध विशेषज्ञों द्वाव यह ज्ञात किया गया है कि मिर 
कोई रोग नहीं है अपितु किसी जटिल रोग का लक्षण है। मुख्यतः मस्तिष्क मे र 
संचरण अथवा तन्तुओ में किसी प्रकार की बाधा आ जाने से मिरगी के दौरे : 
शुरुआत होती है। डॉक्टरों के कथनानुसार पाचन तंत्र की गड़बड़ी, मद्चपान, सिर 


ह़ बवबुद्ेशार-- कप माकुतिक 
चोट, भयंकर सदमा एवं मानसिक तनाव मिरगी के दौरे के अमुझ कारण 

पूर्व में प्रचलित लोक धारणाएँ भिथ्या साबित हुई हैं कि इसमें वि 
अथवा देवी-देवताओं के प्रकोप से ऐसा होता है। 

ऐलोपेबी में पूर्ण रूप से इसका उपचार तो रुम्भव नहीं है परन्दु 
तक शेगी को राहत दी जा सकती है। हालांकि ऐलोपेथी के उपचार के 
अन्य कई प्रकार के कुष्रभावों का शिकार भी हो जाता है जैसे - आँखां व 
सुस्ती, गुस्सा आना, निराशा इत्यादि। 


छह 6 अ 


५, प्रटटया, 2 कक... हा 


कर वी503+ 5 कि 
क्ष्फेलिक ग्प्क 
स्‍७७०७० कही 

७............ 


आकृति 7 
शक्युप्रेशर पद्धति में मिरगी के उपचार की प्रक्रिया :-- 


इस गोग को स्थायी रूप से दूर करे के लिए स्नायु संस्थान, महि 
आमाशव के दबाव बिन्दुओं पर दक्षव दिया जाना चाहिए! 


मबश्तिप्क एवं इससे सम्बन्धित रोच एवं इनका उपभार 7 


गर्दन तथा रीढ़ की हड्डी, टखनो पर भी निरन्तर दबाव दिया जाना चाहिए। 
मिरगी के दौर की स्थिति में नाक और पैरो के नीचे के हिस्सों पर पोइंट देने से इसमें 
आश्चर्यजनक रूप से फर्क पड़ता है एवं गेगी को आराम मिलता है। नियमित रूप 
से इन केन्द्रों पर ग्रेशर दिये जाने से इसमें स्थायी रूप से लाभ मिल सकता है। 





पिरगी के सेगियों के लिए कुछ ध्यान देने योग्य बातें :-- 


इस रोग के असित व्यक्ति को आहार सम्बन्धी विशेष ध्यान देना चाहिए! तले 
हुए पदार्थ नहीं लेने चाहिएँ। ताजा सब्जियाँ, फल एवं लहसुन का अधिक सेवन करना 
चाहिए। रोगी को अकेले वाहन नहीं चलाना चाहिए। दिमाग को तनाव-मुक्त रखना 
चाहिए। 
प्रत्यीपल सलेरोसिस :-- 

इस रोग में कमजोरी, हाथों में क्पन, याददाश्त में कमी, आंखों में दृष्टि-दोष 
तथा आवाज में भारीपन आ जाता है। धीरे-धीरे शरीर के प्रमुख अंग निष्क्रिय हो जाते 
हैं। इसमें शुरुआत में मूत्राशय में गड़बड़ी होती है तथा पेशाब में रुकावट आती है! 
पोलियो :-- 

यह रोग वैसे तो किसी भी आयु के व्यवित की हो सकता है परन्तु विशेषतः 


8 छक्युप्रेशर-स्वस्थ ग्राकृतिक जोवन 


पॉच वर्ष से कम आयु के बच्चों और छः मास से एक वर्ष की आयु वाले बच् 
अधिक होता है। 

इस रोग के मुख्य लक्षण--बुखार, सिरदर्द एवं गले का दर्द मुख्य है। मासपे 
में अत्यधिक दर्द होता है एवं शनैः शनैः ये सूखने लगती है जिससे बालः् 
चलने-फिरने मे कठिनाई होही है। इसमे परिणामतः बच्चे की एक टांग बहुत 
हो जाती है जिससे वह टूसरी ठंग से बहुत छोटी एवं पतली नजर अनि लगा 
इससे सम्बन्धित जोड़ों की हड्डियो मे विकृति आ जाती है। 

इसमे बच्चे को जन्म से तीन साल तक अनिवार्य रूप से पोलियो की 
देनी चाहिए। 


शक्युप्रेशर द्वारा इसकी चिकित्सा :-- 


इस रोग में सम्बन्धित रोगी को नियमित रूप से पैरो, हाथों एव मस्ति 
सम्बन्धित केद्धो पर प्रेशर दिया जाना चाहिए। यदि रोग का पता लग जाए तो 
ही इन केन्द्रों पर प्रेशर दिया जाए तो रोगी पूर्णतः ठीक हो सकता है। 








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प्रस्तिष्क एवं हससे सम्बन्धित रोग एवं इनका उपचार 9 


भमायोपैथी (५०७४7) 

इस गेग के लक्षणों में प्रमुखत. मांसपेशियों में जकड़न, सूख जाना एवं उनका 
आश्चर्यजनक रूप से फैलना है। श्रेगी अत्यधिक कमजोरी महसूस करता है जिससे 
च नमे-फिसने मे कठिनाई होती है। 
मस्क्‍्यूलर डिस्ट्रोफी (#७9३०पांश' 09300.) 


यह रोग विशेषतः लड़को को होता है। पाँच वर्ष की आयु से इस रोग के 
लक्षण शुरू हे जाते है। इसमे गेगी की मांसपेशियाँ कमजोर हो जाती है। इसमे बच्चा 
चलना-फिसा शुरू नहीं करता तब उसके माता-पिता को इस रोग का पता चलता है। 
इस शेगण मे बच्चा प्राय" देरी से ही चलना-फिरना शुरू करता है एवं उसकी चाल में 
विकृति आ जाती है। बच्चे की रीढ़ की हड्डी मे विकृति आ जामे से वह अच्छी तरह 
से उठ-बैठ भी नहीं सकता। कई बच्चे बैठने अथवा उठने पर गिर भी जाते है! 
मांसपेशियों मे कमजोरी आ जाने से वह तेज चलने एवं दौड़ने में असफल रहता है। 
जैसे-जैसे बच्चे की उम्र बढ़ती है वैये-वैसे मांसपेशियाँ मोटी और शिधिल हो जाती 
हैं, उठने-बैठने मे अत्यधिक परेशानी होने लगती है। यहा तक की श्वांस लेने मे भी 
कठिनाई होती है। 


इस रोग का स्थायी इलाज अभी सम्भव तो नही हुआ है परन्तु एक्युप्रेशर 
पद्धति द्वारा इस रोग को काफी हद तक संतुलित किया जा सकता है। 






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40 फश्पुकीशार-स्वस्थ प्राकत्कि जीचन यद्धंति 


भानसिक तथा भावात्मक रोग 
(शिक्षण & दक्फइ्शं ॥2999925) 


मानसिक रोग वस्तुतः कोई रोग नहीं है अपितु मनुष्य द्वार अनावश्यक रूप 
से एकत्रित किये गये विकार और कुष्ठाओं का गुलदस्ता है जो न तो रखने के 
काबिल होता है और न ही भेद किया जा सकता है। 

मानव जीवन मे जिन परिस्थितियों का उतार-चढ़ाव होता है जैसे - सुख-दु:ख, 
उतार-चढ़ाव, सफलता-असफलता, लाभ-हानि इत्यादि। इन परिस्थितियों को जो भनुष्व 
अपनी सामर्थ्य - अनुसार स्वीकार कर लेता है, वह सर्वथा भय एवं तनावमुक्त रहता 
है, परन्तु जो अपने को इन थरिस्थितियों में ढालने को विवश रहता है वह मानसिक 
ग्रेगो को आमंत्रित करता है। 

मानसिक शोग होने के कई अन्य कारण भी हैं, जैसे--कुछ रोग शारीरिक 
अथवा सामाजिक परिवर्तनो, कमजोरी अथवा नशा करे के फलस्वरूप प्रकट होते 
हैं! पारिवारिक कलह भी इस रोग का एक अगुख कारण है। 





आकृत्ति 4 


प्रस्तिष्ध एवं इससे समस्त रोग एल इनका उपलार १ 


निराशा ([08776580०8) : संसार में हर मनुष्य के जीवन में सांसारिक 
परिवर्तनों का समावेश रहता है, फलस्वरूप वह जीवन मे कभी न कभी बनावग्रस्त 
एवं निराश हो ही जाता है। इस रोग मे पार्रिवारिक, सामाजिक, व्यावसायिक कार्यो 
में दिलचस्पी नहीं रहती एवं मनुष्य हर कार्य को व्यर्थ समझने लगता है। 


डॉक्टरों द्वारा यह निष्कर्ष निकाला गया है कि 'डिग्रेशन' मुख्यत थाइरॉयड 
अन्य में विकार उत्पन होने, दवाइयों का अधिक सेवन, हारमोन्स के असंतुलित रहने, 
मधुमेह, पौष्टिक भोजन की कमी के कारण होता है। इस रोग में शारीरिक शक्ति मे 
क्षीणता, नींद में कमी, भुख ने लगना, कब्ज और सिरदर्द की शिकायत रहती है। 
स्वभाव में चिड़िचड़ापन आ जाता है। रोगी को अपने आप से घृणा होने लगती है। 
कुल मिलाकर व्यक्ति अपने आप को बेकार, असहाय एवं निष्क्रिय बना लेता है। 

डिप्रेशन का कोई अचूक इलाज नहीं है अपितु इसमें रोगी को सम्पूर्ण सहानुभूति 
एवं मनोबल देने का प्रयास किया जाना चाहिए। आध्यात्मिक शक्ति द्वार इस रोग 
को काफी हद तक दूर किया जा सकता है, जैसे--सत्संग-कथाओं, महात्माओं के 
प्रवचनो इत्यादि से उम्तमें नक-प्रेरणा उत्पल होगी एवं उसका आन्तरिक शुद्धिकरण 
होगा। 


एक्युप्रेशर द्वारा इस रोग को दूर करने में काफी हृद तक सहायता मिलती है। 


४ 9 छए | | / # क९ त्‌ 


विछता 





आकृति ॥2 


॥2 सकयुप्रेशर स्वस्थ प्राकृतिक जीवन पद्धति 


बैचेनी (0४72७) : यह भी एक मानसिक गोग है। इस रोग के निम्न लक्षण 
पाये गये है, जैसे - व्यक्ति का भयभीत रहना, ठीक प्रकार से नीद न जाना, सोचने 
समझने की क्षमता का अभाव, छुब्ध रहना, अजीबोगरीब सपने दिखाई देना, हंथेलियो 
एवं तलुओ में पसीना आना इत्यादि। इनके अतिरिक्त रोगी ठीक प्रकार से सांस लेने 
में कठिनाई अनुभव करता है तथा पाचन शक्ति गड़बड़ा जाती है जिसके फलस्वरूप 
पेट खराब रहता है एवं कभी दस्त शुरू हो जाते है तो कभी कब्ज रहने लगती है। 
रोगी शयः अकेला रहना यस॒न्द नहीं करता अपितु किसी के साथ एवं सहानुभूति की 
आवश्यकता महसूस करता है। यह रोग अधिकाशतः पुरुषों की अपेक्षा खियो में 
अधिक पाया जाता है। 

इस रोग में रेगी को आराम करना चाहिए, ईश्वर का मनन अधिक सहायक 
सिद्ध हुआ है। इसके अतिरिक्त अच्छा सगीत सुनना एवं उच्च-स्तर का साहित्य पढ़ना 
भी लाभदायक है। एक्यु्रेशर में इस रोग को निर्धारित बिन्दुओ पर कुछ समय तक 
नियमित प्रेशर' देने से इस पर नियंत्रण किया जा सकता है। 


सता ७0, #न्् 





हिस्टीरिया (॥प४४१8) : यह रोग अधिकांशतः युवावस्था मे खियो मे पाया 
जाता है। इस रोग के होने के मुख्य कारण है - इच्छाओं का पूरा न हो पाना, कुण्ठाओ 
को जन्य देना, वैवाहिक जीवन मे प्रेम की कमी इत्यादि। यह भी देखा गया है कि 


भस्तितक एव इससे सम्बन्धित रोग एवं इनका उपचार 438 


अमीरी में पली, पढ़ी हुई लड़कियो को अपेक्षित वातावरण न मिलने से उन्हे अपनी 
इच्छाओं को दबाना पड़ता है जिसके कारण उन्हें यह रोग लग जाता है! 

इस रोग से ग्रस्त ख्रियो के स्वभाव में कुछ विलक्षणता पाई जाती है। यदि 
शुरूआत से देखा जाए तो वे आलसी, मेहनत से जी चुराने वाली, रत को बेवजह 
जगने वाली, देर से उठने वाली होती है। इनमें दूसरो के बारे मे भ्रमपूर्ण विचार रहते 
हैं। सिर, पैर, छाती एवं कमर मे दर्द रहता है एवं मांसपेशियों मे जकड़न रहती है! 

इस गेग के दौरे पड़ने पर शेगी पूर्ण रूप से मूछित नहीं होता, अपितु उसे 
अपने बे मे पूर्ण सुध रहती है। वह कुछ न कुछ बड़बड़ाता रहता है। 

इस रोग का मुख्य इलाज रोगी की मानसिक कुंठाओ, अतृष्त इच्छाओं को जहाँ 
तक हो सके पूर्ण करने का प्रयास किया जाना चाहिए एवं शान्त वातावरण में रखना 
चाहिए। गणेगी को थोड़ा-थोड़ा करके पानी अधिक मात्रा से पिलाना भी फायदेमंद है। 


एव्युप्रेशर द्वारा हाथो एवं पैरे की अंगुलियों के आगे के हिस्से मे बिन्दुओं 
पर कुछ समय तक ऐरशर देने से दौरे में आश्चर्यजनक रूप से फायदा होता है। 


अनिद्रा, तेज सर दर्द, माइग्रेन :-- 


आज के युग में ये रोग भायः हर घर में पाये जाते हैं। इन शेगो का कोई 
संतोषजनक इलाज नहीं है वस्तुतः चिकित्सक द्वास नशा मित्रित दवा देकर इन रोगों 
को अस्थायी रूप से दबा दिया जाता है। 


अनिद्रा (#50तप्तां8) : स्नायुसंस्थान की गड़बड़ी के कारण इस योग का 
प्रादर्भाव होता है। जिस प्रकार रक्तचाप इत्यादि अपने आप में कोई रोग न होकर 
किन्‍ही अज्ञत बीमारियों के संकेत हैं इसी प्रकार अनिद्रा भी अन्य रोगों का लक्षण है। 


इस रोग के प्रमुख कारण : दोयपूर्ण वातावरण में रहना, शारीरिक श्रम की 
कमी, भारो एवं गरिष्त भोजन लेना, तनाव, असतोष, नशा करना, धूध्रपान, चाय, 
कॉफी का अधिक मात्रा में सेवन, अधिक चिकनाहट वाले खाद्य पदार्थों का सेवन, 
भोजन के तुरन्त पश्चात सो जाना, अत्यधिक परिश्रम, अधिक क्रोध, उच्च रक्तचाप 
इत्यादि इस शोग के प्रमुख लक्षण हैं। 

शक्युप्रेशर मे इसका अत्यधिक सरल एवं सुव्यवस्थित ढंग से उपचार दिया 


जा सकता है। इसमे स्नायुसंस्थान एवं पायमतंत्र से सम्बन्धित केन्द्र बिन्दुओ पर प्रेशर 
दिया जाता है। 


९] शक्युप्रेशर-स्वस्य प्राकृतिक जीवन एडडति 





आकृति 4 

पैरों तथा हाथों के केन्द्र बिन्दुओं पर दिया गया प्रेशरर अधिक कारगर सिद्ध 
हुआ है। गर्दन के दोनो ओर एवं पीछे भी रीढ़ की हड्डी से दूर ऊपर से नीचे की 
ओर दीन बार प्रेशर दिया जाना भी लाभप्रद है। इस प्रकार कुछ समय तक नियमित 
रूप से प्रेशर दिये जाने से स्नायुसंस्थान की गतिविधियों मे परिवर्तन आएगा और 
रोगी प्राकृतिक रूप से नींद लेना शुरू कर देगा। 

वेज सर दर्द (9७४७४ #2४08०8, 97278) : पेज सरदर्द होने के 
निम्न कारण हो सकते हैं जिनमें कब्ज, पेट में गड़बड़, गर्दन में विकार, उच्च रक्तचाप, 
यकृत की खराबी, कान-दांव दर्द, सिर में पुरानी चोट अथवा ब्रेन ट्यूमर' के कारण, 
मौसम मे बदलाव, आँखों की कमजोरी अँधवा मानसिक तनाव इत्यादि। 

ख़ियों में इस रोग की प्रमुखता के निम्न कारण हैं, जैसे--गर्भ निरोधक गोलियों 
का सेवन, अधिक पस्रिम एवं सैक्स सम्बन्धी रोगों के कारण 

इस रोग में ऐेगी को तीव्र सिर दर्द होता है एवं ऐसा महसूस होने लगता है, 
जैसे नसें फड़क रही हों अथवा फटने वाली हों। घबराहट महसूस होने लगती है 
अथवा उल्टी होने लगती है। 


शक्युप्रेशर द्वारा चिकित्सा : इस पद्धति में हाथों एवं पैरों के निश्चित केस 
बिन्दुओं पर प्रेशर दिया जात है एवं उन केद्धों पर प्रेशर दिवा जाता है तो दबाने 


मस्तिष्क एवं इससे सम्बन्धित रोग एसे इनका उपयार 45 


से दर्द करते हो 


मुख्यतः गर्दन के पीछे की तरफ एवं रीढ़ की हड्डी से दूर दोनो तरफ अंगूठे 
से प्रेशर दिया जाना चाहिए। 

इस रोग मे सबसे अधिक अभावी केन्र हाथ मे अंगूठे एवं तर्जजी के बीच के 
स्थान पर दिन मे दो तीन बार दो से पाच मिनद (दर्द की अधिकता के अनुसार) तक 
हल्का प्रेशर देने से तेज सरदर्द मे शीघ्र राहत मिलती है एवं दर्द टूर हो जाता है। 


२छता ७ #*0५, ,&ग्य वक-तत 





आकृति 5 


सरवाइकल स्पोग्डीलोसिस होने पर आकृति संख्या ॥5 में दर्शाये प्रत्िविम्ब 
केद्धों पर 5 से 7 गेज लगातार प्रेशर देने से रोग से मुक्ति थायी जा सकती है। 


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मुँह एवं गले के विभिन्न रोग एवं उपचार 


(एपाह 0 58585 ए ि0पा।ा & [0व9 7) 


टॉन्सिल्स (008॥॥5) 
गले मे दर्द 
दांतो मे दर्द 
मसूड़ों में सूजन 
गला बार-बार सूखना 
टॉन्सिल्स : 
गले के अन्दर श्वासनली के पास दो ग्न्थियाँ होती है जो गले के दोनो तरफ 
स्थित होती है इन्हे टॉन्सिल्स कहते है। वैसे इन ग्रन्थियों का प्रमुख कार्य मुँह अथवा 
श्वास द्वारा प्रवेश करने वाले रोगाणुओं को खत्म करना एवं रोकना है साथ ही ये 
श्वेत रक्त कंणी का निर्माण भी करते हैं। इस प्रकार से शरीर को रोगो से मुक्त रखने 
पे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है परन्तु साथ ही रेगाणुओ के संक्रमण की स्थिति मे ये 
स्वयं रेग-अस्त हो जाते हैं। यदि संक्रमण बराबर जारी रहता है तो ये अन्थियां फूल 
जाती है एवं आकृति में कठोर हो जाती है। यदि समय पर इनकी तरफ ध्यान नहीं 
दिया जाए तो इनमें मवाद भी उत्पन्न हो जाती है। यही मवाद धीरे-धीरे फेफड़ो तक 
पहुंचने लगता है जिससे अन्य कई प्रकार के ग्रेग उत्पन्न हो जाते है। 

टॉन्सिल्स मे विकार उत्पन होने की दशा मे रोगी को गले में अत्यधिक दर्द, 
सूजन खाने-पीने में कठिनाई छैनें लगम्रे है खाँसी एवं बुखार बैसे रोगों 


ककके... एणाी बे (0 ७ -+ 
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कै. तकमग पु. ीएक॑-+र 


मुँह एव गले के विभिन्‍न रोग एर्व उपचार 7 


को निमत्रण मिल जाता है। 


इस रोग में आवाज में भारीपन आ जाता है एवं जीभ पर अत्यधिक मैल जमा 
हो जाता है। 

बच्चों में अथवा किशोर उम्र के लोगो में इस रोग की अधिकता पायी जाती 
है। यह रोग उनमे ठंड लगने के कारण, आइसक्रीम अथवा बर्फ का सेवन करने से, 
अधिक तली हुईं चीजो का उपयोग करने से, बच्चों को ऊपर के दूध पिलाने से हुए 
विकार के कारण इत्यादि से हो जाता है। 


अंग्रेजी दवाइयो द्वारा इनका स्थायी इलाज अभी पूर्ण रूप से सम्भव नहीं हुआ 
है। अधिकांश डॉक्टर ऑपरेशन करवाने की सलाह देते हैं जिसमे इन्हें काट कर बाहर 
निकाल दिया जाता है। 

टॉन्सिल्स की तरह ही नाक के अन्दर पीछे के हिस्से मे कुछ मांस के टुकड़े 
होते है जिससे श्वसन क्रिया मे सहायता मिलती है परन्तु इनके अधिक बढ़ जाने के 
कारण परिणाम विपरीत मिलने लगता है। क्योकि इनके बढ़ जाने के कारण श्वास 
भार्ग मे रुकावट हो जाती है जिससे सांस लेने मे कठिनाई आती है जिससे बच्चे नाक 
की अपेक्षा मुँह से श्वास लेते हैं। मुँह से श्वास लेना वैसे भी दुष्प्रभाव पैदा करता है। 


2. शले का दर्द : 


जले में दर्द होने के कई कारण हो सकते हैं। इनमे गले में किसी प्रकार की 
चोट, घाव, टॉन्सिल्स इत्यादि प्रमुख हैं। जुकाम, ठंड इत्यादि के कारण भी गले मे 
खराबी आ जाती है। 

बच्चों में मुख्य रूप से आइसक्रीम, तली हुई चीजें, मीठा इत्यादि खा लेने से 
गले मे सूजन आ जाती है एवं गले में गांठे उत्पन हो जाती हैं। आयोडीन की कमी 
से भी गले मे विकार उत्पन्न हो जाते है। 


गले मे उत्पन्न बीमारियों को दूर करने के लिए एक्युप्रेशर मे निम्नांकित 
प्रतिबिम्बित केन्द्रों पर प्रेशर दिया जाता है। 


4र्ठ 





आकृति !6 
3. दांत दर्द : 
दांतों मे दर्द निम्नाँकित कारणों से उत्पन्न होता है, जैसे- 
मसूड़ों के कटने से, दांत पर चोट लगने से, घाव अथवा पीप 


एक्युप्रेशर द्वास निम्नांकित केन्द्र बिन्दुओ पर प्रेशर ८ 
आश्चर्यजनक रूप से राहत मिलती है-- 





मुँह एवं गले के खिभिन्‍न रोग प्रुढं उफ्चार कक 


4... मसूड़ों में सृजन आाथवा ऋताड़ी : 
इसमे कान के नीचे, पैरे पर एवं हाथो के ऊपरी हिस्से भे, गालो पर दोनों 





आकृति 48 
5. गले में खुश्की अथवा पुँदह का बार-बार सूखना : 
इसका मुख्य कारण यकृत की गड़बड़ी है। कब्ज के कारण भी ऐसा हो जाता है। 
इसमें थी नीचे दिये गये केन्द्र बिन्दु पर प्रेशर देने से आम मिलता है--- 








रीढ़ की हड्डी, गर्दन, पीठ एवं कंधे के रोग 


(0शएं०श, $॥000909, 380/, ।.60, ॥68४॥ & 700 ?६॥8) 





गेग के प्रमुख कारण ; 


अधिक देर तक बैठकर पढ़ना-लिखना, घरेलू कार्य जिसमें गर्दन अथवा कमः 
झुकाकर किया जाता हो! 


गठिया रोग, अस्थि रोग, मांसपेशियों इत्यादि में जकड़न। 


आवश्यकतानुसार व्यायाम न करना, खा-पीकर पड़े रहना, पेट में गैस ए८. 
कब्ज इत्यादि। 


भोजन में आवश्यक खनिज, विटामिन इत्यादि की कमी। 
सोने, उठने-बैठने में उपयुक्त जगह न होना। 


पुरानी बीमारियों के कारण, रक्त संचार मे रुकावट, क्षमता से अधिक कार्य 
करने, जरूरत के मुताबिक आराम न करने एवं नींद न लेने के कारण इन 
रोगों का आक्रमण शुरू हो जाता है। 


गर्दन तथा पीठ दर्द का आपस में गहरा सम्बन्ध है क्योंकि दोनो ही रीढ़ की 


'ड्डी से जुड़े हैं। इनमे दर्द का आभास प्रायः उस समय होता है जब गर्दन दाये-बाये 
माने, हाथो को ऊपर-नीचे करते वक्‍त, नीचे झुकते समय या किसी चीज को उठाते 
मय दर्द करने लगे। इस रोग मे कभी-कभी भयंकर पीड़ा होती है एवं कारों जैसी 
भन शुरू हो जाती है जिससे रोगी बेसुघ्र होकर चिल्लाना शुरू कर देता है 


रीड की इड्डी गर्दन पीठ एवं कंधे के ऐेग 27 


रीढ़ को हड्डी का अध्ययन 


शरीर का प्रत्येक अंग ज्ञानततु द्वारा संचालित होता है और ये ज्ञानततु प्रत्यक्ष 
या अप्रत्यक्ष रूप से रीढ़ की हड्डी से जुड़े है! 


रेखांकित भाग : 


(अ) रीढ़ की इड्डी मे मेरुदण्ड व ज्ञानतंतु के नाम 
(ब) इन ज्ञानतंतु से प्रभावित क्षेत्र 
(क) इन ज्ञानतंतु पर दबाव या अवरोध से उत्पन्न परिस्थितियों 


१#६&७0000श॥६ ४६४४०0॥६ 5१४६७ 


डा08 प्रशव 

एशपाएं इजं॥8 

॥४९५ 50] 8 

५७00५ 0|870$ ॥ (॥8 
। । ॥890 8॥0 780९ 


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॥९४/४९$ 80०0] (8 
॥897, ७05 आएं 
0॥065%॥५४ 008॥5 


छत 59॥06९ 

॥27785 आएए५8 

878 ॥॥8258॥6, /00॥९५, 
(9099 3॥0 5७४ भ0ुका5 
इल्‍टा>। 989 

॥श४६५ 5७09. 0070%, 
(9॥08 भाएं 5९५ 00 8॥5 


००००५ 





आकृति 20 


आ) माप ह जे शिव) । क (बीमारियाँ) 









सर्वाईकल । | सिर, पिच्यूटरी ग्रव्थि, खोपड़ी, | सिरदर्द, मानसिक दौर्बल्य, अनिद्रा, सर्दी, 
| चेहो की इंड्रियाँ, मस्तिष्क, कान | उच्च रक्तचाप, माइग्रेन, मानसिक रोग, मूर्च्छा, 
| का भीतरी तथा मध्य भाग ठ्या । बच्चो का पक्षाघात, हमेशा धकावट, चक्कर 
| सिन्पेथेटिक नर्व सिस्टम को रक्त | आना आदि। 


। भेजना यही से होता है। 


सर्वाईकल 2 | आँखे, चशुगोलक, श्रवण, | सायत्स प्रदाह, एलर्जी, बहरापन, विसर्प, 
| ज्ञननाड़ी, साइनस, मेस्टोइड | आँखो की बीमारियाँ, कान दर्द, बेहेशी, 
| हंड्ियां, जीम एवं माथा। । कुंछ प्रकार का अखापन। 







सर्वाईकल 3 | गाल, बाहरी कान, चेहरे की | स्नायुशूल, नाड़ी प्रदाह, मुहासे, एक्डिमा 
| इंडियां, दांत, त्रिमुखी नाड़ी। | (चर्मरेग) 

सर्वाईकिल 4 | नाक, हेठ, मुँड, कण्ठजलली | नाक बहना, नजला, लाल बुखार, कम सुनाई 
। | देन, गले की गिल्ही बढ़ना। 

सर्वाईकल 5 | स्वलली, कंठ अच्यियाँ, तालुमूल | तालुमूल प्रदाह, आवाज बिगड़ना, गले भे 
। | खराश, कण्ठ प्रदाह। 

सर्वाईकल 8 | गर्दन की पेशियाँ, कच्चे, | गर्दन की अकड़न, ऊपरी बाबू में दर्द, चालू 
| ठॉन्सिल। । मूल प्रदाह, कुकर खाँसी, क्रंप। 


सर्वाईकल 7 | थाइराइड ग्रश्थि, कब्बे के जोड़, ! बस्साइटिस, जुकाम, थाइराइड की स्थिति 
| कोहनियाँ। । बदलना, मबेंघा! 











पर | चछेऐ |? छ ओमरिय 


थोरोसिक । | बाजू में कोहनी के नीचे के भाग- | दमा, खांसी, श्वास कृच्छ, श्वास कण्ठ, 
| हवेली, कलाई, अंगुलियों सहित, | हाथ और कोहनी के नीचे के हिस्से मे दर्द। 
। श्वात्न नली, खाने की नली। 


न, पीठ एवं केथे के रोग 23 






| हृदय के कपाटो व आवरणो | हृदय की किया मे गड़बड़ी, कृछ विशेष 
| सहित, कोरोनरी धमनियोँ।.. | छादी के दर्द 


| फेफड़े, बोकीयल नली, ब्लूग, | ओोकायटिस, प्लूरही, निमोरिया, कफ भर 
$ छाती, वक्ष, निपल। | जाना, फ्लू, ग्रिपा 


| गॉलब्लेडर, कॉमन डक्ट!.| गॉलब्लेडर की बीमारियाँ, पीलिया, सिंगल! 


| यकृद, सोलार प्लेक्सस, रक्ता | लीवर बिगड़ना, बुखार, बिम्न रक्तचाप 
। खून की कमी, स्क्तसवार में गड़बड़ी, जोड़ों 
'का दर्द! 


| पेट। | पेट की तकलीफ, नर्वस पेट, अपच, छाती 
। ; में जलन, पेट में बाबु संचित होगा। 
| ऐक्रियाज, लिंगेन का द्वीप, . | मधुमेह, अल्सर, गैस (वायु)। 
| डियुगोडिनम (छोटी आँव का । 
| प्रथम हिस्सा) | 


लय, हिचकी 














एलर्जी, उदमेज। 


किडनी (पर्दे) | किडनी की बीमारियाँ, धमनियों का 
। + कठोरपन, हमेशा थकावट, पेशाब की 
हकलीफें, पाइलिटिस। 


| किडनी, मूकनली। | उमड़ी की बीमारियाँ जैसे मुंहासे, फोड़े, 
। $ एदिजमा आदि, जहरजादा 


' छोटी आँत, डिम्बनलियाँ, लिम्फ | जोडों का दर्द, वाडुशूल ऐैस), विशेष 
00040 _ | गकार का बझिपना 










_बबेक् | (बीमारियों) 
बड़ी आँतें (कॉलन), इंगुमल | कब्ज, कोलाइटिस, पेचिश, अतिसार, हर्निया। 
गोलाई 





एयेम्डिक्स, पेट, 
सीकमा 


जाँधे, | एपेन्डक्स का दर्द, बाइटे, श्वास लेने मे 
कठिनाई, एसिडोसिस, शिगओ का फुलना। 





मा शकयुग्रेशर--स्वस्थ आकार 


| अजनन अभ्थियाँ, डिस्वकोश, 
| पोत्ते, गर्भाशय, मूत्राशय 





| मूत्राशय की बीमारियाँ, मारि 
| तकलीफ दर्द के साथ, 3 
| गर्भपात, अनिच्छित पेशा, बा 


। प्रोस्टेट गज्यि, कमर के नीचे । साइटिका, कमर दर्द, ऐेशाः 
| के स्नायू, साइटिक नर्व॑ | लुग्बागो। 
यँगे, अँगूठे, चलवे। | पैरो मे कम खूलसचार, ठा 


कमजोर टखने व पलवे, १ 
| नितम्ब की हड्डियां, हिप बोन। | कमर और नितम्ब की बीर 















टागो में कमजोरी व बाँयटे। 








कोक्सीक्स बवासीर, मतद्वार की खुजली 


| मलद्वार, एस! 
| ___; हड्डी के नीचे दर्द (बैठने पर 


$[9#706 : रीढ़ की हड्डी की आकृति 


वर्तमान युग मे वैज्ञानिक प्रयवि के 
साथ-साथ चिकित्सा क्षेत्र में भी अभूतपूर्व क्रान्ति 
आईं है। जिस जकार प्राचीनकाल में बीमारी का / 
पता लगे बिना ही मानव काल-कवलित हो | 
जाता था। अब ये परिस्थितियाँ एकदम परिवर्तित... 
हे गई हैं। 

एक्सरे, सोनाआ्फी, केट स्केनिंग इत्त्यादि 
से शरीर के किस हिस्से मे कौनसी खराबी है 
दुस्‍्त पता लगाया जा सकता है। 

रीढ़ की हड्डी मे किस सधिपाद (009) मे विकृति है अथः 
एक्सरे से यह ज्ञात किया जा सकता हैं। कहने का तात्पर्य यह है हि 
सही समय पर सही प्रकार से तत्काल चिकित्सा की जा सकती है। 


रीढ़ की हड्डी से सम्बन्धित ग्रतिबिम्ध केद्ध : 


रीढ़ की हड्डी, स्पाईनल कोर्ड त्था पीठ की मांसपेशियों के 
केद्ध दोनें पैरों में अंगूठे से एडी की तरफ टखने तफ होते है। 





रोड के हड्डी, मर्दत पीठ एे कंथे के रोग 25 


हाथों में हथेली के ऊपरी हिस्से मे अंगूठे के यास भी प्रतिबिम्ब केद्र होते हैं। 
हाथों-पैरो तथा रीढ़ की हड्डी में प्रतिबिम्ब केंद्र तथा उन पर प्रेशर देने का 
तरीका इस प्रकार है :-- 
4.. हाथो के बाहरी भाग यानि अंगूठे के पास ग्रेशर दे। प्रेशर अंगूठे अथवा गोल 
पेन्सिल से भी दिया जा सकता है। 


2. गर्दन, पीठ, के तथा अन्य रोगों में जिन केन्द्रों पर प्रेशर दिया जावे वहाँ 
यह देख ले कि जिस केद्ध को दबाने से असहनीय दर्द हो वही केन्ध रोग से 
पीड़ित होते है। 


हल ४ हार :0 शटप्रपफ्ा धर (४४०७००७४ 
(तातभी गूरिद्रा को अतिव्ती ) 


है 088 ४०४ | 


लहट4 
(कुफ्फुस भौर इ्कास मलिकाश्षेत्रे 











[फह. शा छ70॥स 
खैश्ड 
कुफफुद झोद हेमा स गलि 


॥800 ॥(09689 


(हाय गर्ग) +.थी $४07/८9 
दायाँ गुर 


या गुदा) 


$क$छ#80०९ 
(धोरेसिशे 


लि ७ है तारह2 7९2 कक (४५ प्त छू 
शो हत्या शतक 909 # ७९६ 27९ 
(कुस्दे या घुटया प्रदेश) (रचा या बुटना प्रदेश) 
हे ६0७६३४ 
हि हि दे “काल पका 
आकृति 22 


शर्दन से सम्बन्धित रोग एवं उपचार : 


रीढ़ की हड्डी का वह भाग जो 'सरवाइकल वसट्रीबा' कहलाता है इसमें किसी 
प्रकार की विंकृति आ जाने से गर्दन, पीठ एवं कन्धे के कई प्रकार के रोग उत्पन 
हो जाते हैं। 


ऊ-क आमिर ४७४५ क “ेक. कलत-०- 


बॉय. २४.० अंक हो पडितर 


26 शकक्‍्युप्रेशर--स्वश्ण प्राकृतिक जीवन पद्धति 


इससे सम्बन्धित कुछ प्रमुख रोग इम प्रकार हैं-- 


4. सरवाइकल स्पोन्डीलोसिस 
2 चक्कर आना 

3 गर्दन में ऐठन 

4 कन्धे मे जकड़न, दर्द 


$. सरवाइकल स्पोडीलोसिस : 





आकृति 23 


इस रोग मे गर्दन पर कम अथवा तेज दर्द रहता है। उठने-बैठने, लेटने, हाथों 
को हिलाने, गर्दन को दायें-बायें घुमाने, झुकाने से दर्द होता है। कई बार पीठ में 
भयंकर पीड़ा होती है अथवा कई बह सम्बन्धित केद्धो पर सूजन भी आ जाती है। 
इसमें दर्द के कारण गर्दन स्थिर भी हे जाती है। कुछ रोगियों को उठते-बैठते, चलते 
फिरते वक्‍त घंक्‍्कर से आने लगते हैं 


रीढ़ की इड्डी गर्दन पीठ एवं कंधे के रोग या 
2. गर्दन में ऐंठन, क्थे में दर्द एवं जकड़न : 





आकृति 24 


इनमे सम्बन्धित स्नायुसंस्थानो मे विकृति, मांसपेशियों में कमजोरी अथवा गलत 
ढंग से उठने-बैठने अथवा अधिक शारीरिक अथवा मानसिक श्रम करने से इन रोगों 
का उदय होता है। 


रोस निवारण के उपाय एवं प्रतिबिम्ब केद्ध : 


गर्दन एवं कन्धे से सम्बन्धित सभी प्रतिबिम्ब केन्द्र हाथो एवं पैरो के अंगूठो 
के बाहरी हिस्सो में स्थित होते हैं। दाये हाथ एवं पैर के अंगूठे के प्रतिबिम्ब केंद्र 
गर्दन एवं कंधे के बाईं तरफ के भाग से सम्बन्धित है एवं हाथ के बाये एवं बाये पैर 
के अंगूठे के भाग गर्दन के दाये भाग से। अंगूठो का ऊपरी भाग गर्दन के ऊपरी 
भाग तथा अंगूठो का नीचे का भाग गर्दन के नीचे के हिस्सो से सम्बंधित होता है। 
इससे यह सुनिश्चित है कि गर्दन एवं क्थे के जिस भाग मे दर्द हो तो हाथो-पैसे 
के उन्ही सम्बन्धित केद्रो पर प्रेशर देना चाहिए। 

पैरो के तलवों तथा हथेलियों मे शरीर के विभिन्‍न भागो जैसे--कन्धो, बाजुओं 
तथा गर्दन के रोगों से सम्बन्धित प्रतिबिम्ब केंद्र सबसे छोटी अंगुली से थोड़ा नीचे 
छेते हैं। 


प्रायः कन्धे के दर्द एवं लकवे की अवस्था मे इन केद्धों पर नियमित प्रेशर 
देने से आशातीत सफलता मिलती है। 


28 एक्युप्रेश₹--स्वस्थ प्राकृतिक जीवन पद्धति 


कन्चे की जकड़न, कलाई एवं कुहनी में दर्द की अवस्था में निम्मानुसार प्रेशर 
दिया जाना चाहिए | 
पीठ, कूल्हे, पैरों एवं एड़ियों का दर्द 
उपचार एवं प्रतिबिम्ब केन्र 





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आकृति 25 

रोगों के प्रमुख कारण : क्षमता से अधिक वजन उठाने, कूदने, पैर फिसल 
जाने से इन रोगो की उत्पत्ति होती है। सैढ़ की हड्डी मे स्थित “डिस्क” खिसक जाने 
से दर्द का आभास होता है एवं जकड़न, ऐंठन सी हो जाती है। उप्र के अनुसार एवं 
शरीर को बनावट के कारण भी इस पर असर पड़ सकता है। कई बार जोर से खांसने 
अथवा छीकते पर भी इस प्रकार के शेग हो जाते हैं। 

“डिस्क प्रोलैप्स” होने के कारण कई रोगियों के दोनो थांगो में भी असर होता 
है। इसमे रोगियों के कमर का संतुलन बिगड़ जाता है जिससे एक पैर दूसरे पैर की 
अपेक्षा कुछ छोटा हो जाता है। 





रीड़ को हड्डी गर्दर पीठ एवं कंशे छे रोग 


प्रमुख प्रतिबिम्व केद्र 


चित्र संख्या 25 के अनुसार पीठ, कूल्हे, टंगों, पैर तथा ऐड़ियो के दर्द एव 
“हस्क प्रोलैप्स'” होने की स्थिति में ग्रेशर दिया जाना चाहिए। गेशर' प्रतिदिन « 
बार दिया जाना चाहिए। इससे इन सेगों में आशातीत राहत मिलती है। 





आकृति 26 


यदि रोग काफी पुराना हो तो कुछ समय लग सकता है अन्यथा शुरूआत में 
ही प्रेशर देने से रोग से शीघ्र मुक्ति मिल सकती है। 


घुटनों के पीछे मध्य में तथा पिंडलियों पर प्रेशर देने से शियाटिका, पैरों एवं 
एड़ियों का दर्द शीघ्र ठीक हो जाता है--- 





आकृति 27 


दा ०-0 + लक आह 
बा: सन्कृतप पिन नाक मय कि न चलता 7 
पं | 
के ध्प 
न हि 


3 ह अप ७ शिव पं. 2 है 
हि कपल यो किला ५०१५ कि ५ यह तर अफ, 0 बीज 


हैं; 


30 एड्युप्रेश₹-स्वस्थ प्रार 


इसमे रोगी को किसी सख्त 
स्थान जैसे लकड़ी के पाट अथवा 
जमीन पर दरी बिछाकर, लिटाकर 
पीठ पर अंगूठों से प्रेशर दिया जाना 
चाहिए। यह उपरोक्त चित्र मे स्पष्ट 
है। प्रेशर दोनों अंगूठों के द्वाय तीन 
बार करीबन 30 सैकंड के हिसाब से 
दिया जाना चाहिए। ऐसा प्राय. 
बारे-बारी से दायें एवं बायें भाग में 
प्रेशर दिया जाना चाहिए। 





तलवो की तरह बाहरी टखनो से बिल्कुल नीचे बीच मे - 
प्रेशर देने से इन रोगो मे एकाएक राहत मिलती है एवं ऐसा 7 
बिल्कुल गायब हो गया है। चूंकि यह केद्ध बहुत नाजुक एवं को! 
प्रेशर हलका एवं सहनशकिति के अनुसार ही देना चाहिए। 





5 


रीड की ड्ड्डी गर्दन पीठ शव केमे क॑ रांग 37 


इसके अतिरिक्त इन रोगो मे पैरो की अगुलियो विशेषकर अंगूठे के पास वाली 
दो अंगुलियों पर दिया गया प्रेशर विशेष लाभप्रद है। इसमे अगूठे एव अगुलियो 
के साथ ऊपर से नीचे की ओर मालिश की तरह प्रेशर दिया जाना चाहिए। पोठ के 
नीचे के हिस्से तथा टागो के दर्द की अवस्था में प्रेशर देने से भी काफी आराम 
मिलता है। 


सहायक प्रतिबिम्ब केद्ध 


पूर्व मे जो प्रतिबिम्ब केन्द्र बताए गए है वे सब 
सम्बन्धित अंगो के प्रमुख प्रतिबिम्ब केद्ध है। इसके 
अतिरिक्त भी कुछ सहायक प्रतिबिम्ब केन्द्र और है जिन 
पर भी यदि प्रेशर दिया जाए तो रोगों में तुरन्त आराम 
मिलता है। 

. दोनों पैरो तथा दोनो हाथो मे गुर्दे से सम्बन्धित 
केनद्ध है। इन पर प्रेशर देने से पीठ, पैर तथा 
शियाटिका रोगों में तुरन्त फायदा होता है। 
वैसे भी ये प्रतिबिम्ब केन्द्र शरीर के पांच तत्वों 

के सूचक है जिनसे शरीर का निर्माण हुआ है--जल, 

चल, अग्नि, वायु एव आकाश | इन पर किस प्रकार 
प्रेशर दिया जाए इसलिए चित्र में देखे। 
इसमे नाभि के प्रतिबिम्ब केन्द्र से शुरू कर सभी... आकृति 30 

बिन्दु पर बारी-बारी से प्रेशर दिया जाना चाहिए। प्रत्येक 

बिन्दु पर तीन सैकण्ड तक प्रेशर दें। प्रेशर तीन चक्र में दिण जाना चाहिए। प्रेशर 

दाहिने हाथ की पहली तीन अंगुलियों से आयें हाथ को ऊपर ग्खकर दिया जाए तो 

अधिक प्रभावशाली होगा। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि प्रेशर उतना ही दिये 
जाए जितना रोगी सहन कर सके। प्रेशर खाना खाने से पूर्व एवं खाना खाने के तीर 
घटे पश्चात्‌ दिया जा सकता है। 


शियाटिका के दर्द मे टांग के भीतरी भाग पर बिल्कुल मध्य में आोडी:धी: 
दूरी पर अंगूठे के साथ प्रेशर देने से शीघ्र राहत मिलती है। ५ 


फूल 
रू 
्अ रे 


फ्री > 
॥० हब 





एक्युप्रेशर--स्वस्थ प्राकृतिक जीवन पद्धति 


एड़ी के दर्द का इलाज : एड़ी का दर्द प्राय 

.. विकृति पैदा होने, चोट लगने अथवा शरीर में वायु की 

| स्थिति मे उत्पन्न होता है। इस रोग मे पीठ एवं टांगो के 

| पीछे, टखनो एवं एड़ी से ऊपर टांगो के नीचे के भाग पर 
| प्रेशर दिया जाना चाहिए। 


सनी 





सका. पथ 
के दे 2 ते ये के ० ७ ८ मय का बना कक, ७ पक 4 हूँ. 


5 जया 






पिण्डलियों का दर्द : कई बार इस रोग में बैठे-बैठे 
ही अथवा नीद में पिण्डलियो में एकाएक ज़ैकड़न सी होकर 
दर्द शुरू हो जाता है। ऐसा प्रायः थकान अथवा कमजोरी 
की अवस्था में होता है। यह दर्द प्रायः कुछ समय पश्चात्‌ 
स्वतः ही कम हो जाता है। कई महिनो पश्चात्‌ व्यक्ति को 
े पिण्डलियो मे ऐठन हो जाती है। इस रोग में पिण्डली के 
आकृति 3। पीछे तथा टखने के पास प्रेशर दिया जाना चाहिए--- 





दौड की हड्डी, गर्दन पीठ एवं कंधे के रोग 33 


संक्षिप्त सार : मुख्य रूप से यह कहा जा सकता है कि विभिन्‍न रोगो के 
कारण मनुष्य स्वयं ही खड़े करता है। दैनिक काम-काज, अनियमित दिनचर्या, लापरवाही 
एवं स्वास्थ्य को अनदेखा करा ही रोगों को आमंत्रित करना है। 


कुछ प्रमुख कारण ये भी हैं--- 
4. मोटापा 2. मधुमेह 


उपरोक्त कारणों से रोगो को शरीर में पनपने मे उपयुक्त वातावरण मिलता है। 
अतः मनुष्य को चाहिए कि समय रहते इनका उचित निवारण करले। साथ ही इन पर 
विपरीत प्रभाव डालने वाली क्रियाओं से पूर्ण रूप से परहेज रखे। 


कडीफ 





हृदय एवं रक्त संचार सम्बँधी रोग एवं उ 


(ए507चघंछा$ अ 6 निशा & 86060वच (60॥ 


हृदय की आकृति एवं उसकी कार्य प्रणाली : 


हृदय कोमल, लचीला 
एवं लाल रंग के थैले के आकार 
का अंग है। इसके मूल रूप'में 
चार खण्ड है। यह दोनों फेफड़ों 
के- मध्य स्थित रहता है। इसका 
आकार व्यक्ति की बन्द मुट्ठी के 
बराबर होता है। सामान्यतः यह 
पाँच इंच लम्बा, तीन इंच चौड़ा 
एवं ढाई इंच मोटा होता है। 
इसका आकार भी ख्ियो की 
अपेक्षा पुरुषों में थोड़ा बड़ा होता 
है। शक्ल में यह आम के आकार 
का ह्लोता है। आकृति 383 

हृदय स्नायु-संस्थान एवं मनुष्य की-जिन्दर्गी का एक महत्वपूर्ण 
की निष्कियता जिन्दगी का अन्त है एवं इसका सक्रिय रहना जिन्दगी है। 

हृदय का अमुख कार्य शरीर के रक्त को पर्म्पिग द्वार फेफड़ों तब 


एवं फेफड़ों द्वारा कार्बन-डाई-आक्साइड दूषित तत्व निकालकर आक्सीजः 
रबव घमक्ियों के द्वारा पूरे शरीर में पहुंकना है 





हद शर्त रणत संचार सप्यद्यी रोय इजे उकसार 35 
इृदथ तथा रक्त संचार सम्बन्धी रोग एवं निवारण : 


शरीर के अन्य हिस्सो की तरह हृदव के भी विभिन्न रोग हैं। हृदय के गेग 
मुख्यतः शरीर के ही विभिन्‍न विकारों से उत्पन्न होते हैं। यह कहना कि हृदय स्वत" 
ही रोग-ब्स्त छो जाता है उचित नहीं है। अतः स्नायुसंस्थान की गड़बड़ियों से ही 
हृदय सेगों का जन्म होता है। 


हृदय के प्रमुख रोग :-- 


हाई ब्लड प्रेशर (उच्च रक्तचाप) 

लो ब्लड प्रेशर (निम्न रक्तचाप) 

वाल्व सम्बन्धी रोग 

रक्‍्तवाहिनियों एवं शिराओं सम्बन्धी रोग 
हृदय की असामान्य आकृति 

हृदय के चारों ओर दूषित पदार्थ इकट्ठा होना 
हृदय की असामान्य घड़कन 

गति में अवरोध 

दिल का दौरा इत्यादि! 


जैसा कि सर्वविदित है कि मनुष्य की अनियमित दिनचर्या, खान-पान एवं रहन 
सहन के विकारों के कारण शरीर में बीमारी का प्रादुर्भाव होता है। 


यदि मनुष्य दिनवर्या में सुधार करले एवं नियमित व्यायाम, पर्याप्त शारीरिक 
श्रम एवं संतुलित भोजन का उपयोग करे तो सम्भव है कि वह इन सब व्याधियों से 
भुक्त हो सकता है। इनके अभाव में वह लगातार मानसिक तनाव से अस्त रहता है, 
अमिद्वा का शिकार हो जाता है एवं अत्यधिक दवाइयों का सेवन करने लग जाता है 
जो बीमारियों के आमंत्रण का मूल कारण है! 


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आकृति 34 
व रक्तच्ाए (हाई ब्लडप्रेशर) :; 


उच्च रक्तचाप का मतलब है रक्त वाहिनियों के अन्दर रक्त 
दीवासें पर स्मान्य से अधिक दबाव डालना चैसा कि शरी 


दय एज रक्त संचार सम्बन्धी रोग एल उक्लार 37 


महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है उसी के द्वारा रक्त शुद्ध होकर धमनियो द्वारा पूरे 
शरीर मे संचरण करता है एवं अशुद्ध रक्त को पुनः शुद्ध करके शरीर में वितरण 
कर देता है। 

रक्त पर हृदय की पम्पिग का जो दबाव पड़ता है उसे रक्तचाप कहते है। इसमे 
सामान्य दबाव के अलावा जो दबाव पड़ता है उसे ही रोग कहते हैं। बढ़े हुए दबाव 
को उच्च रक्तचाप एवं कम दबाव को निम्न रक्तचाप कहते हैं। 


उच्च रक्तचाप के लक्षण : जैसा कि कोई भी रोग एकाएक नहीं होता बल्कि 
उसके पूर्व कई प्रकार के लक्षण दिखाई देने शुरू हो जाते हैं उसी प्रकार उच्च रक्तचाप 
में भी पूर्व मे सिरदर्द, चक्कर आना, भारीपन महसूस होना, थकान, चिड़चिड़ापन, 
अनिद्रा, बदहजमी, बैचेनी, कब्ज, धड़कन तेज हो जाना तथा ऊपर चढ़ते वक्‍त सास 
फूल जाना इत्यादि है। 

उच्च रक्तचाप का सही एवं समय पर इलाज न किया जाए तो कई रोग हो 
जाते है, जैसे--हृदयाघात, लकवा, गुर्दे इत्यादि के रोग। 

इसे नियंत्रित करने के लिए कुछ खास उपाय इस प्रकार हैं - संतुलित आहार, 
अधिक नमक, मिर्च, तेल, तेज मसालो का त्याग एव नशीली चीजो इत्यादि पर रोका 

चिंता, शोक, भय, क्रोध इत्यादि का त्याग एवं उन पर नियंत्रण, मधुमेह, मोटापा 


इत्यादि का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए। महिलाओ में गर्भनिरोधक गोलियो का 
सेवन भी उक्त बीमारी का कारण है। 


उपवास इत्यादि इससे छुटकारा पाने के प्रमुख उपायो में है। कम प्रोटीन का 
दूध, दही, आलू, टमाटर, गाजर एवं संतरे का जुस नियमित सेवन करने से इस पर 
नियंत्रण किया जा सकता है। कच्चे प्याज को सलाद के रूप मे खाना भी बहुत लाभप्रद 
है। इसके अतिरिक्त एक गिलास पानी मे एक चम्मच मेथी भिगोकर सुबह उस पानी 
को पीने से रक्तचाप नियंत्रिण होता है। 


निम्न रक्तचाप (लो ब्लड प्रेशर) : 


निम्न रक्तचाप के कई कारण हैं, जैसे--संतुलित आहार की कमी, काफी समय 
से बीमार रहने, क्षय अथवा हृदय रोग इत्यादि। इसके अतिरिक्त कुछ व्यक्ति जब 
तक लेटे रहते है तब तक तो ठीक रहते है परन्तु उठते ही उन्हे निम्न रक्तचाप हो 
जाता है 


38 एक्युप्रेशर--स्वस्थ प्राकृतिक जीवन पद्धहि 


मुख्यतः पेट में कब्ज, संतुलित आहार की कमी एवं खून की कप्री के कारण 
भी निम्न रक्तचाप हो जाता है। यह भी पाया गया है कि अधिक पसीना आने, बवासीर 
एवं स्लियों के मासिक धर्म में अधिक रक्‍तस्राव या गर्भपात के कारण भी यह बीमारी 
प्रक८ हो जाती है; लगातार नींद की गोलियां भी इसको बल देती हैं। 


इसके रोगी को प्रायः घबराहट, छाती मे जकड़न, चक्कर आना, थकान, सिरदर्द 
एवं ठंडा पसीना आने की शिकायत रहती है। इसका तत्काल इलाज होना चाहिए 
एवं रोगी के शरीर में पानी व नमक की कमी नहीं होने देना चाहिए। 


अल्पकालिक इृदय शूल-एंजाइना : यह रोग सीने मे बायी तरफ दर्द के 
साथ शुरू होकर कई बार हाथों एवं हथेलियों तक पहुंच जाता है। इस रोग के शिकार 
प्रायः 40 वर्ष से ऊपर के लोग होते हैं। यह रोग प्रायः अधिक शारीरिक, मानसिक 
श्रम, भय एवं पबराहट, अधिक सर्दी लगने अथवा आवश्यकता से अधिक खा लेने 
के कारण होता है। 


इस रोग में पूर्व में छाती मे जकड़न, श्वास में परेशानी एवं बैचेनी का अनुभव 
होत्र है। तत्पश्चात्‌ दर्द की शुरूआत होती है। अक्सर रोगी यह समझ बैठता है कि 
उसे दिल का दौरा पड़ गया है। 


फिर भी इसका समय पर इलाज किया जाना चाहिए अन्यथा बार-बार के 
आक्रमण से वास्तव में हृदय रोगों को बुलावा देना है। अक्सर यह रोग उच्च रक्तचाप 
के कारण होता है। धूम्रपान 
पूर्णतया त्याग देना चाहिए। 

प्रमुख प्रंतिविम् 
केझ-सम्पूर्ण शरीर में हृदव 
से सम्बन्धित प्रमुख प्रतिबिम्ब 
केद्र बाये हाथ तथा बावें पैर 
के तलुए में होते हैं। वैसे भी 
इन आंगों में सभी केन्द्रों पर 
प्रेशर देने से जिस केद्र में 
अधिक पीड़ा, चुभव इत्यादि 
हे वह प्रमुख केद्र मात्र जाना 
चाहिए। 





_दव शर्त रक्त संचार सम्मश्धी रोग एवं उपचार 39 


अन्य प्रतिक्षिम्ध केदझ : हृदय की समस्त बीमारियों एवं इसे सशक्त बनामे 
के लिए मूल रूप में पिट्यूटरी, थायराइड एवं पीनियल अंथियो की कार्य-क्षमता को 
सही रखा जाना चाहिए। इनसे सम्बन्धित प्रतिबिम्ब केद्धों पर नियमित प्रेशर दिया 
जाना चाहिए! 


उच्च रक्तचाप से सम्बन्धित प्रेशर बिन्दु 


इन केन्द्रों पर अंगूठे से पाँच से 
सात सैकंड तक तीन बार प्रेशर दिया 
जा सकता है। उच्च रक्तचाप में गले में 
ऊपर की तरफ अंगूठे अथवा अंगुलियो 
से हलका प्रेशर दिन मे दो तोन बार 
कुछ सैकण्ड तक दिया जाना चाहिए। 

कन्धो एवं बाजुओ के ऊपर भी 
कुछ क्षण तक प्रेशर देने से शीघ्र राहत 
मिलती है-- 

कृपया ध्यान रखे कि प्रेशर खाना 
खाने से पूर्व एवं खाने के दो-तीन घंटे 
पश्चात्‌ दिया जाना चाहिए। 












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शक 
हम शक्ल पु शक ब> +> पक जन छु 
् क्र है 


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आकृति 36 


निम्न रक्तचाप के केद्र 
विन्दु-इसमें चित्र मे दिये गये केन्द्रों 
पर तीन बार लगातार 5 सैकण्ड तक 
प्रेशर दे-- 


छ 


् 
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हु 
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हे 


$ हृदय के वाल्य का प्रतिब्रिम्द 
॥ ३... केद्ध : इस रोग में बाये एवं दाये हाथ 
ही एवं ऐैर मे प्रतिबिम्ब केन्रों पर प्रेशर 


आकृति 37 देने से तुरच आसम मिलता है। 


एक्युप्रेशर-स्थव्य ग्राकृतित 


हर 8॥500 5त0वां0 (?7855078) एलादा 






०] 


श्ह्रड्ध॑ 











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| 44 | 728 
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॥3] 
432 
|__50 [| 733 
| 34 
34 
| _ 539 [| 38 
| 36 
_38 


व्यायाम : स्वस्थ शरीर के लिए व्यायाम उतना ही जरूरी है जितन 
च्यायाम शारीरिक, मानसिक एवं बाहरी बीमारियों से न केवल शरीर की 
है अपितु शरीर का संतुलन भी बनाए रखता है। वस्तुतः हृदय रोग, ऊ 
एवं निम्न रक्तचाप वाले रोगियों को नियमित रूप से सुविधानुसार व्याः 
का भी विशेष ध्यान रखझ जरूरी है। उन पदार्थों का सदैव एवं सर्वथा 
भी ज़रूरी है जो इन बीमारियों को बढ़ाने में सहायक हैं। 


६४५७४ 





पाचन तंत्र (0089007) 





पाचन तंत्र शरीर में इंजन के रूप में कार्य करता है। जिस प्रकार गाड़ी 
इंजन सही रूप से कार्य नहीं करन पर गाड़ी को वर्कशॉप में भेजा जाता है 
प्रकार पाचन तंत्र गड़बड़ा जाने 
पर आधुनिक वर्कशॉप यानि 
हॉस्पीटल इत्यादि मे मनुष्य को 
दाखिला लेना पड़ता है। 


पाचन तंत्र के प्रमुख भाग 


4.. लीवस्यकृत ([४७॥) 
2. आमाशय (5(/760०॥) 
3 आंतें (॥68॥85) 
बकृद [.४8८ : यकृत 
शरीर की सबसे बड़ी ग्रन्थि है। 
यह शरीर मे दायी ओर स्थित 
होता है। इसका वजन स्वस्थ 
व्यक्ति के शरीर में लगभग तीन 
पौण्ड होता है। बाहर से इसका 





पकयुव्रेशा--स्वस्थ प्राकृतिक जीवन पद्धति 


(र लगभग ग्यारह इंच और अन्दर का आठ इंच होता है। मुख्यतः यह '१९॥० 
१७ 088705” - यानि प्रमुख गग्धि है। शरोर का एक चौथाई श्वत इसी के द्वारा 
रेत होता है। 


त के प्रमुख कार्य :- 


यह विभिन्‍न खनिज, जैग्ने--कार्बोह्नइड्रेट, वसा, प्रोटीन, लोहा एवं प्रमुख 
विठमिन ए, बी, डी, ई का शरीर के लिए निर्माण करता है। साथ ही शरीर 
के प्रमुख अंगों में इन्हें पहुंचात है। वसा” द्वार शरीर को आवश्यक ऊर्जा 
प्रदान करत है। 

पाचन क्रिया द्वारा भोजन से शर्कश को ग्लुकोज तथा माल्टोज जब रक्त द्वार 
यकृत मे ले जाया जाता है तो यह इन्हें ग्लाइकोजन (शर्करा) में परिवर्तित कर 
अपने पास संचित कर लेता है। शरीर की आवश्यकता के अनुरूप समय-समय 
पर ऊर्जा एवं ग्लूकोज रक्त गवाह मे पहुंचाता रहता है जिससे रक्त का स्तर 
सामान्य बनाए रखने में सहायक होता है। 

इसका प्रमुख कार्य पित्त का निर्माण करना भी है। आवश्यकता से अधिक पित्त 
मलमार्ग द्वारा शरीर से बाहर निकाल देता है। इस प्रकार पित्त जो कि पाचन 
क्रिया में सहायक है, उसका निर्माण भी करता है एवं अनावश्यक भाग को 
शरीर में इकट्ठा नही बने देता। 

यह रक्त संचरण मे आने वाले हानिकारक तत्वों को नष्ट कर लाल रक्‍त कणों 
का निर्माण करता है। 


यकृत के कुछ प्रमुख रोग : यकृत 'जिगर' के अस्वस्थ होने तथा कार्यप्रणाली 
(व आ जाने के कारण कई सोग उत्पन हो जाते हैं, जैसे-- 
पीलिया-जैसा कि यकृत द्वाग पित्त का निर्माण किया जाता है परन्तु अधिक 


अथवा अनावश्यक पित्त मलमार्ग द्वारा बाहर नहीं जाकर रकतवाहिमियों में चला 
जाता है तो पीलिया हो जाता है। 


इसकी दूषित कार्यप्रणाली के कारण शरीर मे आलस्य, सिर मे भारीपन, कब्ज, 
दुर्बलता कप का आभास होता है। तेज बुखार एवं मांसपेशियों में जकड़न 
सी रहती है। 


अस्वस्थता की स्थिति में इसके आकार मे भी परिवर्तन हो जाता है। मलेरिया 
अथवा टाइफॉइड में यह सामान्य से अधिक आकार का हो जाता है। 


इसके दुष्प्रभाव के कारण रोगी सुस्त तथा चिड़चिझ़ हे जाता है। 


पाशन लैश 43 


5. शगरब के अत्यधिक सेवन से यह अधिक विकृत तथा संकृचित हो जाता है 
फलतः रक्त नलिकाएँ फटने का डर रहता है एवं फटने पर शेगी की मृत्यु 
भी संभव है! 


8. अत्यधिक नशीली दवाइयों के सेवन से भी इसमे सृजन आ जाती है जिससे 
उल्टी दस्त हो जाते हैं एवं पीलिया भी हो सकता है। 


7 इसकी कमजोरी के कारण पेट का फूलना, स्मरण-शक्ति इत्यादि मे विकार 
उत्पन हो जाते है। 


एक्युप्रेशर द्वारा इसके (यकृत) रोगों का उपचार 


जैसा कि पूर्व में बताया जा चुका है कि यकृत हमारे शरीर में दायी तरफ 
स्थित है इसलिए इसके प्रतिबिम्ब केन्द्र भी दाये पैर के तलवे में स्थित होते हैं। इन 
पर अंगूठे से प्रेशर दिया जाना चाहिए। 


पाफता > “७५ /3/४-४ंता 





आकृति 39 


ध््यय से आई जूक बऊ,पज्य फरिकाप 


4 एक्यग्रेशार-स्वस्थ प्रार्का 


भोजन एवं अन्य ध्यान देने योग्य बातें : 

यकृत जिगर के सेगों में चीनी, मैदा, मिठाइयाँ, आलू एवं 
का सेवन नहीं करना चाहिए। नीबू, प्याज, अदरक, मौसमी, संतरा इठ 
सेवन करना चाहिए। 

पित्ताशय : पित्ताशय एऊ अकार की थैली होती है जो वकृत 
स्थित होती है। इसमे यकृत से निकला हुआ पिच्त जमा होता रहता 
पिन्ाशय कहते हैं। इसका प्रमुख कार्य पित्त द्वारा भोजन को पचाना 


पिन्नाशय के रोग : पित्ताशय के प्रमुख रोगों मे गालस्टो 
प्रकार के कठोर आकृति के पत्थजुमा टुकड़े होते हैं जो शायद 
कोलेस्ट्रोल से बनते हैं। 

गालस्टोन्स' ज्रायः अधेड़ उप्र की औरतों में अधिक पाये जा 
में खाना खाते समय और बाद मे अत्यधिक दर्द होता रहता है तः 
बुखार एवं उल्टियाँ होने लगती हैं। यह भी माना जाता है कि यह 
श्रेणी में आता है। शिक्ता है ५ टच 

इससे पित्ताशय /“ / 
में सूजन एवं छाले भी ४“ | 
पड़ जाते है। डॉक्टर... 69) ४ 
प्राय. आपरेशन द्वारा 
इन्हे निकलवाने की 
सलाह देते हैं। 


एक्बुप्रेशर झरा 
निदान : पिताशय 
चूंकि पेट में दा्कीं ओर 
स्थित जेता है इसलिए 
इसके प्रतिबिम्ब केद्ध 
नी दाये पैर एवं दायें 
हाथ में होते हैं। इसमें 
थ-पैर दोनों में समान 
शेशर दिया जाना 
जहिए 





चाहने तंज 


पित्ताशय में गालस्टोन्स' के रोगियों के प्रतिब्रिम्ब केंद्रों पर ग्रेशर देते से 
अत्यधिक सावधानी की जरूरत है। प्रेशर अंगूठे द्वार प्रारम्भिक अवस्था में धीरे 
दिया जावे तथा तदनुसार थोड़ा अधिक बढ़ाया जा सकता है। 

गालस्टोन्स' मे संतुलित आहार लिया जान। चाहिए तथा अधिक उसा 
चर्बी वाले पदार्थों का त्याग करना चाहिए! 


पाचनतंत्र के अन्य शेग : 


आमाशय के रोग--जैसे अल्सर, पेप्टिक अल्सर 

आतो के रोग, सृजन इत्यादि 

अपेडिसाइटिस 

उल्टी, मल द्वार खून निकलना 

पेचिस, दस्त इत्यादि 

कब्ज, बवासीर, पेटदर्द इत्यादि। 

पाचनतत्र के रोगों मे जिस अंग से सम्बन्धित बीमारी है उससे सम्बन्धित वे 
पर प्रेशर दिया जाना 

चाहिए। 08)+7 


पेट के आय सभी 
सेमी में चित्र मे बताये गये 
सभी केद्भों पर हाथ की 
अगुलियो से बारी-बारी 
तीन बार प्रेशर दिया जाना 
चाहिए। प्रेशर मुख्यत. 
खाना खाने के पहले तथा 
खाना खाने से दो तीन 
घंटे पश्चात्‌ दिया जाना 
चाहिए। 

अपेंडिसाइटिस : 
इसमें पीठ पर अंगूठो द्वार 
प्रेशर देने से दर्द मे आराम 
मिलता है। आकृति 4॥ 


कण + ७० ७ ४ 





46 एक्युप्रेशर-स्तस्थ प्रार्काः 


पेट के रोगो में संतुलित एवं पाचक आहार का विशेष योगदान 
के साथ-साथ एक स्वस्थ व्यक्ति को दिन भर में तीन लीटर पानी अवश् 
यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि जिस चीज को खाने-पीने से पीड़ा 
होती हो वह सेवन न करे। 

कब्ज, बवासीर : यह आम कहावत है कि कब्ज सौ गेगो क॑ 
उत्पन होने वाले गोेगों मे सिरदर्द, रक्तचाप, गैस, अनिद्रा, गठिया 
शुरूआत होती है। 

कब्ज की शुरूआत का कारण आतों मे मल का जमा होना है। ' 
श्रम न करने, व्यायाम न करने, आराम की कमी, चिन्ता इत्यादि से ह 
गरिष्ठ भोजन, जैसे--अधिक चिकनी चीजें, मैदे से बनी चीजें, भूरू 
खाते रहने से, भोजन चबाकर अच्छी प्रकार न करने एवं पानी की ६ 


कब्ज दूर करने में भोजन को भली प्रकार चबाकर करना चा 
आधा घंटा पूर्व एवं एक घंटे पश्चात्‌ पानी का सेवन करें तथा दिन 
तीम लीठर पानी अवश्य पीएँ। हल्का व्यायाम, पर्याप्त विश्राम, नित्य 
सब्जियो विशेषकर पत्ती वाली सब्जियो का सेवन करना अत्यधिक उ 
मे सलाद का सेवन सोने में 
सुहगे के समान है! यह भी 
जरूरी है कि सप्ताह में एक दिन 
निराहर रहें जिससे पाचन क्रिया 
का संतुलन बना रहे एव स्वास्थ्य 
ठीक रहे। नशा, वासना इत्यादि 
का त्याग कर देना चाहिए। 


बवासीर : बवासीर का 
भुख्य कारण कब्ज ही है। मलद्वार 
में रुकावट के कारण आंतो में 
सूजन उत्पन हो जाती है जिससे 
उनमे पस पड़ जाता है। इसके 
कारण आंतों से खून का रिसाव 
शुरू हो जाता है, जो कष्टप्रद 
एवं स्वास्थ्य गिरने का लक्षण 
है। एक्युप्रेशर मे चित्र में बताए 
गए स्थानों पर सवेरे शाम दो 
बार प्रेशर दिया जाम्र चाहिए आकृति 42 





झाखन सैंऋ दा 


अन्य पेट सम्बन्धी रोग : 


4.. हिचकी : हिचकी लगातार आने से व्यक्ति परेशान हो जाता है। इसके लिए 
चित्र में दिखाये गये प्रतिबिम्ब केद्धों पर प्रेशर दिया जाना चाहिए । 





आकृत्ति 43 रे 
वेच्यूटी, नाभिचक्र के अस्थायी रोग : 


हक मे | ड़ 
; 


48 एक्युप्रेशर-स्वस्थ प्राकृतिक जीलग परुति 


इन रोगों का प्रादुर्भाव प्रायः चलने में असावधानी, अधिक वजन उठाना अथवा 
कूदने इत्यादि से होता है। कहने को तो ये रोग महज सामयिक हैं परन्तु, इनसे उत्पन 
दर्द एवं परेशानी के कारण रोगी विचलित हो जाता है। इससे जी घबराना, दस्त होना, 
भूख न लगना एवं पेट में अत्यधिक दर्द रहता है। बैसे दवाइयों द्वारा इनका इलाज 
सम्भव नहीं है परन्तु अनुभवो के आधार पर निम्न क्रियाओं द्वारा इन्हें ठीक किया जा 
सकता है-- 

4. प्रातःकाल बिना खाये पीये सीधे लेटकर पैरों के दोनो अंगूठे मिलाएँ। यदि 
दोनो अंगूठो की लम्बाई में फर्क हो तो यह समझना चाहिए कि नाभिचक्र अपने 
स्थान पर नहीं है। इसलिए चित्र मे बताए अनुसार अंगूठे को खीचना चाहिए 
जिससे वह बराबर की स्थिति में आ जाए- 


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शियाटिका (5८90708) 












मत 


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५ ॥। १३ बे %# | 
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ड्ियांटिका छा 


शियाटिका नाड़ी हमारी मेरुणज्जु से होकर कूल्हे और टाग के जिस भाग से 
मुजर कर पांव के टखनों तक पहुंचती है उस भाग में इस गाड़ी से सम्बन्धित जो दर्द 
उठता है उसे शियाटिका कहते है। यह दर्द अत्यन्त तीव एवं असहनीय होता है। 
शियाटिका नाड़ी हमारे स्नावुसंस्थान की प्रमुख गाड़ियों मे से एक है। यह पीठ 
मे रीढ़ की हड्डी मे चौथे और पांचवें लम्बर से निकलती है दथा मेरुरज्जु से होकर 
नितम्ब एवं कूल्हों को पार करती हुई घुटनों से पहले दो भागो मे विभवत होकर टांग 
के पीछे से होती हुई णंव मे टखनों के पास्र पहुंचती है। यह शरीर की सबसे चौड़ी 
और लम्बाई मे सबसे लम्बी नाड़ी है। इसकी चौड़ाई लगभग 2 सेंटीमीटर (0५क/छ 
॥आ) होती है। 
मेरुण्ज्जु (59॥8। 000) शरीर में स्नायुसंस्थान का एक प्रमुख हिस्सा है। 
यह सिर से निकलकर पीठ के पीछे के हिस्से मे पहले लम्बर तक जाती है। आम 
व्यक्ति के शरीर में इसकी लम्बाई लगभग 42' लम्बी होती है। 
शियाटिका रोग के कारण : इस रोग के होने के प्रमुख कारण हैं-- 
रीढ़ की हड्डी में लम्बर भागों में विकृति। 
लम्बर भागो का अपने स्थान से खिसकना अथवा ठेढ़ा-मेढ़ा हो जाना। 
रीढ़ की हड्डी के पास किसी प्रकार का फोड़ा अथवा ट्यूमर हो जाना। 
रीढ़ की हड्डी मे किसी प्रकार की सूजन होना। 
कूल्हे की हड्डी अथवा पेट के निचले हिस्से मे सूजन अथवा मूतञ्रशय के किसी 
शेग के कारण। 
6 अधिक वजन उठाने अथवा असंतुलित झुकाव के कारण जिससे इस नाड़ी पर 
प्रभाव पड़ने से इसमें सूजन आ जाती है एवं दर्द शुरू हो जाता है। 
7 गुर्दे की खराबी से भी इस रोग की शुरूआत होती है। 
शेग के भ्रमुख लक्षण : इसमें असहनीय दर्द होता है। रोगी को कांये के 
समान चुभन एवं तीव दर्द होता है जो पीठ से शुरू होकर पैर तक पहुंचता है। इस 
रोष मे रोगी के लिए उठना-बैठना, चलना यहाँ तक कि सोने, करवट लेने मे भी 
अत्यधिक कष्ट होता है। यदि रोगी हिम्मत कर उठने की कोशिश भी करे तो पुनः 
उस अवस्था में आने के लिए तड़पने लगता है। 
यदि रोगी सीधा लेटना चाट्टे तो लेट नही सकता एवं न ही उठ सकता है। 


छा + ७ (७ :० 


नल एबडप्रेशर-स्वस्थ प्राकृतिक जीवन 


शरीर द्वार किसी प्रकार की प्रतिक्रिया किया जाना कष्टकर हो जाता है यहाँ त 
छीकने अथवा खांसने से भी दर्द तीव्र हो उठता है। 

यह गेग कई लोगो को एक बार होता है तो कइयों को कुछ महिनो . 
कुछ वर्षों मे बार-बार हो जाता है। 

एक्युप्रेशर हवारा रोग निदान : एक्युप्रेशर द्वारा चित्र मे बताये गये प्ररि 
केद्धो पर प्रेशर देने से तुर्त ही आराम मिलता है। इसके साथ ही यह भी जान 
जरूरी है कि शियाटिका दर्द वास्तव में रीढ़ की हड्डी के लम्बर वाले हिस्सों मे 
अथवा चोट से ही शुरू हुआ है। 


निछता -. 





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सनक 


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५ ससन+ मम बनाओ सनम 


आकृति 46 
तलवे मे जिस स्थान से एड़ी का हिस्सा शुरू होता है उसके आसपास 


दा के प्रतिबिम्ब केन्द्र झोते हैं इन केन्द्रों पर अगूठे द्वाय प्रेशर दिया 
चाहिए। 


ग़याधदिका 53 


चूंकि एड़ी का यह भाग सख्त होता है इसलिए रबड़ या लकड़ी के किसी 
उपकरण से भी प्रेशर दिया जा सकता है। यह सर्वदिदित है कि जो भाग दबाने से 
ज्यादा दर्द करे वहाँ इस रोग का प्रतिबिम्ब केद्र माना जाता है। 

रोगी को जमीन अथवा लकड़ी के ठख्ते पर एक तरफ लिटाकर हाथ के अंगूठो 
के साथ चित्र के अनुसार नीचे की ओर जोर से लगभग आधा मिनट तक तीन बार 
प्रेशर देने से गेगी को दर्द से एकदम आराम मिलता है। 


शीघ्र आराम के लिये प्रतिदिन पांच मिनट वज्जासन करना चाहिये। 


ऋ कक 





गुर्दे तथा मूत्राशय सम्बी रोग 
[]58858$ 9 (6 ((ए08995 & ७9५ 5एडशा। 


मूत्र विसर्जन से सम्बन्धित अंग-- हे अल 


4, गुर्दे ॥॥ा8५5५ 

2 गवीनियां (05 ९ 
3 मृतराशय (भरात्ा५ 88000 । 
4. मूत्नली (काल 


हमारे शरीर मे दो गुर्दे होते है जो रीढ़ की ““* 
हड्डी के नीचे दोनों ओर स्थित होते है। दाहिना डे | 
गुर्दा बायें गुर्दे से अपेक्षाकृत आकृति में सामान्य. पव्त७ # 
रूप से बड़ा एवं झुका होता है। इसका कारण यह १४4४० | 
है कि हमारे यकृत के बोझ एवं दबाव के कारण 
दाहिना गुर्दा थोड़ा झुका हुआ होता है। 

गुर्दे की लम्बाई सामान्यतः  सेटीमीटर 
एवं चौड़ाई 6 सेटीमीटर होती है। गुर्दे मे सूक्ष्म 
नलिकाओ का एक जाल सा छोता है जो रक्त साफ करने का कार्य करती है। 

शरीर की मशीनरी का यह नियम है कि शरीर मे पुराने पदार्थ निकाल कर 
उनकी जगह नए पदार्थों का निर्माण करना। जैसे शरीर में कार्बबडाइआक्साइड, यूरिया 
यूरिक एसिड आदि जो कि शरीर के लिए अनुपयोगी होते है उन्हे शरीर से मूत्राशय 





गुर्दे लगा पूज्राशय सम्ब्धी रोम 5/० 


के मार्ग से बाहर निकालना। यदि शरीर द्वाण त्याज्य पदार्थ शरीर में ही बने रहे तो 
स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं। इन पदार्थों का निर्माण एवं त्याग की 
क्रिया गुर्दों द्वाता होती है। इसके अतिरिक्त गुर्दे शरीर मे जल के संतुलन को बनाए 
रखते है तथा हानिकारक पदार्थों को तथा जरूरत से अधिक लवणो को शरीर से 
बाहर निकाल देते हैं। इससे स्पष्ट परिलक्षित होता है कि गुर्दो का शरीर को स्वस्थ 
रखने मे कितना महत्वपूर्ण योगदान है; इसलिए गुर्दे जब अस्वस्थ हो जाते है तो 
शरीर अनेकों गभीर बीमारियों का शिकार हो जाता है। 


गुर्दों की इतनी क्षमता है कि इनमे थोड़ी बहुत खराबी होते हुए भी ये शरीर 
का दैनिक कार्य बखूबी करते रहते हैं। फिर भी यदि एक भुर्दा बिल्कुल काम करना 
बन्द कर दे तो दूसरा गुर्दा पूरे शरीर का कार्य कर सकता है। 


गुर्दे के रोगों के लक्षण : गुर्दे के रोगी की त्वचा का रंग पीला पड़ जाता 
है एवं चेहरे पर चिकनाहट स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। शरीर की नस प्राय. फूल जाती 
है। इस स्थिति को शोथ कहते है जो आखो के नीचे दृष्टिगोचर होता है। 


गुर्दे के गेगो मे बार-बार मूत्र आना, अचानक मूत्र निकल जाना अथवा मूत्र मे 
कष्ट होना या मूत्र के साथ खून आना या अधिक मात्रा मे मूवर आना आम रोग है। 


]. गुर्दे की पथरी (/(७9५ 500॥85) : 


यह रोग मुख्यत- अधेड़ उम्र के व्यक्तियो मे अधिक पाया जाता है क्योकि 
इस अवस्था मे उनकी विभिन्‍न शारीरिक कमजोरियों के फलस्वरूप गुर्दे मे विभिन्‍न 
प्रकार के ऐसिड, कैल्सियम अथवा अन्य रासायनिक पदार्थों के इकट्ठा होकर जमा हो 
जाने से वे छोटे-छोटे दानों का रूप ले लेते हैं जिससे मूत्रत्याग मे कष्ट एवं दर्द 
महसूस होता है। 


2. मूत्राशय की पथरी (0#7फ 50769) : 


इस शेग मे अधिकतर गुर्दो के स्टोन्स यूरेटर के गस्ते से मूत्राशय मे आ जाते 
है। इस रोग में मूत्र मे पीड़ा, पस, रक्त एवं एलब्युमिन पदार्थ मूत्र के साथ निकलते 
रहते है। 


इक्डुकेलर--स्वस्थ प्राकृतिक 


छार द्वारा उपचार 
मुत्राशय से सम्बन्धित प्रतिविम्ब केन्र दोनो पैसे कथा हाथो में होः 
क्लवीं के नीचे एवं एड़ी से थोड़ा ऊपर होते हैं। 





प्राछला २ /“५० /“»-तिा 


आकृति 48 
यदि गुर्दे का गेग ज्यादा पुराना हो अथवा अधिक हो हो इन प्र: 
तह 2-3 बार प्रेशर देना चाहिए। तदनुसार धीरे-धीरे प्रेशर नि 
फता है| 


साधारण शोगो मे नियमित रूप से प्रेशर दिया जा सकता है। 


ऊँ कक: 





प्रधुमेह (090०४) 





मधुमेह रोग आधुनिक युग की देन नहीं अपितु प्राचीन काल में भी इस रोग 
की शुरूआत हो चुकी थी। जहाँ तक इसके होने की सभावनाएँ व्यक्त की जाती है 
यह रोग मात्र वृद्ध, अधेड अथवा जवानों मे ही नहीं अपितु बच्चों मे भी होने की 
कम होती है। साराश यह है कि यह रोग प्रत्येक उम्र के व्यक्ति को हो सकता 

। 

शेग के लक्षण : इस रोग से असित व्यक्ति को प्रायः बार-बार भूख लगती 
है, बार-बार पेशाब की शक्रा होती है एवं प्यास भी अधिक लगती है। यह क्रिया 
सामान्य अवस्था से कई गुना बढ़ जाती है। रोगी के वजन मे असामान्य रूप से कमी 
आ जातो है। साथ ही शारीरिक एवं मानसिक दुर्बलता एवं थकावट आ जाती है। 
मांसपेशियो मे सिकुडन होने लगती है। स्नायुसस्थान मे विकार उत्पन्न हो जाता है। 
फोड़े-फुसियाँ प्राय. पैसे में अंगूठे एवं अंगुलियों मे, एड़ियो मे, कुहनियो, कूल्हो 
तथा मूत्र अंगो के पास होते है। 

इस रोग के बढ़ने अथवा अनियंत्रित हो जाने पर कई रोगो की शुरूआत हो 
जाती है. जैसे--गुर्दों की खराबी, लकवा अथवा अंगो का सुन हो जाना, क्षय रोग, 
दृष्टि रोग, अच्यापन अथवा खियो में गर्भपात अथवा समय पर प्रसव नही होने की 
समस्याएँ खड़ी हो जाती है। 

यो तो इस रोग के उत्पन होने के निश्चित कारणों का पता नहीं लग सका 
है परन्तु यह देखने मे आया है कि यह शाकाहारी लोगो मे अधिक पाया जाता है 
क्योकि उनके आहार मे वसा एवं कार्बोहाइड्रेड्स की मात्रा अधिक होती है। यह भी 
प्रचलित है कि इसकी तीव्रता नौजवानों मे अधिक होती है बनिस्पत अधेड़ एवं अधिक 
आयु के व्यक्तियों के। 

मधुमेह के रोगी को चोट आदि लगने पर घाव भरने में क्फी समय लगता 


58 शएक्युप्रेशर-स्वस्थ प्राकृतिक जीवन पद्धति 


है। अत पूर्ण सावधानी बरतनी चाहिये। 

रोग के कारण : यह रोग मुख्यतः अपने आप मे विशिष्ट रोग न होकर 
पाचन तंत्र की गड़बड़ियों के कारण, जो कि इन्सुलिन की कमी के कारण होते हैं, 
का ही मुख्या है। इसके कारण शरीर मे रक्त ग्लूकोज की मात्रा बढ जाती है एव 
खतवाहिनियों सम्बन्धी रोग भी उत्पन हो जाते हैं। 


इंसुलिन जो कि शर्क को ग्रहण करता है एव शरीर में शर्करा की मात्रा का 
सतुलन बगाये रखता है, मे किन्‍्हीं विकारों के कारण इंसुलिन नहीं बन पाता है तो 
रक्त में शर्करा की मात्रा बढ़ने से गुर्दों का संतुलन बिगाड़ देती है। फलस्वरूप वह 
मूत्र के साथ शरीर से बाहर आने लगती है, जिसे हम मधुमेह कह सकते है। 

इसके प्रमुख कारणों में पैतृक रोग, मोटापा एवं मानसिक तनाव भी हैं। 
मधुमेह के रोगियों के लिए आहार एवं अन्य आवश्यक जानकारी: 
$ मधुमेह के रोगी के भोजन पर नियंत्रण रखना चाहिए अर्थात्‌ ऐसे पदार्थों का 

सर्वथा त्याग कर देना चाहिए जिनसे शरीर मे कार्बोह्नइड्रेट की मात्रा बढ़ती है, 

जैसे--आलू, चावल, आम, केले, चीनी, दूध, दूध की मिठाइयाँ, तली हुई 

कस्तुएँ, चाय-कॉफी, शराब इत्यादि। 

2 मधुमेह के रोगी को नियमित रूप से हल्का व्यायाम करना चाहिए एवं जहाँ 
तक हो सके सुबह-शाम पैदल घूमना चाहिए! 

3 भधुमेह के रोगियों को करेले एवं जामुन पर्याप्त मात्रा मे सेवन करने चाहिएं। 
करेले का जूस भी थोड़ा-थोड़ा कर के पीया जा सकता है। भिडी एवं धनिये 
का सेवन भी बहुत लाभकारी है। 

4 तुलसी का प्रयोग रामबाण दवा माना गया है। तुलसी के पत्तो के साथ कालीमिर्च 
एवं बराबर मात्रा मे नीम के कच्चे पत्ते कूट कर नियमित प्रयोग से इस पर 
निय्रण के में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 

5 मेथी के दाने कूटकर उसका चूर्ण बना लिया जाए एवं शाम को एक चम्मच 
पानी के स्थ एवं सुबह शौच आदि से निवृत्त होकर भी एक चम्मच लेने से 
मधुमेह में आश्चर्यजनक रूप से फायदा होता देखा गया है। 

6 मधुमेह के शेगी को जहाँ तक हो सके भरपेट भोजन एक बार में नहीं करना 
चाहिए। भोजन थोड़ा-थोड़ा करके लिया जाना चाहिए। भोजन के साथ पानी 


नहीं पीकर कुछ समय पश्चातू पानी पीना चाहिए। यह भी ध्यान रखना चाहिए 
कि सेमी धूखे पेट न स्हे 


59 


बैठते एवं सोते वक्त भी सावधानी रखने की जरूरत है। हमेशा 
तने एवं उठने की आदत डालनी चाहिए । 


धुमेह : 


र के जिन अंगों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है, वे है--गुर्दे, 
ये एवं अग्नाशया इनकी कार्यक्षणता में कमी आने से मधुमेह 
इसलिए इन से सम्बन्धित प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर ग्रेशर देने से न 

क्रर्यक्षमता मे वृद्धि होती है अपितु इस रोग को नियव्रित किया 
देखा गया है कि रोगी द्वारा नियमित रूप से आहार, व्यायाम 

प्ाथ एक्युप्रेशर चिकित्सा द्वाय प्रेशर लेने से मधुमेह रोग पूर्ण 
सकता है। 





आकृति 49 


यि प्रतिबिम्ब केनद्रो घर एक माह दबाव देने पर रोग पर पु 
कता है' 


90 शक्युग्रेशर स्वस्थ प्राकृतिक जीवन पद्धति 


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कह. के. अंधे. ऋ+ 


च्ण्ल 


छठ 


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प॥/0850/8द0 859गरा/जाह|ए 
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शिद्ं7०0 ॥इशाछा0[५ 5 ॥7#/8दएआं 

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पराएशापद्वांता पर ॥907 0220 ४8५ : 


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निद्धा855 कक्षा 078 ताछं द्वाछ था 0॥08 00#987/890 [0 9 800५8 
जा0शांद्ा।।। ज दाण्शात्र जिद्व/#88 | 0॥8 08 85 8 
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जिशीलंज्ञाएए छा 400 8 ४४0898/#980 ॥ध/07/6६। ॥80५४/५ 
दांजाए शा 8 सैेशाकरभ 0 00४70 छ0980889. 

सिाज्ीएछिं॥, पडज।855 356 ४50) एक्का 8000छ/ध8 0802॥88 
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एक्युप्रेशर-स्वस्थ प्राकृतिक जीवन पद्धति 


तातव बांगा9 काति जिच्शहड : 


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(80885 0५085. 


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007087776 ॥8 ॥655. रिध्षाक्षा| ॥ ॥ प्रशंठं। शश! 570907 
५०0 ६0 09७ ॥ छर्शश080 5३४09. 








: मांसपेशियों एवं अस्थि सम्बशी रोग 


'तैछा5$ छा उछ0ा75, 80785 १0 /७७७८॥९७) 








मासपेशियो एवं अस्थि सम्बन्धी रोगो में प्रमुख रोग है :-- 
या एवं जोड़ो का दर्द (50७) 
धवात (#॥॥॥5) 





64 शक्युेशर-स्वस्थ प्राकृतिक जीलन परूति 


गाठउट यानी जोड़ों में दर्द व सुजनका ४-- 

गाउट का गेग रक्‍त में यूरिक एसिड की मात्रा निश्चित मात्रा से अधिक होने 
पर होता है। यूरिक एसिड शरीर में बनने वाला एक व्यर्थ का पदार्थ है, जो साधारणत"- 
मूत्र के साथ शरीर से निकल जाता है, किन्तु कुछ व्यक्तियों मे यूरिक एसिड या तो 
शरीर से निकल ही नहीं पाता या अधिक बनने लगता है, जिससे इसकी मात्र रक्त 
में बढ़ जाती है। निश्चित मात्रा से अधिक हो जाने पर यह विभिन्‍न अंगों के जोड़ो 
पर क्रिस्टल या कण के रूप मे जमा होने लगता है। 


गाउट शेग के लक्षण :-- 

शुरू में गेगी के जोड़ों में खुजली होने लगती है। जोड़ो के आस-पास की 
त्वचा का रंग लाल हो जाता है और सूजन प्रतीत होती है। इसके बाद धीरे-धीरे 
असहनीय दर्द होने लगता है, साथ ही सूजन और बढ़ जाती है। इस रोग का आक्रमण 
प्रायः पंजो पर पहले होता है। इसके अतिरिक्त कुहनी, अंगुलियो, घुटनों व एड़ियो 
मे कहीं भी हो सकता है। 


गाउट का रोग किसे हो सकता है? :-- 


30 वर्ष की उप्र के उपरांत किसी को भी (खत्री या पुरुष) यह रोग पकड़ सकता 
है। महिलाओं को प्रायः रजोनिवृत्ति के पश्चात्‌ यह रोग अधिक प्रभावित करता है। 
डॉक्टरों ने देखा है कि साधारण व्यक्तियों की अपेक्षा मननशील ज्यक्ति इससे अधिक 
प्रभावित होते हैं। महिलाओं की अपेक्षा पुरुषो में यह रोग आठ गुणा अधिक होता है। 


गाउट के कारण :-- 
शराब का अत्यधिक सेवन। शराब अधिक पीने से यूरिक एसिड शरीर से बहुत 
कम मात्रा में निकल पाता है, जिससे रक्त में उसकी मात्रा बढ़ जाती है। कुछ विशेष 


खाद्य पदार्थों के सेवन से इस रोग के होने की संभावना बढ़ जाती है, जैसे--लाल 
मांस और कुछ विशेष प्रकार की मछलियों के सेवन से। 


कभी-कभी साधारण चोट अथवा ऑपरेशन से भी यह रोग उभर आता है। 
उच्च रक्‍तचाप मे दीं जाने वाली कुछ दवाइयां भी ड्स रोग को उत्पन्न करती हैं। 


उपचार :+- 
मकर का उमजार जन सिस्रेएडल एंटी एफ्लमेटरी ड्रग्स समूह की दकाओं 


जोड़ों मांसपेशियों एवं अश्यि सम्जली रोग 65 


के लिए कोलचिसिन नामक दवा का उपयोग किया जाता है। गाउट के सेगी के लिए 
आगम बेहद जरूरी है। बिस्तर पर पूर्ण विश्राम (बैड रैस्ट) के दौरान यदि दर्द बहुत 
बढ़ जाये तो दर्द वाले स्थान पर कपड़ा लपेट कर बांध दे। रोग के लक्षण यदि लुप्त 
हो जाये तब भी भविष्य मे उपचार किया जाये या नही, यह निश्चय करने के लिए 
कुछ बातो पर गौर कला आवश्यक है-- 

रोगी के रक्त का परीक्षण कराये, जिससे रक्त में यूरिक एसिड के सही स्तर 
का पता लग सके। गुर्दों में संक्रमण है या नहीं, इसका भी परीक्षण करवाये। शरीर 
के जोड़ों में पाये जाने वाले तरल पदार्थ की जांच करवायें, जिससे यूरिक एसिड के 
कणो की उपस्थिति का पता लग सके। 

रोगी का रक्तचाप और रक्त में कॉलेस्ट्राल की मात्रा की जांच करवाये जो कि 
प्रायः रोगी मे बढ़ जाती है। इससे हृदय रोग की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। रोगी का 
वज़न यदि सामान्य से अधिक है, तो धीरे-धीरे उसका वजन कम कखायें, जिससे 
हृदय रोग से भी बचा जा सके। 

रोगी के लिए एस्त्रिन का प्रयोग वर्जित करे, क्योकि एस्प्रिन शरीर में यूरिक 
एसिड की मात्रा बढ़ा देती है। गाउट रोग को पूरी तरह शेकने के लिए डॉक्टर की 
सलाह से दवाई ले। दवाई ऐसी होनी चाहिए जिससे रक्त मे यूरिक एसिड की मात्रा 
न बढ़ने पाये। 


अपनी सहायता स्व करें :-- 
गाउट रोग के रोगी के लिए कुछ महत्वपूर्ण सुझाव, जिनका पालन करके रोगी 
अपनी सहायता स्वयं कर सकता है :-- 


यदि आपका डॉक्टर वजन कम करने की सलाह देता है, तो अपना वज़न 
धीरे-धीरे कम करे। एकाएक वज़न कम करने से या भूखा रहने से रक्त में यूरिक 
एसिड की मात्रा बढ़ सकती है और गाउट रोग का दौरा पड़ सकता है। 


*» अत्यधिक शराब का सेवन न करें। 
ऐय पदार्थों का अधिकाधिक "वन करें। 
«  यूरिक एसिड बढ़ाने वाले भोज्य पदार्थों के सेवन से बचें! 


गाउट के रोगी को दिल का दौरा पड़ने की संभावना अधिक रहती है, अठः 
भोजन में चिकनाई तथा वस्ता की मात्रा कम से कम ले! 


66 एल्युप्रेशर--स्वस्थ प्राकृतिक 
गठिया एवं जोड़ों का दर्द - कारण एवं 'तराक 


ददूनो 

ब्खाः 
। पीठ कमर, क्ल्हे, | , 
/ ढार्गों, पर, एडियों हे 
._ तथा सलिप-प्रौज्लैप्स 
डिस्क ऊझे लिए प्रमुकछ 

प्रति'बम्ब फेन्द् | 





आकृति 52 
वर्तमान युग में मानव प्राकृतिक एवं नैसर्गिक क्रियाओ से विमुख 
एवं भौतिक पदार्थों के उपयोग की ओर अग्रसर हो रहा है, परिणामस् 
अप्राकृतिक जीवन-यापन के परिणामस्वरूप अनेक प्रकार की बीमारियों क 
हो गया है। 


आज कृत्रिमता ने मनुष्य को प्रलोभित एवम्‌ गुमराह कर रखा है। 
जीवन के दुष्परिणाम भी प्रकट हो रहे है। आज सर्वत्र बीमारियों रूपी नास 
को जकड़ रखा है। रोगो की सख्याओं मे और उनकी तीव्रता मे वृद्धि 
नये अस्राध्य गेगो और विभिन्न बीमारियों से छुटकारा पाने के लिए लोग 
लाखो रुपये खर्च करते हैं। इस प्रकार खर्चा करने के बाद भी उन्हे आरोश 
होता है। मनुष्य की रोग श्रतिरोधात्मक क्षमता घटती जा रही है। सेगो रे 
प्रतिरेघात्मक शवित निरन्तर कम होती जा रही है। क्योंकि मनुष्य के अ 
रहन-सहन, सैति-रिवाज एवम्‌ सोच-विचार मे विकृतियाँ आ गई हैं। मानः 
क्मुख लेकर कृत्रिम कर रहा है जिसके मार्ना 


जोडों, प्रांश्रोेशियों एवं अस्थि सम्दली रोग छा 


एवम्‌ आत्मविश्वास गड़बड़ा गया है। मानसिक तनावयुक्त यंत्रवत्‌ जीते मानव पर 
सबसे ताजा हमला टी.वी. (दूरदर्शन) का है। कामकाज से फुरसत मिलते ही टी.बी. 
(बुद्धु बाक्स) के सामने बैठकर जो समय विश्लाम, पारिवारिक स्नेह, सामाजिक संबंधों 
के निर्वाह अथवा शारीरिक स्वच्छता हेतु घूमने, कसरत करने अथवा भगवान के स्मरण 
में लगाया जाना चाहिये, उसमे निरंतर कमी आ रही है। युवा पीढ़ी इससे अत्यधिक 
प्रभावित हो रही है। आने वाले समय में इसके दुष्परिणाम आंखो की ज्योति रेडियोधर्मी 
प्रदूषण से उत्पन्न विकृतियों के रूप में सामने आयेगी। 


प्राकृतिक चिकित्सा का आरेग्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह बिना दवा 
गेगों को दूर करने की सबसे सरल व प्रभावशाली चिकित्सा पद्धति है। इसका सिद्धांत 
पूर्णतः प्राकृतिक होने के कारण आज विश्व के कई देशो मे यह लोकप्रिय हो रही 
है, क्योकि अंग्रेजी दवाइयों से किसी भी रोग पर पूर्णतया सफलता हासिल नहीं की 
जा सकती है। इसके साथ अंग्रेजी दवाइयो के दुष्परिणाम विकार उत्पन्न करते हैं। यह 
पूर्णतः सात्विक व नैसर्गिक पद्धति है। अतः इसका शरीर पर कोई दुष्प्रभाव नहीं 
पड़ता है। प्रकृति का यह नियम है कि जो पद्धति जितनी सरल व सुलभ होगी, वह 
उतनी ही प्रभावशाली होगी। 

अब जबकि व्यक्ति अपनी जीवन-शैली को प्रकृति से विमुख कर रहा है, तब 
उसे अनेक प्रकार की बीमारियों को भी झेलना पड़ रहा है। गठिया एवं जोड़ो का 
दर्द इसी प्रकार की बीमारी है। इस बीमारी से अस्त व्यक्ति को अनेक परेशानियों को 
सहन करना पड़ता है। इस बीमारी के होने के जो मुख्य कारण हैं, वे इस प्रकार समझे 
जा सकते हैं-- 
$. लंबे समय तक शरीर मे विजातीय द्रव्यों का संग्रह होना। 


2. गैस, कैल्शियम, कार्बाइड, यूरिया व अन्य जहरीली दवाइयो से पकाये गये 
फल एवं सब्जियो का सेवन करना। 


अप्राकृतिक जीवन-यापन करना व प्रकृति से दूर रहना। 

गलत समय पर भोजन करना व आहार की गरिमा को बनाये नहीं रखना। 
अत्यधिक तनाव से शरीर के हारमोन्स का गडबडा जाना। 

मांसाहार एव असतुलित भोजन का सेवन करना। 


शरीर में यूरिक एसिड एवं कैल्शियम कार्बाइड का जोडों मे जमाव होना तथा 
इनका पर्याप्त मात्र में विसर्जन नहीं होना। 


जज 00 छा + ७ (9 


68 एक्युप्रेशर-स्थव्य प्राकृतिक जीवन पद्धति 


8 पैतृक काश्णा 
9 ईश्वर को भूलना । 

प्रानव का हासेर अयवान का मंदिर है-(विवेकानन्द) : इसी आस्था के 
कारण शात्रो में कह्य ग॒य्ष है आत्या स्लो परमात्मा अर्थात्‌ शरीर मे निवास करने 
वाली महान्‌ आत्मा। अब आप इस महान आत्मा अर्थात्‌ भगवान के मंदिर मे किस 
तरह का भोग लगना चाहेगे--सतोगुणी, तमोगुणी, रजोगुणी? विवेक आपके पास है। 
कब खाना है, स्वास्थ्य के लिये खाना है या स्वाद के लिये खाना है, इसकी महत्त्वपूर्ण 
जानकारी और विवेक से अगर हमने अन ब्रह्म की गरिमा बनाये रखी तो हमारी 
आत्मा में विराजमान भगवान हमार स्वास्थ्य और विवेक संतुलित रखेगा। तभी तो 
हमारे पवित्र ग्रभ्थ गीता में स्पष्ट लिखा है कि-- 


'उक्ताह्मर विहास्पध्य, शक्त्र चेम्रस्व कर्मका/--गीता अ. 6) 
उउ़ता स्वणाव बोधस्य, गोग़ो भक्ति दुखला॥--(श्लोक-48) 


अर्थात्‌ आह्ास-विहार, खान-पान व कर्म में समानता होगी तो हम स्वस्थ वे 
निरेगी रह सकेगे और इसकी गरिमा का पालन नही किया तो हम सेगी बन जायेगे। 
प्रकृति का स्पष्ट नियम है कि मानव शरीर एक भ्रकृति-दत्त वाहन है। शुद्ध आचार-विचार, 
पवित्र जीवन, प्रभुस्भरण एवं प्रकृति के नियमों का पालन इसका ईंघन है। 

जब कोई व्यक्रित अपने शरीर के गुण, धर्म और क्षमता को बिना जाने 
आहार-विहार करता है तो उसके शरीर मे अवाछनीय द्रव्य उत्पनल होकर शरीर में 
विजातीय द्रव्यों की मात्रा धीरे-धीरे बढाते रहते है, जिससे शरीर की रोग-प्रतिरोधात्मक 
शक्ति क्षीण हो जाती है। यह विजातीय द्रव्य धीरे-धीरे जोड़ो मे एकत्रित होते रहते 
हैं, और जब इनकी मात्रा बढ़ जाती है तो हमारे शरीर के जोड़ पीड़ा करने लगते 
है। विशेषत. इनका पहला आक्रमण हमारे घुटनों पर होता है। घुटनों एवं जोड़ों के 
आसपास यूरिक एसिड का धीरे-धीरे जमाव होना आरंभ हो जाता है जिसके कारण 
चलमे-फिसे पर कठ-कट की आवाज आती है। उठने एवं बैठने मे असहनीय पीड़ा 
होती है। जब समय पर इसकी चिकित्सा नहीं की जाती है तो धीरे-धीरे यह रो 
असाध्य बन जाता है। कालान्तर में यह रोग गठिया बनकर सामने आता है। इन रोगा 
का सबसे दुखदायी पक्ष यह है कि रोग बढ़ने की स्थिति में कई अंगों में विकृतियाँ 
आ बाती हैं। अस्थिमज्जा (30।५5-/870५४) अपना कार्य कम कर देती है। 
परिणामस्वरूप हड्डियों का बढ़ना व हायपैरों की अमुलिकें का टेढ़ा हो जाना आदि 


जोडों मांसपेशियों एज अस्वि सम्बभी रोग &9 


विकृतियाँ आ जाती है जिससे कई रोगी ना तो आसानी से चल-फिर सकते है व न 
ही सुगमता से कार्य कर सकते है। संसार मे करोड़ों लोग इस भयंकर गोग से 
पीड़ित हैं। सम्पूर्ण भारत मे ही दो करोड़ छियानवे लाख लोग इस भयंकर रोग ग्ने 
पोड़ित हैं। 

मांस-पेशियों, हड्डियों व जोड़ो से ममुष्य शरीर का ढाचा बना है। मानव शरीर 
मे कुल 206 हृड्डियाँ होती है जिनका रक्तवाहिनियो द्वारा पोषण होता है। इनका पूरे 
शरीर के साथ चैतन्य सम्पर्क होता है! इंड्ियो को कैल्शियम व फास्फोरस तत्व 
मजबूती प्रदान करते हैं। शरीर को गतिशील रखने के लिए शरीर मे अनेक जोड़ 
होते है। खोपड़ी की सन्धि को छोड़कर बाकी सब अंगों की संधियां गतिशील होती 
हैं। अर्थराइटिस (॥(१/+॥३॥5) इन्ही संधि वाली हड्डियो से संबंधित रोग है। विभिन्‍न 
हड्डियो को आपस मे जोड़े रखने का कार्य लिगामेन्ट्स (£5/५६0५॥) करते है। 
इसके अतिरिक्त कुछ तरल पदार्थ इन हड्डियों की सतह को लगातार चिकना बनाये 
रखते है। इसी कारण जोड़ो की गति स्वाभाविक तथा आसान रहती है। गति करते 
समय उनमें किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होती। बहुत से जोड़ो के पास तरल पदार्थ 
की थैलियों होती है। विभिन्‍न हंड्ियों की संधि स्थानों पर गति अलग-अलग होती है। 
कुछ हड्डियाँ सभी तरफ घूम सकती है तथा कुछ की दाये, बाये व आगे-पोछे घूम 
सकती है। 

इस रोग मे झिल्ली सम्बंधित रक्तवाहिनियों की आकृति सामान्य से चपटी हो 
जाती है। इन रक्‍्तवाहिनियों को रक्त की सप्लाई पहले से कुछ कम हो जाती है। 
मानव द्वारा बनाये गये यंत्रो को गतिशील रखने के लिए जिस प्रकार केरोसिन, पैट्रोल 
तथा बिजली की आवश्यकता छोती है, ठीक उसी प्रकार भगवान द्वारा निर्मित मानव 
शरीर को खून की आवश्यकता होती है। शरीर के हर कल-पुर्ज को सुव्यवस्थित 
अन्तराल पर समुचित मात्रा में खून मिलता रहना इसकी व्यवस्था है। इस व्यवस्था मे 
ऊपर बताये गये द्रव्य बाधा पैदा करते है। जब आवश्यक खून सम्पूर्ण शरीर के अगो 
तक नहीं पहुंचता है तो यह अवरोध उत्पन्न करते हैं। परिणामस्वरूप शरीर मे शिथिलता 
आ जाती है और धीरे-धीरे व्यव्प्ति की कार्य-क्षमता घटती रहती है। इस कारण रक्त 
मे मौजूद प्रोटीन तथा कुछ तरल पदर्णथ र्तवाहिनियों से बहकर जोड़ो के इद-गिर्द 
जमा हो जाते है जिससे जोड़ो मे सूजन आ जाती है। ये रक्तवाहिनियों जब जोड़ो से 
टकराती है तो असहनीय पीड़ा होती है। जोड़ो के इर्द-मिर्द अवांछित रासायनिक 
परिवर्तन शुरू हो जाता है। याद जोडो वाले स्थान पर चोट लगी हो या तन्तुओ मे 


70 एक्युज्रेहार स्वस्थ प्राकृतिक स्रीजन पर््धात 


अधिक विकार ना हो तो सूजन धीरे-धीरे कम हो जाती है क्योंकि रक्तवाहिनियाँ अपने 
स्वाभाविक रूप मे आ जाती है। जो तरल पदार्थ आगे-पीछे बिखरा होता है, वह पुन 
रक्त संचार में आ जाता है। अगर सूजन काफी अधिक हो और उसके मूल कारण 
यथापूर्वक बने रहे तो सन्धि रोग पुराना बन जाता है। जिन लोगो के शरीर मे एसिड 
तथा कैल्शियम तत्व अधिक होते है उनमें भी यह गेग होता है, क्योंकि उनकी शारीरिक 
शक्ति कम होती है! 


अर्थराइटिस के प्रकार-- 


... रूमेटाइड अर्थराइटिस (साश्णात्रांगंत 885) 


इस रोग के कारण मानव की भावात्मक अशान्ति तथा लम्बी चिन्ता आदि से 
आत्मबल गिरता जाता है। मूलतः झिल्ली की सूजन, रक्तवाहिनियो में विकृति तथा 
जोड़ो के आसपास क्रिस्टल्स का जमाव हो जाना इसका मूल कारण है। छोटे-छोटे 
जीवाणु भी इसका मूल कारण है। यह जीवाणु आरंभ से ही शरीर में होते हैं, लेकिन 
जब हमारी आन्तरिक शक्ति क्षीण हो जाती है, तब यह जीवाणु जोड़ों पर अचानक 
आक्रमण करते हैं। यह रेग जोडों की सूजन तथा विकृति तक ही सीमित नहीं है। 
इससे मासपेशियाँ, स्नायु तथा तन्तु भी प्रभावित होने शुरू हो जाते है। अगर इस 
गेग का ठीक समय पर इलाज नहीं कराया जाये तो यह हृदय तथा फेफड़ों को भी 
प्रभावित करता हैं। कई गेगियो को ऐसा आभास होता है जैसे शरीर मे विशेषकर 
अंगुलियो, '.डुटनो, पिंडलियों व टखनो के आस-पास सूइयाँ चुभ रही है। कई लोगो 
के नाखून कमजोर व भुरभुरे हो जाते हैं। रक्तवाहनियो मे सूजन के कारण प्रायः टांगो 
व पीठ पर गहरे रंग के धब्बे व फोड़े हो जाते है। 


2. अस्थि संधिशोध (ओस्टीओर्थराईटिस) (05॥8097/॥॥5) 


यह रोग जोड़ों का चिरकालिक शारीरिक क्षीणता का रोग है। कई वर्षो तक 
यह व्याधियाँ बनी रहती हैं तो वह रोग धीरे-धीरे असाध्य बन जात है। इस रोग मे 
एक या एक से अधिक जोड़ो मे पीड़ा, जकड़न तथा कड़कड़ाहट की आवाज सुनाई 
देती है। प्रायः चलने-फिसे या शारीरिक श्रम के पश्चात्‌ जोड़ो मे पीड़ा और अधिक 
बढ़ जाती है। ग्रात उठते समय जोड़ों मे काफी जकड़न प्रतीत होती है, लेकिन 
धीरे-धीरे रोगी गति करता है, तो यह पीडा कम होती रहती है। इस रोग का सबसे 
दुखद पहलू यह है कि कभी-कभी घुटनो के आस-पास व कभी पूरे पाव में सूजन 
आ जाती है। व्शेषत इस शेग में दे अंग अधिक अभावित होते हैं जिन पर यूरै 


जोड़ों, मांसपेशियों एवं अस्थि सम्ब्ी रोग ह्। 


शरीर का बोझ पड़ता है, अर्थात्‌ रीढ़ की हड्डी, घुटने व कूल्हे आदि। समस्त जोड़ 
जहाँ से रोगी हरकत करता है, वे धीरे-धीरे सख्त होने लगते है। जब दोनो सिरे मिलते 
है तो असहनीय पीड़ा होती है। माता से यह रोग लड़की तक पहुंच जाता है, लेकिन 
लड़का प्रभावित नहीं होता। यह रोग केवल जोडो का ही है! रूमेटाइड अर्थराइटिस 
के शेगी को ना तो ज्वर आता है और ना ही भूख कम लगती है। 

अतः अगर रोगी को इस रोग से मुक्ति पानी है तो प्रकृति के इस नियम को 
समझना होगा। चूकि मानव शरीर 7 रंगो का पिण्ड है, सूर्य की रश्मियो में भी सातो 
ही रंग हैं और हमारे शरीर के रक्ताणु एवं श्वेताणु का सूर्य-रश्मियो से सीधा सम्बन्ध 
है। इसलिये प्रकृति ने सात रंग के फल प्रदान किये हैं। अगर इन सातों रंगो का 
सामजस्य स्वास्थ्य के लिये तरीके से उपयोग लिया जाये तो इस रोग से मुक्ति पाई 
जा मकती है। 


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४५ ४६ 


70 एक्युप्रेशर स्वस्थ प्राकृतिक जीलन पद्धति 


अधिक विकार ना हो तो सूजन धीरे-धीरे कम हो जाती है क्योंकि रक्तवाहिनियाँ अपने 
स्वाभाविक रूप मे आ जाती हैं। जो तरल पदार्थ आगे-पीछे बिखरा होता है, वह पुन 
रक्त सचार में आ जाता है। अगर सूजन काफी अधिक हों और उसके मूल कारण 
व्ापूर्वक बने रहें तो सन्धि रोग पुराना बन जाता है। जिन लोगो के शरीर मे एसिड 
तथा कैल्शियम तत्व अधिक होते हैं उनमें भी यह रोग होता है, क्योंकि उनकी शारीरिक 
शक्ति कम होती है। 


अर्थराइटिस के प्रकार-- 
.. रूमेटाइड अर्थशइटिस (प]8एगत्राणंए 05) 


इस रोग के कारण मानव की भावात्मक अशान्ति तथा लम्बी चिन्ता आदि से 
आत्मबल गिरता जाता है। मूलत झिल्ली की सृजन, रक्तवाहिनियो में विकृति तथा 
जोड़ो के आसपास क्रिस्टल्स का जमाव हो जार इसका मूल कारण है। छोटे-छोटे 
जीवाणु भी इसका मूल कारण हैं। यह जीवाणु आरंभ से ही शरीर मे होते है, लेकिन 
जब हमारी आन्तरिक शक्ति क्षीण हो जाती है, दब यह जीवाणु जोड़ो पर अचानक 
आक्रमण करते हैं। यह गेम जोड़ों की सूजन तथा विकृति तक ही सीमित नहीं है। 
इससे मासपेशियाँ, स्नायु तथा तन्तु भी प्रभावित होने शुरू हो जाते है। अगर इस 
शेग का ठीक समय पर इलाज पहीं कराया जाये तो यह हृदय तथा फेफड़ो को भी 
प्रभावित करता हैं! कई रोगियों को ऐसा आभास होता है जैसे शरीर मे विशेषकर 
अंगुलियो, घुटनो, पिंडलियो व टखनो के आस-पास सूइयाँ चुभ रही है। कई लोगो 
के नाखून कमजोर व भुर॑ञुरे हो जाते हैं। रक्तवाहनियों में सूजन के कारण प्रायः टागो 
व पीठ पर गहरे रंग के धब्बे व फोडे हो जाते है। 


2. अस्थि संधिशोध (ओस्टीओर्थराईटिस) (05780&/॥॥785) 


यह रोग जोड़ों का चिरकालिक शारीरिक क्षीणता का रोग है! कई वर्षों तक 
यह व्याधियाँ बनी रहती हैं तो यह रोग धीरे-धीरे असाध्य बन जाता है। इस रोग मे 
एक या एक से अधिक जोड़ो मे पीडा, जकड़न तथा कड़कड़ाहट की आवाज सुनाई 
देती है। प्रायः चलने-फिरने या शारीरिक श्रम के पश्चात्‌ जोड़ो मे पीड़ा और अधिक 
बढ जाती है! प्रातः उठते समय जोड़ो मे काफी जकड़न प्रतीत छोती है, लेकिन 
धीरे-धीरे रोगी गति करता है, तो यह पीड़ा कम होती रहती है। इस रोग का सबसे 
दुखद पहलू यह है कि कभी-कभी घुटनों के आस-पास व कभी पूरे पाव में सूजन 
आ जती है। विशेवत इस रोग मे वे अंग अधिक प्रभावित होते हैं जिन पर पूरे 


जोड़ों, मांसपेशियों एवं अस्थि सम्बन्धी रोग 7 


शरीर का बोझ पड़ता है, अर्थात्‌ रीढ़ की हड्डी, घुटने व कूल्हे आदि। समस्त जोड़ 
जहाँ से रोगी हरकत करता है, थे धीरे-धीरे सख्त होने लगते हैं। जब दोनो सिरे मिलते 
है तो असहनीय पीड़ा होती है। माता से यह रोग लड़की तक पहुंच जाता है, लेकिन 
लड़का प्रभावित नही होता। यह गेग केवल जोड़ो का ही है। रूमेटाइड अर्थराइटिस 
के रोगी को ना तो ज्वर आता है और ना ही भूख कम लगती है। 

अत" अगर रेगी को इस रोग से मुक्ति पानी है तो ग्रकृति के इस नियम को 
समझना होगा। चूंकि मानव शरीर 7 रंगो का पिण्ड है, सूर्य की रश्मियो मे भी सातो 
ही रंग है और हमारे शरीर के रक्ताणु एवं श्वेताणु का सूर्य-रश्मियो से सीधा सम्बन्ध 
है। इसलिये प्रकृति ने सात रंग के फल प्रदान किये है। अगर इन सातों रंगो का 
सामंजस्य स्वास्थ्य के लिये तरीके से उपयोग लिया जाये तो इस रोग से मुक्ति पाई 
जा सकती है। 


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72 एक््युप्रेशर--स्वस्थ प्क्‍रकृतिक जीवन पद्धति 


गठिया एवं जोड़ों के दर्द का घरेलू चिकित्सा द्वारा भिराकरणं-- 


सर्वप्रथम गठिया से पीड़ित व्यक्ति को आमाशय शुद्धि के लिए निम्न चूर्ण 
का तीन दिन तक सेवन करना होगा-- 


4 छोटी हरड 50 श्रम 
2, आंवला 50 ग्राम 
3. दानामेथी 50 ग्राम 
4... अजवाइन 50 ग्राम 
5... काला नमक 20 ग्राम 


इन सभी पदार्थों को कूट-छान कर चूर्ण बना ले तथा सोते समय दो चम्मच 
गरम पानी के साथ तीन दिन तक लगातार सेवन करे। इससे आपके आमाशय का 
शुद्धिकरण होगा। 


आहार चिकित्सा द्वारा गठिया एवं जोड़ों के दर्द का निवारण 








बार प्रात कालीन भोजन दोपहर का नाश्ता सायकालीन भोजन अन्य निर्देश 
सोमदार करेले की सब्जी, मिश्रित फल मौसम्बी, पपीता पालक, बुआ या यीबू व दही के 
अदरक चंदलिया अलोदी सभी 
खटाइया वर्जित हैं। 
मंगलवार केर, सागरी शव आतलूबुखारा, सेब, तरबूज, आवले की कढ़ी नीबू. दाल में 
कुमटिया, अदरक अनार, अगूर, चुकन्दर, डाजकर सेवन करे, 
गाजर, लीची शिकंजी महीं। 
बुधवार दानामेथी या हसे कब्चे नारियल का पानी मिश्रित दाल दही सब्जी में 
मेथी, अदरक डालकर सेवन करे, 
कच्चा नहीं 
गुरूकर ग्वारफली, आंवले की सब्जी सभी सब्जियों में 
अदरक बनाकर सेवन करे, धीरे-धीरे हल्दी की 
कच्चा नहीं। मात्रा बढ़ाते जावे। 
शुक्रवार. आंवला, (कोई भी दो फल मूत्ी प्तेदार या व मियी की मात्रा 
अदरक रुचि अनुसार) चयदलिया घटाते जावे क्‍योंकि 
हल्दी शरीर में 
प्रधिरोधात्मक शक्ति 


बढ़ाती है। 


€.. अन्क ने अन+ अभधणण छान 


जा चमपसान 2 आने... न्‍पाशकक शेफ्ण अएसमनांद झा 


ज्क बे 


अक्७ # 


जोड़ों, मासपेशियों एव अस्थि सम्दयी रोग 73 


शपिवार ककेड्ा या सरसों या पालक आबले की कड़ी 
करेला, अदरक एवं चावल-मभूग की 
खिचड़ी 


रविवार खारपाठा, अधम्क दो भौसम्बी का स्ण वे 700. रविवार को शाम 
था शोर की प्रपी झूम नारियल के पानी को को चफ़ातो भ ले 
(जैगलो में दर्श ऋष॒ गरि-धीरे सिप करते हुए सेवन 
में आसानी से करे 
सुलभ होती है) 





सोमवार -- हर माह के अन्तिम सोमवार को नास्यिल का पानी (मौसम्बी का 
रस), पपीता एस मतीरे का सेवन करे। किसी भी तरह का ठोस आहार ने ले। 


आवश्यक निर्देश : 


() प्रात: 7.00 बजे तुलसी के ॥ पत्ते बारीक पीसकर दो चम्मच शहद मे 
एक माह लगातार सेवन करे। पीने का पानी शुद्ध होगा आवश्यक है या फिर तुलसों 
जल का सेवन करे। 


(2) ग्रातः सूर्योदय के समय 5 मिनट तक धुष का सेवन करें | 


अुष्ओं' अं 


5 
डक 4५9७-०८ ८३७ कल्क+ *५«- ८ 





स्वास्थ्य का रक्षक नाभिचक्र 


(90[67 ७5४७७) 





एक्युप्रेशर चिकित्सा पद्धति में नाभिचक्र का स्थान महत्त्वपूर्ण 
अत्यधिक वजन उठाने अथवा अत्यधिक गैस उत्पन होने पर ऊपर या 
जाता है। नाभिचक्र के ठीक नहीं रहने पर पूर्ण स्वस्थ रहना संभव नहीं है 
में डायफ्राम के नीचे अवस्थित सभी अंगों का निर्य्रण करता है। 





सवा कद कर म्ुक नर्तलक फ्षठ 


विवस्ण 
आधिचवक्त किठाने का तरीका !-- 


रोमी को पीठ के बल सीधा लिट देवे। तत्यश्चात्‌ दाहिने हाथ की णंचो अंगुलियो 
बगे मिलाकर नाभिचक्र पर धीरे-धीरे दबाव डालें। जब धड़कन अथवा स्पन्दन शुरू हे 
जाए उस समय यह क्रिया बन्द कर दें। इसके अलावा खाली गिलास को नाभिचक्र 
घर पा रख कर हल्का दबाव डालें इससे भी नाभिचक्र केद्ध में पुनः स्थित हो 
जाता है। 

अतः प्रत्येक बार चिकित्सा या जोंच आरंभ करते समय नाभिचक्र की जाँच 
निम्न में किसी एक विधि से करनी चाहिए। नाभिचक्र अपने वास्तविक स्थान पर है 
या नही, यह देखने के लिए प्रात-काल शौबव क्रिया के बाद पीठ के बल सीधा लेट 
जाना चाहिए और हाथ बगल में शरीर के साथ सीधे रखें तथा दूसरे व्यक्ति को एक 
घागा लेकर नाभि से छाती की एक तरफ की चुचुक (निपल) तक नापें, नाभि पर 
एक हाथ रखें धागा दूसरी तरफ की चुचुक (निपल) तक ले जाएं, अगर दोनो तरफ 
का नाप समान है तो नाभिचक्र अप स्थान पर है अन्यथा नही। अगर नाभिचक्र ठीक 
है तो नाभि के ऊपर अंगुलियो से दबाव देने से जोर-जोर से आंत धड़कने की गति 
प्रतीत होती है, अन्यथा धड़कन (॥700078) नाभि के केद्ध में नहीं पाया जाता जिसे 
'/७४०४४०' का हटना (89270 ए ४७१४०४४४) कहां जाता है। (2) दोनों 
हथेलियों को इकड्ठी करे और रेखा संख्या ,2,3,4 को मिलायें। यदि नाभिचक्र ठीक 
होगा वो ये रेखाएँ परस्पर मिली होगी अन्यथा रेखाओं का मिलान नहीं होगा! 

(3) सुबह खाली पेट पीठ के बल दोनों टंगें पसारकर लेट जाएं जैसा कि 
चित्र में दर्शाया गया है। अगर धरन पड़ी हुई छोगी तो किसी एक पैर का अंगूठा 
दूसरे से कुछ ऊंचा होगा। 

नाभियक्र के ऊपर की ओर सरकने पर कब्जियत होती है और नीचे की ओर 
खिसकने पर वायु के दबाव के कारण दस्त होती है। दवाओ से यह ठीक नहीं किया 
जा सकता है। धरन ठीक करने के लिए सबसे आसान तरीका है कि जो अंगूठा नीचे 
है उसको हाथ के साथ ऊपर की ओर खींचकर दूसरे के बराबर करे। दो-तीन क्र 
ऊपर की ओर नीचे वाला अंगूठा करने पर धरन अपने स्थान पर आ जाएगी। 

नाभिचक्र ठीक करने के लिए नाभि के चारों तरफ से दबाव देकर केद्ध में 
अंगुली से दबाव देते हुए व्यवित को पैर के बल बैठाया जा सकता है या प्रत्येक 
शेगी को रोग उपचार करते समय चित्र में दिखाए गए त़लुवे एवं हथेली के प्रतिबिग्ब 
केंद्र पर दबाव हल्का पर गहरा देना चाहिए। 

कड़ा 





अन्तःख्रावी ग्रंथियां 


(8 घा400०7॥78 छांक्षा05) 


मानव शरीर में अन्थियो का महत्त्वपूर्ण योगदान है। ग्रंथियां कारखाने के कारीगरो 
के उस समूह के समान है जिनके बिना कार्य पूर्ण रूप से ठप्प हो जाता है। 


ग्रन्थियों का निर्माण एवं इसकी प्रक्रिया भी अपने आप मे विलक्षण है। इनका 
निर्माण बहुत छोटी एवं सूक्ष्म कोशिकाओं द्वार होता। अन्तःखावी ग्रधियां सीधे है ही 
अपने बनाये गये रस को रक्त द्वारा शरीर के विभिन्न आंतरिक अंगो तक पहुचाती 
है जबकि अन्य अन्यिया नलिकाओ के माध्यम से अपने रस को शरीर के विभिन्‍न 
भागो में पहुचाती है। 

अन्त खरावी अन्यियो का मुख्य कार्य अपने द्वार निर्मित्त रस से शरीर की वृद्धि 
करना, पोषण करना एवं मांसपेशियों को संतुलित बनाये रखना है। साथ ही अन्य 
ग्रंथियो को नियंत्रित कर शरीर की विभिन्‍न क्रियाओं में महत्त्वपूर्ण योगदान देना है। 

अन्त-स्रावी अन्यियो मे खराबी अथवा इनकी निष्क्ियता से शरीर मे आश्चर्यजनक 
परिवर्तन आ जाते हैं जो कि आयुर्विज्ञान पद्धति द्वारा सिद्ध हो चुके है। इनकी 
कार्यप्रणाली का आपस में विचित्र तालमेल है एवं ये एक दूसरों ग्रन्थि की पूरक कही 
जा सकती हैं। 

हमारे शरीर मे मुख्य अन्त ख्रावी अंधियों की स्थिति एवं कार्यप्रणाली इस प्रकार 
4.. पिटसूररी अंधि 
2. फीनियल अधि 


अन्तःझ्वाथी प्रथ्रिया पा 


पैरा धायराइड ग्रंथि 
थायराइड ग्रथि 
एड्ेनल ग्रथि 

डिम्ब गंधिया 
पावनतंत्र की यंथिया 
धायमस ग्रंथि 


लक... 50. “| 00 0 + (० 


यिट्यूटरी ग्रंथि--॥8 शाफा7ए 0 8३97 दाद्याएं 


यह ग्रंथि मस्तिष्क के ठीक नीचे की तरफ होती है जो सम्पूर्ण शरीर में जाती 
हैं। इसका आकार लगभग मटर के दाने के बराबर होता है। इसका शरीर के संचालन 
मे महत्वपूर्ण योगदान है। 


“एीच्गंपा ०, 8फएक9” के शब्दों में-॥08 फध्ज ॥885 08७॥ 
झाा80, ॥8 वक्ष तुक्ाएं जज ॥68 000५, 0 ॥8940प५क्ांश$ | 
[8 57060ए॥76 9५/रशश्षा, 0 8५४ ॥8 (88087 ० [8 5६१000॥8 
(0/2॥885[8. 


यह ग्रन्थि मुख्यतः तीन भागो में विकेद्धित होती है और कई हारमोन्स उत्पन्न 
करती है जिससे दूसरी प्रमुख गंधिया प्रभावित होती है। इसका शरीर की वृद्धि मे 
प्रमुख योगदान है तथा यह हड्डियों के विकास पर नियंत्रण रखती है। बचपन में इस 
अन्य द्वार अधिक हारमोन्स बनाने के कारण मनुष्य के शारीरिक विकास मे एव 
आकार में असाधारण वृद्धि हो जाती है। इसके विपरीत यदि इस ग्रन्धि द्वार हास्मोस्स 
अणाली बचपन में दोषयुक्त हो जाती है तो शारीरिक विकास एवं वृद्धि मे रुकातर 
आ जाती है, फलस्वरूप मनुष्य कद मे बौना अथवा ठिगना रह जाता है। इससे यह 
अन्दाज लगाया जा सकता है कि इस ग्रन्थि की शरीर मे कितनी उपयोगिता है। 

इसके अतिरिक्त यह ग्रन्थि पाचन क्रिया एवं चर्बी पर भी प्रभाव डालती है। 
इसकी दोषपूर्ण क्रिया से 'डाईबिटीज' गेंग होने की सम्भावना भी रहती है। यह रक्तचाप 
को नियंत्रित भी करतों है। 


इसकी दोषपूर्ण कार्यप्रणाली के कारण निम्न रोग होने की सम्भावना रहती है, 
जैसे--मधघुमेह कमजोरी बालों का झड़ना अधिक प्यास लगना इत्यादि 


एक्युप्रेशर स्वस्थ प्राकृतिक जीवन पद्धति 


शत परि00 
378 पी, े (७ *प05 


का 





आकृति 55 
एक्युप्रेशर द्वारा इसके निम्न प्रतिबिम्ब केद्धों पर प्रेशर दिया जाना चाहिए 
से इसकी कार्यप्रणाली सुचारू रूप से संचालित हो सके-- 


4. हाथ एवं पैर के मँगूठों के अग्रभाम--बाएं से दाएं 


कार्यगति नियंत्रित करने के लिए इसके विपरीत ग्रेशर दिया जाना चाहिए यानि 
से बाएं । 


पैरा-थाइरायड ग्रन्थ (?/धा।ए0ं0 8]070) 


ये छोटी-छोटी अंधियां संख्या में चार होती हैं जो थाइगइड ग्रंथि के पीछे की 

: होती हैं। इनका कार्य शरीर मे कैल्शियम एवं फासफोर्स को बनाए रखना है 

कारण शारीरिक संतुलन बना रहता है। इनका स्नायु संस्थान एवं मांसपेशियों को 

त्रेत करने में महत्वपूर्ण योगदान है। इनका सही प्रकार से शरीर में कार्य करना 

री है अन्यथा रक्‍ठ में कैल्शियम की मात्रा बढ़ जाने से गुर्दों मे पथरी (5॥0॥85) 
का खत़्य पैद हो वाद है 


उस" काया ऋ | 


3. थायराइड ग्रस्थि (ए#छंत छह 


यह अन्यि गले के बीचों-बीच दो शाखाओ में विभवत होती है। यह अन्य शरीर 
के विकास में अपना महत््वूपर्ण योगदान देती हैं। इसका दांतों के विकास एंवं 
मानसिक विकास में भी महत्त्वपूर्ण योगदान है। यह ऑक्सीजन का शरीर में संतुलन 
बनाए रखती है तथा कार्बन-डाई-आवसाइड के निष्कासन का मार्ग प्रशस्त करती है। 
इस ग्न्थि का संतुलित रहना भी अति आवश्यक है अन्यथा वजन बढ़ना, शरीर मे 
सृजन आ जाना, शिथिलता, दिल का तेजी से घड़कना एवं त्वचा मे रूखापन आ 
जाता है। 


एक्युप्रेशर- प्रतिविम्ब केझ--उपरोक्त अनुसार-- 


प्रेशर देने की विश्वि--इस ग्रन्धि के अल्पस्राव की दशा में प्रेशर बाएं से दाएं 
दिया जाना चाहिए एवं अतिस्नाव की दशा में इसके विपरीत जरेशर दिखा जाना चाहिए। 
इसके अतिरिक्त भी प्रमुख अ्न्थियों के प्रतिबिम्ब केन्रों के ऊपर भी प्रेशर दिया जा 
सकता है। 


4... एड्रेनल ग्र्शि (80/0॥8/5) 


ये अन्यियां गुर्दों के ऊपर जोड़ों के रूप में एक-एक ग्रन्थि के हिसाब से 
अवस्थित होती हैं। इनका आकार एक इंच चौड़ा एवं डेढ़ इंच मोटा होता है। ये 
प्रत्येक गुर्दे के दाहिनी ओर स्थित होती है। ये ग्रन्थियां रक्त के दबाव एवं मांसपेशियों 
पर प्रभाव डालती हैं। यदि इनका कार्य संतुलित नहीं हो तो शरीर में डरपोकपन, 
पित्त, गैस एवं मोटापे सम्बन्धी व्याधियाँ पैदा हो जाती हैं। 


इन भन्थियों का जनन-संस्थानों (5७८ 56709) पर महत्वपूर्ण योगदान है। 

इस गन्थि के हार्मोन्स को तीन समूहो में विभकत किया गया है-- 

4..._]#8 00998 0जशा अप्रश्ञा 00॥50१9-68 007[00प098 शशि 
॥60ए9/8 आातदुद्का गशंद्राएणीशा क्षातर 00% वरीक्षाताद्षोणा, 

2. &09ज"0७ए७ ॥छतप्वाह्चागए ॥0॥7085 प्रीज्षां एज॥एण 5000॥ ध्वाए 
008590णा क्षाएं धरद्वांश 08908, भाए॑ 


38. 8७६ #॥णागएण॥85 ॥#व ४ए)[/शाशा ॥60658 580एछ80 0५ ॥8 
(00०805 


80 शुक्युप्रेशर-स्वस्थ प्राकृतिक जीवन पद्धति 


के कारण इस अन्थि का स्राव बढ़ जाता हैः फलस्वरूप निम्न घातक रोगो का खतरा 

उत्पन हो जाता है-- 

। शी त76त 46 ॥56 ॥ 0000 [॥8$50७8, 

2. 5श/260 धा[० 785./80॥ ॥886, 

3... शाधगापा्राणा एँ ॥6 58|छ्रा 05089 708 #0985॥00 8 
0870809५ 0 ४४0; 

4... #0७8888#॥8 9858 76/00#जशिा 88 दवा १9/988 07 00909॥ 
0जञा5इथा[2॥0॥, क्षाएं 

5... ॥089856 0000 5008 79 शागप।ध्या। व #8 (शिक्षा [0 ॥0808956 
0॥00058 #0॥] प्र४०00७॥. 
इस प्रकार एड्रेनल ग्रन्थि का शरीर मे संतुलित रहना अत्यधिक जरूरी है। 

हृदयरोग एवं अस्थमा जैसे शेगों मे भी इस ग्रन्थि का महत्वपूर्ण योगदान है। 


5. डिम्ब ग्रश्ियां (0ए/|85) या #ि७770पप्रणांप& 59छांशाा 


जीवन अपने आप में एक पवित्र कार्य है। ईश्वर ने प्रत्येक प्राणी एवं जीव 
जन्तु को धरती पर जीवन प्रदान कर अमूल्य उपहार दिया है। यह भी सत्य है कि 
प्रत्येक के जीवन-संघर्ष मे उतार-चढ़ावो का अम्बार लगा रहता है। 


ये ग्रन्थियां मनुष्य मे स्नी अथवा पुरुष दोनो मे प्रजनन अंगों का विकास करती 
हैं एवं सैक्स हारमोन्स (39५ 0७॥७) उत्पन करती हैं जिन्हे सुपरमेटोजोआ और 
ओवा कहते है। 


6. पाचनतंत्र की गंधियां (!॥॥8 ?४॥072७85) 


जिस प्रकार मशीनों को चलाने के लिए ईंधन की आवश्यकता होती है उसी 
प्रकार शरीर रूपी मशीन की समस्त क्रियाओ के संचालन के लिए भोजन की 
आवश्यकता होती है। भोजन शरीर में पहुच कर पाचन क्रिया के बाद जीव द्रव्य के 
निर्माण मे भाग लेता है और आक्सीकृत होकर ऊर्जा का उत्पादन करता है। यही 
ऊर्जा शरीर में होने वाली जैविक क्रियाओ में प्रयोग होती रहती है। भोजन आमतौर 
पर ठोस अवस्था में होता है। इस अविलेय भोजन को पाचक रसों की संहायता से 
रासायनिक अभिक्रियाओं द्वाय घुललशील और अवशोषण योग्य बनाने की व्यवस्था 
होती है। इस कार्य में भौतिक और रासायनिक द्येजों ही क्रियाएं होती हैं! वह स्थान 
जहा पर पाचस कर्म्य होता है उसे भोजन नली कहते हैं तथा कह अग जहा से 


अन्त खायो अधियां 8] 


रासायनिक द्रव्य निकलकर आते है और पाचन क्रिया मे सहायता देते है, उसे पाचन 
अधि कहते हैं। इस प्रकार भोजन नली और पाचन अंधियां मिलकर पाचनतंत्र का निर्माण 
करती है। 


झोजन कैसे पचता है? 


भोजन की पाचन क्रिया मुंह से ही आरम्भ हो जाती है। भोजन को चबाते समय 
मुह मे स्थित लार यंधियां (58॥५9/५ 5॥9709) भोजन क्रिया करती है और कार्बोहाइड्रेट 
को शक्कर मे बदल देती है। इसके बाद यह ग्रन्थि मे जाता है जहां एक सैकंड से 
भी कम समय रुक कर ग्रसिका मे पहुंचता है और 0 सैकंड बाद भोजन आमाशय 
मे पहुच जाता है। आमाशय मशक के आकार का मांसपेशियों का बना एक यैला 
होता है। यहां इसमे हाइड्रोक्लोरिक अम्ल जैसे पाचक रस मिल जाते है जो भोजन 
को अर्द्ध तरल में बदल देते हैं। तीन चार घंटे भोजन आमाशय में रहता है, जहा 
अनेक क्रियाओ के बाद यह ग्रहणी (2900७॥0॥) में पहुचता है। यह छोटी आत 
का 25-30 सेमी. का पहला भाग होता है। यहा भोजन के मिश्रण मे एंजाइम और 
अग्नाशय (६0७४७), पित्ताशय (5%॥ 8/8009) और आत की दीवारों मे स्थित 
ग्रथियो के पाचक रस मिलते है। कुडली के आकार की मांसपेशी की यह नली लगभग 
6 5 मीटर लम्बी होती है! इसके तीन भाग होते है--अहणी, जैजुनन और इलियमा 
लमभग 5 घंटे तक यहां पाचन क्रिया जारी रहती है और भोजन चीनी, एमिनो अम्ले 
और वसा में टूट जाता है। यही पर अंगुली जैसी संरचनाओ द्वारा पोषक तत्व रक्त 
तक पहुंच जाते है। रक्त परिसंचरण द्वारा ये पोषक तत्व समस्त शरीर में पहुचते है। 


7. थायमस अंधि (!॥ज7७ए5 0 शाएँ) 


यह ग्रंथि गर्दन और हृदय के बीच स्थित होती है। यह ग्रंथि मुख्यतः जन्म से 
दो वर्ष के मध्य विकसित होती है और किशोरावस्था तक धीरे-धीरे लुप्त हो जाती 
है। इसका मुख्य कार्य बच्चो के शारीरिक विकास में सहायक होना है एवं जननेन्द्रियो 
के विकास पर प्रभाव डालना है। 


8... पीनियल ग्रश्थि (शा88 5क्षाप) 


यह अ्थि मस्तिष्क के भीतर अर्द्ध गोलार्द्ध के पीछे होती है। यह ग्रंथि मनुष्य 
की तरुणावस्था से सम्बन्धित है। यह ग्रंथि शरीर के अन्दर खनिजों के संतुलन को 
बनाए रखती है। इसके असंतुलित होने से स्वभाव मे गड़बड़ी पैदा होने लगती है। 


अचाक 





श्वसन-तंत्र (#6 छ&्फाश्श॑ंणए 59ल्‍शा॥) 


शरीर को आक्सीजन की निरंतर आवश्यकता रहती है। सामान्यत. व्यक्ति 
भोजन के बिना काफी लम्बे समय तक जी सकता है, पानी के बिना कुछ दिनो तक 
टिक सकता है, पर आक्सीजन के बिना संभवत. चंद मिनटों से अधिक नहीं जी 
सकता आक्सीजन की निरंतर आपूर्ति के साथ-साथ शरीरस्थ कोशिकाओ के कार्यों 
के परिणाम-स्वरूप कार्बन-डाइ-आक्साइड के रूप में उत्पन्न अपशेष के निष्कासन की 
भी आवश्यकता रहती है। इन दोनों आवश्यकताओ की पूर्ति श्वसन-तंत्र के द्वारा होती 
है, जिसकी चर्चा हम प्रस्तुत प्रकरण में करेगे। 





५ -अन-संत 83 


हुवसन-तंत्र के अवयब 

हमारा श्वसन-तंत्र मुख्यतः श्वासोच्छवास आने-जाने के पथ एवं उसको वहन 
करे वाली नलिकाओं से बनता है। इनमें नाक, श्वसनी एवं श्वसनिका क्रमशः एक 
खृंखला में उस प्रकार से जुड़े हैं जिससे बाहर से हवा भीतर फेफड़ों तक पहुंचती है। 
श्वसनिकाएँ छोटी-छोटी शाख-प्रशाखाओं के रूप में प्रस्कृटित होती हैं एवं फुफ्फुस 
के भीतर एक उलटे वृक्ष की तरह लगती हैं। श्वसनिकाएं बहुत छोटे-छोटे बैलीनुमा 
अ्रकोष्ठो में समाप्त होती हैं, जिन्हें 'श्वासप्रकोष्ठ' कहा जाता है। ये श्वास-अक्रोष्ठ 
दिखने में अंगूर के गुच्छे की तरह लगते हैं। प्रत्येक प्रकोष्ठ के चागो ओर कोशिकाओं 
की एक विस्तृत जाली-सी फैली हुई रहती है। प्रकोष्ठ और कोशिकाओं की दीवारो 
को पार कर वायु (प्राणवायु एवं कार्बन-डाई-आक्साइड) इधर से उधर और उधर से 
इधर विस्तृत होती रहती है। वायुओ के आदान-अदान का यथार्थ स्थान यही है। 
श्वसनिकाएं और श्वास-प्रकोष्ठो से बनता है फुफ्फुस! फुफ्फुस स्वर्य मांसपेशियों से 
रहित है, इसलिए श्वसन-क्रिया में फुपफुस का योगदान पसली के ढांचे के संचलन 
के द्वारा आप्त होता है। पसली के ढांचे का संकृचन और विस्तरण सम्बन्धित मांसपेशियों 
द्वारा धमनी की तरह होता है तथा इसका नियंत्रण दंत्रिकाओ के द्वारा होता है। 


नाक (७७88) :+- 


नाक श्वस्तन-तंत'का प्रवेश-द्वार है। भीतर प्रवेश करे वाली हवा को यह छानता 
है तथा गर्म एवं नम बनाता है। नथुनों एवं उनके आसपास के भीतर के हिस्सों पर 
छोटे व बड़े वाल होते हैं, जो बाड़ का कार्य करते हैं। यह प्रथम रक्षा पंक्ति है, जो 
भीतर आने वाली हवा में विद्यमान अनाशश्यक बड़े कणो को आगे बढ़ने से रोक 
देती है। नाक की गुहा का भीतरी भाग श्लेष्म-झ्लिल्ली के द्वारा आच्छादित होता है। 
रजकण एवं अन्य सूक्ष्म कण तथा कीटाणुओं को चिपदिपे शलेष्म द्वार वहीं रोक दिया 
जाता हैं। श्लेप्म-झिल्ली भीतर जाने वाली हवा को आदर भी बनाती है। 


मुँह से भी श्वास लिया जा सकता है, पर मुँह में प्रविष्ट हवा को साफ करने 
तथा गर्म एवं नम बनाने का उपकरण नहीं है। इसलिए मुंह से श्वास नही लेना चाहिए। 
इचास-नली १857/78/07५ ॥प098 (4078) :-- 


श्वास-पैली ।। सेण्टीमीटर लम्बी और 2 से 2.5 सेण्टीमीटर व्यास वाली एक 
बेलनाकार नली है, जो अनननली के आगे भाग में होती है। फेफड़ों तक पहुंचने पर 
यह प्रत्येक फेफड़े मे एक-एक श्वासनलिका के रूप में विभाजित हो जाती है। 


84 एक्युप्रेशर-स्व॒स्थ प्राकृतिक जीवन पद्धति 


श्वास-नली की भीतरी सतह पर शलेष्मोत्यादक कोशिकाओ की पंवित होती है। श्वास 
के साथ भीतर प्रविष्ट प्रदृषण-कणिकाएं यहा फंसा दी जाती है। श्वास-नली और 
श्वसनिका की भीतरी सतह पर उगे हुए रोेमक रजो से भरे हुए श्लेष्म की ग्रसनी की 
ओर ऊपर की तरफ झाड़ू देते है, जहां से उसे बाहर खखार जाता है। 


फुफ्फुस (.॥॥9) :-- 

पसली का अस्थिमय ढाचा फुफ्फुस, हृदय एवं महाधमनी आदि मुख्य 
रक्त-वाहिकाओं का रक्षण करता है। इसे छाती या वक्षीय गुहा' कहते है। छाती के 
ऊपर की ओर गर्दन की पेशियो के दोनों पाश्वों की ओर पसलियो, पीछे की ओर 
मेरुदण्ड (कसेरू), आगे की ओर उरोस्थित तथा नीचे की ओर तनुपट (अथवा महसप्राचीरा) 
के द्वार आबद्ध है। तनुपट एक गुम्बजाकार पेशीय दीवार है, जो वक्षीय गृह्दा और 
उदर-गुहा के बीच मे होती है। छाती की संरचना इस प्रकार की है कि फुफ्फुस के 
संकोच एवं विस्तार के साथ-साथ इसका भी संकोच और विस्तार आसानी से हो 
सकता है। छाती के अधिकांश हिस्से को दोनो फुफ्फुस रोके हुए हैं। दोनो फ़ुप्फुसो 
के मध्य मे हृदय और महाघमनी आदि मुख्य रक्त-वाहिकाओ का स्थान होता है। 

मनुष्य के दोनो फेफड़ों मे लगभग 30 करोड़ से लेकर 65 करोड़ तक 
श्वास-प्रकोष्ठ होते है। इसका सतही क्षेत्रफल लगभग 90 वर्गमीटर होता है, जो कि 
एक टेनिस के मैदान जितना है। वायुओ के आदान-प्रदान की प्रगुणता का मुख्य कारण 
भ्रकेष्ठो की विस्तीर्णता है। 


फुफ्फुस शंकु के आकार वाले होते हैं, जिनका मूल तनुपट पर टिका हुआ है 
तथा शीर्ष गर्दन के तले को छूता है। मूल भाग को छोड़कर फुप्फुस का शेष हिस्सा 
मुक्त रूप से हिलाया-डुलाया जा सकता है। दायां फुप्फुस अपेक्षाकृत थोड़ा बड़ा और 
चौड़ा है, किन्तु लम्बाई में थोड़ा छोटा है। दायां फुप्फुस 3 पिण्डकों तथा बाया 
फुफ्फूस 2 पिण्डको मे विभाजित होता है। फुफ्फुस हल्के, छिद्रालु एवं स्पंजी होते 
हैं। उनकी आन्तरिक संरचना शाखाओं में विभक्त नलियो एवं वायु-प्रकोष्ठो के द्वारा 
होती है। प्रत्येक कोष्ठक मोटे तौर पर गोलिका के आकार का होता है तथा इसका 
व्यास लगभग १00 माइक्रोन झेता है। प्रत्येक कीष्ठक की दीवार अत्यंत पतली होती 
है तथा उसके चारो ओर वैसे ही पतली दीवारों वाली कोशिकाएं फैली हुईं रहती है। 
2 का सतही क्षेत्फल भी लगभग श्वास-अकोष्ठों के सतही क्षेत्रफल जितना 
| 


कदसन तंत्र 85 


श्वसन क्रिया ,-- 

सामान्य मनुष्य की दृष्टि से श्वसन क्रिया केवल एक भौतिक क्रिया मात्र है, 
जिसमे क्रमशः हवा को फुस्फुस के भीतर ग्रहण किया जाता है और पुनः निष्कासित 
किया जाता है। श्वसन क्रिया अधिकाशत" अपने आप चलने वाली क्रिया है। अपनी 
पूरी जिंदगी में एक मनुष्य लगभग 3 करोड़ घन फीट हवा ग्रहण कर लेता है। 
श्वसन क्रिया का पाश्मिषिक नाम है-- वायु संचार! इसमें दोनो पहलुओं का समावेश 
हो जाता है--श्वास या भीतर हवा का ग्रहण और निःश्वास या बाहर हवा का 
निष्कास्तन 


फुफ्फुस में वायु-मिनिमिय (बाह्य श्वसन) :-- 


जो हवा हम बाहर से श्वास के रूप में भीतर गहण करते हैं उसमे लगभग 
2 प्रतिशत आवसीजन तथा 79 प्रतिशत नाइट्रोजन होता है। इसके साथ स्वल्प मात्रा 
में वाष्प, कार्बन-डाई-आक्साइड तथा अन्य प्रकार की निष्क्रिय वायु भी होती है। 
निःश्वास के द्वार निष्कासित हवा में 5 प्रतिशत आकसीजन, 5 प्रतिशत से 6 अतिशत 
कार्बन-डाई-आक्साइड तथा 78 प्रतिशत नाइट्रोजज होता है! आवसीजन और 
कार्बन-डाई-आक्साइड का विनिमय फुप्फूस में किस प्रकार होता है, इसकी चर्चा ऊपर 
की जा चुकी है। वायू के विनिमय को प्रभावशाली बनाने वाले मुख्य रूप से दो 
निमित्त हैं --- 
4.. श्वास-अकोष्ठो एवं कोशिकाओं की अत्यन्त सूक्ष्म दीवारे। 
2... विनिमय क्षेत्र का अत्यधिक विस्तृत सतही श्षेवरफल। 


श्वास-अकोष्ठों के चारो ओर फैली कोशिकाओं की जाली मे रक्त की बहुत 
बड़ी मात्रा विद्यमान रहती है। जैसे बताया गया है, कोशिकाएँ इतनी अधिक संकरी 
होती है कि रक्त कणिकाओ को उनमें गुजरते समय एक पंक्ति में प्रवाहित होना 
पड़ता है। इसका परिणाम यह होता है कि प्रत्येक रक्त कणिका का प्रकोष्ठ स्थित 
वायु के साथ अच्छी तरह सम्पर्क हो जाता है। आवसीजन के परिवहन की जिम्मेदारी 
रक्त कणिकाओं में विद्यमान हेमोग्लोबीन की है। 


रक्त के द्वारा बायुओं का परिवहन :-- 


फुफ्फृस से निर्गत रक्त का रंग चमकीला सिदूरी (लोहित) हेमोग्लोबीम का 
प्रत्येक अणु आक्सीजन के चार अणुओ का परिवहन कर सकता है। आवसीजन युक्त 


85 परृष्युप्रेशर- स्वस्थ प्राकृतिक जीवन प्रद्धति 


सिंदूरी रक्त फुफ्फुस से हृदय मे और वहाँ से परिसचरण तंत्र के द्वास शरीर में 
पहुंचाया जाता है। खत कणिकाओं मे से निकलकर आवसीजन मे अणु कोशिकाओं 
की झिल्ली को पार कर ऊतकों के तरलांश में प्रस्तुत होते रहते है तथा वहाँ से 
अन्ततोगत्वा चयापचय क्रिया के लिए कोशिकाओं के भीतर चले जाते हैं। 

कार्बन-डाई-आकसाइड का परिवहन आवशीजन की अपेक्षा अधिक जटिल होता 
है। इसकी अधिक मात्रा का परिवहन कार्बनिट आयन के रूप में प्लाविका द्वाय होता 
है तथा कुछ अवशिष्ठ अंश प्लाविका में घुल जावा है। समस्त प्रविष्ठ हवा का 4/5 
जितना हिस्सा जो नाइट्रोजन के रूप मे होता है उसकी सामान्यतः शरीर द्वारा उपेक्षा 
की जाती है। 


ऋः क्केल 








आंख के रोग (008889585 ७ (१७ £9४85) 





मानव शरीर में आंखों की महत्वपूर्ण भूमिका है। यह कहा भी जाता है कि 
आँख है तो जहान है यानि आंख न हो तो जिन्दगी सारहीन है। आंखों की बनावट 
उतनी ही सूक्ष्म है जितना कि इसका आकार। आंख की बाहरी त्वचा एवं पलकें इसके 
आन्तरिर्क भागें का बचाव करती हैं। 

आंख के मुख्यतः दो भाग होते हैं जिसे श्वेत मंडल (50७४8) एवं स्वच्छ 
मंडल (00769) कहते है। श्वेत भाग के अलावा वह भाग भी है जिसमे बारीक 
शिरओं का जाल-सा होता है उसे कोरायड़ (0#000) कहते है। आंख के बीच में 
(73) होता है जिसे उपतारा के नाम से जानते हैं। इसका तीसरा भाग छावापटल यानि 
(न०७॥४०७) कहलाता है। 


आँखों के प्रमुख रोग-- 


ग्लोकामा (80 ८आ३8) 
डिपलोपिया (9909/०) 

आंख आना (00[णाएणाशं।५) 
रेटिना में सूजन (माह) 
रतौंबी 

मोतियाबिंद (087७०) 


श्लोकामा--यह रोग बहुचा अधेड़ उम्र के व्यक्तियों को होता है। इस रोग में 
नेत्र तनावपूर्ण रहते हैं, साथ ही नज़र में धुंधघलापन आना शुरू हो जाता है। 


छू था # ७ नि + 


जज 
ड् 


एकयुप्रेशए-स्थस्थ प्राकृतिक जीवन पद्धति 


तनाव के कारण सिरदर्द की शिकायत भी रहती है। समय पर इसकी तरफ 
ध्यान न दिये जाने से मनुष्य प्रायः दृष्टिहीन भी हो जाता है। 
डिप्लोफिया--इस रोग के लक्षण ये हैं कि इसमें गेगी को देखने में कठिनाई 
होती है। साथ ही दृष्टि में वस्तुएं धुंधली एवं एक की दो वस्तुएं दिखाई 
देती हैं। 

आंख आना-इसका प्रमुख कारण अधिक नशीले पदार्थों का सेवन, धुएं अथवा 
धूल भरे माहैल में अधिक समय तक रहना, अधिक चिन्ता, ग्रेना, कम रोशनी 
अथवा अत्यधिक रोशनी मे पढ़ना अथवा कई घंटे पढ़ना अथवा काम करना 
इत्यादि इस बीमारी को आमंत्रित करना है। 

पेटिना में सृुजन-इसके भी मूल कारण अधिक समय तक टी.वी. अथवा 
सिनेमा देखना, मधुमेह, अनिद्रा एवं भोजन में विथमिन 'ए' की कमी है। 
रतौंबी--इसका मूल कारण तो अभी तक ज्ञात नहीं किया जा सका है परन्तु 
अधिकांश व्यक्ति पौष्टिक आहार की कमी के कारण इसका शिकार होते हैं। 
वशाजुगत बीमारी द्वार भी यह रोग हो सकता है। इस रोग में रात को दिखाई 
नहीं देता। है 

मोतियाबिंद (29/४३०४--इस रोग में आंख के पारदर्शी लैंस धीरे-धीरे 
साफ हो जाते हैं एवं रोगी को दिखाई देना बन्द हो जाता है। यह रोग 
वृद्धावस्था मे अधिक बढ़ जाता है। इसका समय पर ऑपरेशन करवाना ही 
इससे बचाव है। 


रोग का निवारण अथवा बचाव 


आंखों के रोगो के न पनपने दिये जाने के लिए व्यक्ति को साफ-सुथरे वातावरण 
ना चाहिए। पौष्टिक आहार का सेवन करना चाहिए जिनमे पत्तीदार हरी सब्जियाँ 
'ल इत्यादि की मात्रा अधिक हो। पेट की पूर्णतया सफाई होते रहना चाहिए जैसे 
पत मल-मूत्र त्याग इत्यादि। कब्ज कभी नहीं होने दें। काम करते, पढ़ते समय 
' रोशनी का होना बहुत जरूरी है। सही ढंग से बैठकर पढ़ना चाहिए। 

हरी पत्ती की ओट में धूप स्नान लेने से एवं पार्मिम' द्वारा आँखो की ज्योति बढती 
मार इस क्रिया को तीन माह तक करने से चश्मा भी उतारा जा सकता है। 


शंख के शेग 89 


आखो के एव्युप्रेशर द्वारा प्रतिबिम्ब केद्र-- 





आकृति 57 
हरी पत्ती की ओट में नेत्र ज्योति के लिए धूप-स्नान : 


सूर्य को 'सप्त-किरण” या 'सप्त-रश्मि' कहते है। पुराण मे सप्त-रश्मियो को 
(जो क्रमश. लाल, नारंगी, पीली, हरी, आसमानी, नीली एवं बैगनी होती है) सप्तमुखी 
घोड़ा बताया है। चूंकि उपर्युक्त सात रंगो के एकत्र होने से ही श्वेत रंग की उत्पत्ति 
होती है और उसमे सातो रंग की सूर्य किरणों के रोग-नाशक गुणों का समावेश रहत 
है। इनकी प्राप्ति हमे धूप स्नान, सूर्य स्नान से होती है। यह स्नान नेत्र ज्योति के लिए 
श्रेष्ठ है। 


धूप स्नान करने की विधि : 


सूर्य निकलने के थोड़ी देर बाद प्रातः 7 से 9 बजे तक सूर्य किरणो मे प्रखरतत 
कम रहती है तथा मानव देह को स्वस्थ एवं बलिष्ठ बनाने के लिए प्रकृति द्वार, 
यह अमृत वर्षा है विशेषकर नेत्र ज्योति के लिए। हरी फ्ती की ओट मे धूप समान 





90 झुकाशुप्रेशर--स्वस्य प्रत्िफ जीजम एडसि 


अेष्ठ माम गया है। हरी पत्ती को आँखो के सामने रखकर प्रातः 8 बजे 5 भिनट 
तक नियमित तीन माह अयोग करने से आँखों की रोशनी बढ़ती है। इस चिकित्सा मे 
पीपल का केले की चुष्ट फ्ती को श्रेष्ठ भागा गया है। लेकित धूप स्नान करले से इर्व 
नारियल का तेल या गाय का शुद्ध घृत धीरे-धीरे मरीज व्ये स्वयं अपने हाक्षों से 
आँखो के आस-पास मलझ चऋट्टिए, फिर इथेली का ऊपरी हिस्सा आँखों पर लक्षकर 
अन्दर ही अन्दर आँखों स्लो इन्द्र कसम व खोलना चाहिए कक्ष धरि-धरि सहन करने 
लायक दबाव लेना ओेष्ठ रत्न है। इस क्रिया को अंग्रेजी में ६५2-२४॥॥भध) कहते 
हैं। इस केन के पल्कात्‌ आँखों को उण्डे ऋनी के साथ धो ढालना चाहिए। इस क्रिया 
का प्राकृतिक चिकित्स सम्बन्धी अयोग करने से नेत्र के खरे विकार दूर छेने के 
साथ-साथ नेत्र ज्योति में वृद्धि होठी है। तथा एक या दो नम्बर तक का चश्मा उतारा 
जा सकद्म है। 


आवश्यक निर्देश : 
. हरी फ्तीदार सब्जियों का सेवन करना। 
2. लाल रंग के फल सेवन करना--गाजर, चुकन्दर, अनारा 


औ औ्फ 





नाक व कान के रोग (0589968 0 8 5875 & ४098) 


आंख की तरह कान भी मानव देह का प्रमुख अंग है। इसके द्वारा मनुष्य ध्वनि 
का ज्ञान अथवा सुनने की क्रिया करता है। इसका हमारी झनेन्द्रियों मे प्रमुख स्थान 
है। 

कान की आन्तरिक रचना के अनुसार इसे तीन भागो मे विभक्त किया गया 
है--. बाहरी, 2. मध्य और 3 आंतरिक। उक्त दीनो के परस्पर मेल से हमें आवाज 
का बोध होता है। 

कानों के विभिल रोग-कानो का मुख्य रोग कम सुनाई देना अथवा बहरापन 
है। इसके प्रमुख कारण दुर्घटना, अत्यधिक जोर की ध्वनि अथवा धमाका, लम्बी बीमारी 
अथवा कानो का अधिक समय तक बहना अथवा पीष आना, अत्यधिक गर्म दवाइयों 
का सेवन करना एवं दिमाग की कमजोरी है। 


यह भी तथ्य सामने आया है कि गुर्दे की बीमारियों के कारण भी कान के कई 
रोगों का प्रार्दर्भाव होता है, जैसे--कानो में दर्द रहना, कानो मे सूनापन एवं विभिन्‍न 
प्रकार की आवाजे सुनाई देना इत्यादि। इसके अतिरिक्त पेट की गड़बड़ी, कब्ज, 
म्रधुमेह इत्यादि से भी कानों की विभिन बीमारियां उत्पन्न हो जाती हैं। 
कानों की बीमारियों से बचाव अथवा निवारण-- 

सर्वप्रथम इनकी नियमित रूप से सफाई किया जाना आवश्यक है। अत्यधिक 
तेज आवाज के वातावरण मे रहना अथवा रेडियो, टी.वी. सुनना बेहद खतरनाक है। 


स्वस्थ शरीर ही भगवान का घर है, इसी प्रकार स्वस्थ रहकर नियमित दिनचर्या का 
पालन करें। 


शक्युप्रेशर-स्वस्थ ग्राकृतिक 





आकृति 58 
नाक छी शीमारिया-मानव २रीर की झानेन्द्रिकें में नाक का प्रमुर 
प्रकार देखकर, सुनकर, चखकर, छूकर और सूंघकर किसी वस्तु का 
में मुंघने की क्रिया नाक द्वारा होती है। 


नाक की प्रयुख बीखरिशें--. . जुकाम एवं नजला 
2... साइनस 
3... नकसीर इत्यादि 
जुकाश्र एवं नजतला एवं सहुम्स--डन रोगों के एमुख कारण स 
आना, पसीने में ठंडी चीज का सेवन करना अयवा अत्यधिक ठंडे 
कर गर्म वाद्मवरण में प्रवेश करना इत्यादि है। 
अब तक की शोथ से यह परिणाम सामने आया है.कि मस्तिष्क एः 
हम सक्रामक रेशों (2:८5) का जमाव प्ले जाता है जिससे शर 


नाक थ काने के रोग छ्ड 
प्रतिरोध शक्ति कम हो जाती है एवं इस बीमारी का जन्म होता है। धीरे-धीरे इसी के 
फलस्वरूप शरीर मे अन्य घातक संक्रामक बीमारियों का जन्म होता है जिनमें टीबी , 
अस्थमा इत्यादि प्रमुख हैं। 


लक्षण-इस रोग की शुरूआत मे छींकें आना, सिरदर्द अथवा सिर में भारीपन 
रहना, सर्दी लगकर कम्पन शुरू होना, आंखे भारी रहना और आखो से पानी आना, 
गले मे दर्द, नाक में रुकावट अथवा सांस लेने मे भारीपन, गर्दन का जकड़ना, पीठ 
दर्द एवं बुखार इत्यादि पमुख हैं। 


नाता .//५ 





३ ऋण लि 


आकृति 59 


ऋचा 





खत्री-जनित रोग (0568888 0 ४/00॥श॥) 


ज्वी के जनन अंग एवं क्रिया 
(एशाशंह विलएवादाएए छापुक्षा 0 शाफ्डएण ०6५) :- 

स्त्री के प्रजनन अंग है . डिम्ब ग्रन्थियां (0५865), 2. गर्भाशय (१॥७७७), 
(3) गर्भाशय नलिकाएँ (#०॥0०छअंक्षा ।0085), (4) योनि (४७७॥१४)। यह अंग शरीर 
मे श्रेणी की अस्थियो के निचले हिस्से (2७४० 0४५५) मे स्थित होते है। 





स्त्री जनित रोग 95 


शिशु के गर्भ धारण से गर्भस्थ शिशु के निकलने तक या डिम्ब अंधियों से 
डिम्ब बनने की प्रक्रिया में यह अंग अपनी अहम्‌ भूमिका निभाते हैं। अंगों में होनें 
वाले विकार का असर शिशु के विकास पर पड़ता है। 


]... अस्थिमय श्रेणी (06 809 ?९शं5) :-- 


श्रेणी एक अस्थिमय मार्ग है जिसमें से जन्म की प्रक्रिया के दौरान गर्भस्थ शिशु 
को निकलना होता है। इसकी संरचना शरीर के अनुरूप होती है और साधारण परिस्थिति 
मे प्रसव की प्रगति पर इसका कोई प्रभाव नही होता किन्तु कुविकास या अन्य बीमारियों 
की अवस्था मे प्रसव पर इसका प्रभाव पड़ता है। श्रेणी चार अस्थियो की बनी होती 
है। श्रेणी के चार जोड़ होते हैं जिन्हे अस्थिबन्धन (7 ।।8क।6/॥5) द्वारा मजबूती 
प्रदान छोती है। 


2. डिब्ब ग्रन्थिया (0४8788) :-- 


अण्डाशय अर्थात्‌ डिम्ब ग्रन्थियाँ (0५४॥०5) बादाम के आकार की दो रचनाएं 
होती है जो 4 से.मी. लम्बी, 2 से.मी चौड़ी एवं । सेन्टीमीटर मोटी होती है। यह 
गर्भाशय के दोनों ओर गर्भाशय नलिकाओं के नीचे स्थित होती हैं। मासिक धर्म आने 
की अवस्था से लेकर मासिक धर्म बन्द होने की अवस्था तक हर महीने डिम्ब ग्रन्थियो 
मे से एक अण्डा पक कर अर्थात्‌ डिम्बकरण (0५त09म07) हो कर किसी एक 
गर्भाशय नलिका ([॥७7#५७ [900) में पहुंचता है। 

गर्भाशय नलिका (£७॥0एछांथ (५0०७) का सम्पर्क डिम्ब ग्रन्थि से एक लम्बे 
फिम्ब्रीया के द्वारा रहता है। प्रत्येक डिम्ब अन्थि मीजोवैरिअम (]१॥७७०५६॥एा) नामक 
लिगामेन्ट से जुड़ी रहती है। 


3.गर्भाशयव नलिकाएँ (क॥0.था (प/०७७) ३- 
गर्भाशय के ऊपरी भाग की ओर दोनों तरफ एक गर्भाशय नलिका होती है 

जो एक तरफ गर्भाशय गुहा में खुलती है और दूसरी ओर डिम्ब ग्रन्थियों के पास 

खुलती है। प्रत्येक नली की लम्बाई 0 सेमी. होती है। प्रत्येक नली के चार भाग 
होते हैं :-- 

(7) इनफन्डिब्यूलस (#ण़ि000एश)--कीपनुमा चौड़ा भाग जो डिम्ब ग्न्यि के 
समीप उदरीय गुहा मे खुलता है। इसमे कई उम्ार रहते हैं जिन्हें फिमकी 
(न798) कहते हैं। 

(2) एम्पयूला (8700॥9)--पतली दीकर वाला कुष्डलापड़र भाग है जो इस नली 
का आधे से अधिक भाग बनाता है। 


6 एक्युग्रेशर--स्वस्थ प्राकृतिक जीवन पद्धति 


(3) इस्थमस (।800783)--गोल भाग है जो इस नली का करीब एक-तिहाई भाग 
बनाता है। । 
(4) गर्भाशयिक भाग ((॥७7॥8 ?४४७)--गर्भाशय की दीवार से गुजरता है और 
करीब । था लम्बा होता है। 
4... गर्भाशव (४४७७) १-- 
गर्भाशय की आकृति नाशपाती की भाँति होती है। आकार मे साधारणतया यह 
7.5 था लम्बा, 5 जञा। चौड़ा तथा इसके परदे (४४७॥५) 2 ८ ७गा. चौड़े होते है! 
वजन में यह 30-40 आम तक होती है। गर्भाशय के पीछे मलाशय तथा सामने 
मृत्राशय होता है। नीचे की तरफ यह योनि से मिला होता है और इसके दायें तथा 
बाये यर्भाशय नलिकाएं होती हैं। गर्भाशय का मुख्य कार्य गर्भधारण करना है, अर्थात्‌ 
गर्भस्थ शिशु की पालना। यह लचकीले तन्तुओ का बना होता है। गर्भकाल पूर्ण होने 
पर प्रसव होता है जिसमे शिशु योनि मार्ग द्वारा बाहर आता है। प्रसव के कुछ समय 
पश्चात्‌ गर्भाशय पुनः अपनी प्रारम्भिक अवस्था में आ जाता है। 
5... जोनि मार्ग (ई४8५ञ॥४) ७ 78 ४एॉएश :-- 


स््री के बाह्य जननांगों के एक रूप को योनि (४७४४) कहते हैं। ये निम्नलिखित 
भागों के बने होते हैं :-- 
मांस वेनेरिस या प्यूबिस, (०७ ४आशां5 0/ 708) 
लेबिया मेजोरा एवं लेबिया माइनोग (30४8 |॥8]|0७ ४| ७08 ४॥॥0॥8) 
क्लियोरिस (0॥णा5) 
वेस्टिब्यूल (४०७॥०७॥७) 
योनि द्वार (0##08 ण॑ 08 ४कआ१9, ॥8 ॥07) 
... हाईमन (निशा) 
बासिक धर्म (॥॥९50 0॥0॥) (रजोघर्म) :-- 

माहकरी चक्र की अंतिम क्रिया रक्‍्तख्राव है जो कि स्वस्थ स्त्रियों मे 28 से 
30 में योवनारम्भ से रड्ोन्वित्ति तक होता रहता है। 


माहवारी चक्र दिन (0४98 0५०७) की इस अवधि में जहां प्रथम |4 
दिन में डिम्बकरण (0५४0४907) और इस ग्रकार 24 दिन तक गर्भाशय ((॥8705) 
में निबेचित झ्िम्ब के आगमन की पूर्ण रूप से तैयारी रहती है यदि निवेचित छिम्ब 


9 9 9 ४ ७ :+ 


सी जनित रोग छ्ा 


की स्थिति मे गर्भ ठहर जाता है जो गर्भाशय की सारी तैयारी भ्रूण के विकास में 
काम आ जाती है। यदि डिम्ब अनिषेचित रहा तो गर्भ नहीं ठहरता है और गर्भाशय 
द्वारा पूर्ण रूप से की गईं सब तैयारियां व्यर्थ हो जाती हैं और फिर आर्तवकाल 
(/९४क्‍७४७॥ ?९॥00) शुरू हो जाता है और गर्भाशय से सम्बन्धित शिशु के पोषण 
के लिये जो रक्त जमा हो जाता है, मोटी एज्डोमीट्रिअम के दूटने की प्रक्रिया शुरू 
हो जाती है और वह योनि मार्ग से बाहर चला जाता है। यही रक्त मासिक धर्म, 
ऋतुधर्म, रज आना, कपड़े होना या माहवारी कहलाता है। 


यौवनारंच (शफ्न्‍शाए) १ 


लड़की की वह अवस्था जिसमे वह यौवन काल में प्रवेश करती है और जहां 
आंतरिक एवं बाह्य जनन अंगों का विकास आरम्भ होता है, मासिक धर्म की शुरूआत 
होती है। साधारणतया 0-6 वर्ष के काल को यौवनारंभ (2009) कहते हैं, जब 
वह प्रथम रजस्वला होती है। साधारणतया ठंडे प्रदेशों में 5-48 वर्ष की अवस्था में 
यह क्रिया शुरू होती है। 


रजोनिवृत्ति (#00[090058) :-- 


मासिक धर्म 35 वर्ष की अवधि तक आता रहता है अर्थात्‌ 45-50 वर्ष की 
आयु के मध्य मासिक धर्म हमेशा के लिये बन्द हो जाता है। इस अवस्था को रजोनिवृत्ति 
(/७0790508) कहते हैं। रजोनिवृत्ति का अर्थ है प्रजनन अवधि की समाप्ति। डिम्ब 
क्षण समाप्त हो जाता है। 


गर्भधारण (200080॥04॥) :-- 


“पडम्ब एवं शुक्राणु के संयोजन को गर्भधारण” निवेचन या गर्भाधान 
(#॥9क।णा) कहते हैं। निषेचित डिम्ब एन्डोमीट्रीयम में अंतःस्थापित हो जाता 
जो हॉमेनिज की क्रिया द्वारा इसे क्रप्त करने के लिये तैयार हो चुकी होती है। यह 
निषेचित डिम्ब यहीं रहता है और आकार में तब तक बढ़ता है जब तक कि यह गर्भ 
को पूर्णत: नही भर देता है। इसके बाद गर्माशव भी इसी के साथ गर्भावस्‍था के 
अन्तिम समय तक बढ़ता रहता है। 


गर्भर्थ शिक्षु (488 #छए७) ४-- 
9वे सप्ताह से अन्त तक के गर्भ को गर्भस्थ शिशु (६०५५) कहते हैं। साधारण 
परिस्थितियों में इसका विकास एक निर्धारित मापदब्छों के आधार पर होता है और 


भ्रूण का विकास, लम्बाई, वजन आदि के आपछार पर सुनियोजित कर विकास की 
ज्रैणी एवं गर्भधारण कौ अवधि ब्ख ऋझन दोख है। 


98 शक्युप्रेशर--स्वस्थ प्राकृतिक जीवन पद्धति 


प्रजनन अंगों सम्बन्धी सेम :-- 
]..प्रध्म् मासिक धर्म में देरी या मासिक धर्म न आना (#ाक्षाणाए88) 


मासिक धर्म न आना दो प्रकार का होता है---(4) पहली अवस्था को “प्राथमिक 
अनार्तव” (एगाह्षा३ #वाशश्ाण॥68), अर्थात्‌ 46-7 वर्ष की आयु तक मासिक 
धर्म आरम्भ ही नहीं हुआ। 

(2) दूसरी अवस्था को “द्वितीयक अनार्तव” (5800089५ #वाक्क।07/१898) 
कहते हैं, अर्थात्‌ मासिक धर्म आरम्भ हो कर कुछ समय के बाद बन्द हो गया हो। 
गर्भावस्‍था (006 ।॥४काक्षा०५) तथा प्रसव के बाद बच्चे को दूध पिलाने के 
महीनो में मासिक धर्म नहीं आता। रजोनिवृत्ति (//७४३००8058) की अवस्था में यह 
प्राकृतिक रूप में हमेशा के लिये बन्द हो जाता है। और इस अवस्था को सामान्य 
अवस्था (५६/४४/)) माना जाता है। इसके अलावा यदि मासिक धर्म न आये तो कई 
कारण हो सकते हैं, जैसे--जनन अंगो का न होना, जनन अंगों का पूरी तरह विकसित 
न होना या विकृत होना, गर्भाशय ग्रीवा (2७७0) तथा योनि (५७७७) आदि का 
असामान्य होना। प्रजनन अंगो की किसी बीमारी तथा किसी अन्य बीमारी, जिसमे 
रोगी की शारीरिक क्षमता कम हो गई हो, ऐसी अवस्था मे भी ऋतु स्राव नही आता। 
रक्त की कमी, मधुमेह, क्षय रोग, शरीर के अन्य भागों में पाई जाने वाली बीमारी 
आदि में भी रक्त स्लाव नहीं होता। हार्मोंस (अन्तःस्रावी ग्रन्थियों की कमी) के कारण 
भी मासिक धर्म का दोष हो जाता है। मासिक धर्म कई बार मानसिक तौर पर, गर्भ 
ठहरने के डर या संतान पैदा करने की लालसा आदि में भी नहीं आता है। 


##764/ गश््रापरा 

(७३+फं रे 

से &र्भ कु हर 
आज पक 7० नर 
5्रक 





उड़ति 54 


असमतवारायन धाम... नीक्रता। प्रफनपममाण धमकम आना 


खी-अनित रोग छछ 


2. 


अनियपभ्ित म्रासिक बर्म (#6पुफ्रांक्ष शिक्षाइाएश्की0ा) :- 
(६) णएाहुणाक्षाठ98 (वूप ऋतुद्थाव) : कम ऋतुस्ाव होना भी रोग 


का लक्षण है। मानसिक उत्तेजना, जलवायु के परिवर्तन, शारीरिक कामकाज, शारीरिक 
कमजोरी आदि का मासिक चक्र पर प्रभाव पड़ता है। शारीरिक क्षमता से ज्यादा या 
शारीरिक क्षमता से कम काम करने वाली महिलाओ में हरमोन की असमानता बने 
रहने के कारण मासिक धर्म अनियमित रहने लगता है। कम रक्त स्राव के कारण निम्न 
लक्षण रहने लगते हैं :-- 


() 
(2) 
(3) 
(4) 
(5) 
(6) 
(7) 
(8) 





आकृति 62 
मासिक धर्म के समय या पहले मन में उदासी का रहना। 
सिर और कमर मे दर्द रहना। 
आँखो के आगे कई बार अंधेरा-सा छा जाना! 
भोजन के प्रति अरुचि होना। 


स्वभाव में चिड़चिड़ापन होना। 

हाथों-पैरों में जलन रहना! 
नाभि मे दर्द का अनुभव करना (न 
कई द्यो मे स्तन सामान्य से अधिक बढ़ जाना या कम आकार का होना । 
एव दर्द रहने लगता है। 


400 एक्यप्रेशर--स्वस्थ प्राकृतिक जीवन पद्धति 


(9) 0एडानश्लाणागी&9 ; (क्षति ?िक्षा005 : वेदनामय ऋतुस्ताव)--जब 
साधारण से अधिक वेदना या कष्टदायक ऋतुख्ताव हो तो यह रोग का सूचक है। ऐसी 
अवस्था को वेदनामय ऊतुस्ताव या 0/5॥श०7768 कहते हैं। प्राय: यह स्थिति 
प्रथम दिन मे 0-42 घटे तक रहती है, जिसमें असहनीय पीड़ा होती है। यह पहली 
वार मासिक धर्म शुरू होने की अवस्था से 25 वर्ष की आयु तक की ख््ियों को होती 
है। इसमे निम्न लक्षण होते हैं :-- 

(7) अत्यधिक पीड़ा के साथ मासिक धर्म का आना। 
(2) जनन अंगो में सूजन होना। 

(3) सम्भोग के समय पीड़ा। 

(4). निश्चियता। 

(5) कभी कम कभी ज्यादा रक्त स्राव रहता है। 

(8) भरज्लाणआगएफांत 07 70 ज्राह्राण गा (अतिरज : अत्यधिक ऋतुस्नाव 
होना)--प्रकृतिक नियम के अनुसार ऋतुखाव 4-5 दिन तक रहता है, जिसमें दूसरे 
तथा तीसरे दिनों में शेष दिनों की अपेक्षा अधिक मात्रा में रक्त आता है। जब सामान्य 
अवधि में अधिक दिनो तक या अधिक मात्रा मे रक्त स्लाव रहे तो उसे अतिरज या 
अत्यात्व (20श॥कण7 ७ /॥00/0008) कहते हैं। अतिरज एक लक्षण है ल्‍ 
इसको दूर करने के लिये रोग का असली कारण ढूंढना आवश्यक है। 


3. भामिक धर्म के पहले वेदनां 78तशा]ड।/घछत्क पैछत507 -- 


कई ख्त्रियों में मासिक धर्म के 7-40 दिन पहले तनाव, उत्साहहीनता, कम्पन, 
चिड़चिड़ापन, योनि में जलन, मामूली से लेकर काफी सिर दर्द, छाती में दर्द, पेट 
व शरीर के कई दूसरे अंगो का थोड़ा फूल जाना महसूस होता है जो ऋतुस्ताव शुरू 
होने े कुछ समय बाद ही समाप्त होता है। इसे [क्लाशाजआ8॥ शशाओंणा 
कहते हैं। 


4... एवेत प्रदर (.९प०७०णाए]8७) ६-- 


इस रोग मे ऋतुस्राव से कुछ दिन पहले या कुछ दिन बाद योनि से बिना रक्त 
के पानी सा आठा है। यह पानी तरल या गाढ़ा होता है। कभी चिकना, चिपचिषा, 
हस या पीला स्राव आता है जिससे दुर्गगथ आती है 


स्री सनितें शेग ॥94 


यह श्वेत अंदर जनन अंगों के सक्रमण (॥#90॥00) तेथा रोग प्रतिरोधक क्षमता 
की कमी आ जाने के कारण हो जाता है। 


5... गर्भाशय प्रवाह (क्रीक्षाश॥्कां0 छा ऐ।8 पॉक्षप शिटाएतिं) :-- 


यह रोग साधारणत" प्रसव तथा गर्भपात के बाद होता है। प्रसव के बाद जब 
गर्भाशय अपनी पहली स्वाभाविक अवस्था में नही आता और पूरी तरह संकुचित नहीं 
हो पाता तो गर्भाशय का भाग काफी भारी और बोझिल प्रतीत होने लगता है और 
उसमे हमेशा दर्द रहने लगता है। यह रोग प्रायः अत्यधिक सहवास करने के कारण 
भी हो जाता है। इसके साथ प्रायः तेज बुखार तथा शरीर मे दर्द भी रहने लगता है। 


5...योनि प्रद्ाह (४४व 5 [मञीक्षा।800॥ ए॑ ४३०४9) *- 


इस रोग में योनि में सूजन, जलन तथा दर्द हो जाता है। योनि का भाग प्राय* 
गर्म रहता है। यह रोग प्रायः संक्रमण (॥#/9८४०7१), चोट लगने तथा अत्यधिक सभोग 
करने से होता है। 
7. यौन सम्बन्धी रोग :-- 


यौन गेगों मे प्रमुख गोनोरिया (5000॥॥98) एवं 8५7ताक्ष/5 मुख्य रूप 
से होते हैं। इसके अलावा ४०५ की बीमारी भी सहवास से एक-दूसरे को होती है। 
यह संक्रामक रोग है। 


8... >#॥02ऋ #7866॥07॥ ० ब्रा १-- 


नमी व सफाई के अभाव में योनि पर फफून्द रोग हो जाता है और कई दिन 
तक जब यह रोग रह जाता है तो वहां 88000 द/9 ॥8"॥0॥, 8९४६8 से हो 
जाता है, उसमे सूजन, दर्द एवं कभी मवाद आदि आता है। 


9. >0905809 छऐाप5 ३-- 


गर्भाशय जब अपने निश्चित स्थान से हट कर सामने या पीछे झुक जाता है 
उसे [70970560 (0७५ या 9080७79४ (0०५ कहते हैं। इस स्थिति के 
आगे कभी गर्भाशय अन्दर की ओर दब कर योनि तक आ जाता है, इसे ॥॥४एधाणा 
अ (०५५ कहते हैं। यह स्थिति प्रायः अधिक प्रसवों के होने या जनन अंगो मे 
अधिक समय तक रोग के रहने या मासपेशियों व बचन नेतु 40शगाशाफ के 


482 एक्युग्रेशर-स्वस्थ प्राकृतिक जीवन गरद्धाति 


कमजोर पड़ जाने से छोेता है। प्रायः इस स्थिति के लिये शरीर में कई समय से रहे 
शारीरिक ग्रेष भी जिम्मेदार हैं। 


॥80. खॉझिपन (87979) ६० 

“सावारणतया सामान्य प्राकृतिक संभोग करने एवं बिना गर्भ-नेरोधक उपायो 
को काम में लेने के बाद यदि ख्री में गर्भ नही ठहरता है तो उसे बांझपन या 8809 
कहते हैं।'” स्त्रियों में बांझपन दो प्रकार का होता है-- 

(9) +०5०008 हाएआए (शांगता89 5897॥#9) 

(0) निैल्ाजा जुंकाा। (9800॥08५ डांशा॥।) 

पूर्ण बांझपन की अवस्था मे प्रजनन अंग या तो पूर्ण विकसित नहीं होते हैं या 
विकृत छोते हैं। 590॥0 0४००/शॉ५ की वजह से ख््री गर्भ धारण कभी भी नहीं 
करने की स्थिति में रहती है, उसे ॥050॥॥8 509॥9 कहते हैं। 

दूसरी स्थिति में स््री में गर्भ धारण की सभी प्रकार की व्यवस्था या शक्ति होती 
है किन्तु कुछ बीमारीवश या हार्मोनिक अवस्था से गर्भ धारण नहीं कर पाती। कई 
बार एक बार गर्भ-धारण के पश्चात्‌ दूसरी बार गर्भ नहीं ठहर पाता है, उस स्थिति 
को 560००॥0979 5शा॥ए कहते हैं। 

बाँझपन पति या पली दोनों मे अलग रूप से कार्य करता है। यदि पति में 
कोई विकार हो, शारीरिक था शुक्राणुओं के कारण उस स्थिति में भी री को बाँदपन 
से रहना होता है। बांझपन पली या पति में से किसी एक या दोनो में जनन-क्षमता 
सम्बन्धी किसी एक या अधिक विकारों के कारण हो सकता है। निःसन्तान होने की 
अवस्था में पति-पत्नी दोनों को अपनी उत्पादक क्षमता की जाँच करानी चाहिये। 


7.. स्वाभाविक गर्भपात (जञ5०आशं98 5907(600७8 4७०-/४०7) :- 


गर्भपात स्वतः हो जाय तो उसे स्वाभाविक गर्भपात कहते हैं, प्रायः कारणो का 
यता नहीं होता ऐसा अनुमान है कि काफी मात्रा मे तथा तेज असर वाली औषधियों 
के सेवन, कई बार तेज बुखार रहने, गर्भवती खत्री के पेट पर किसी कारण चोट लगने, 
बार-बार एक्स-रे करवाने का प्रजनन अंगों पर कुप्रभाव पड़ता है। तीव सक्रमण (०७७ 
॥स्‍8७०00०)), अच्चियो के विकार, गर्भाशय या इसके समीप वाले भाग मे रसौली होने 
या केनि परीक्षण के समय कई ऋर उपकरण अभ्रदि डालने से कर्षपात हो जाता है 


स्त्री जनित शेग 403 
अन्य बीमारियाँ, जैसे--मधुमेह, हृदय या फेफड़ो की बीमारी, रक्तचाप, गुर्दों का 
रोग, खत गुणों के नहीं मिलने पर स्वाभाविक गर्भपात हो जाता है। 


गर्भपात का मुख्य कारण कई बार 8७08 00588385 गोनोरिया, सिफिलिस 
आदि में गर्भपात हो जाता है। 


श्रिए5 (#तधु्ाडत ॥0१86 छिशीटाशाए 5एता0श8) :-- 


१४७७ की वजह से यह रोग सम्भोग के साथ पति-पली या अन्य ख्री के द्वारा 
फैलठा है, जिसमें रोग ग्रतिगेधक क्षमता खत्म हो जाती है और व्यक्ति दिन प्रतिदिन 
अन्य बीमारियों के चंगुल में फँसता रहता है और अंततः वह ग्ृत्यु की ओर अग्रसर 
हो जाता है। प्रायः यह रोग 25-45 वर्ष की अवस्था में होता है और युरुष एवं ख्री 
या दोनों रोग से ग्रसित हो जाते हैं। साधारणतया खियाँ 2७70४ का काम करती हैं 
और उनके संपर्क में आने वाले पुरुष को बीमारी से ग्रस्त कर देती है। 


223 


फ्खपकह 2 7० 





आंभषण ओर स्वास्थ्य (एदीॉ।त & ऐलाक्ाश।।9) 


चेतन्य केद्ध एवं नाड़ी अंधि संस्थानों का आभूषणों से प्रतिबिम्ब केद्धों पर प्रभाव 
व सम्बन्ध :-- 


सृष्टि की जब से दौड़ शुरू हुई है, तब से नारी को गहनो से (आधूषणों से) 
सदैव लगाव रहा है। जिस समय धातुओ की खोज नहीं हुई थी, उस समय ये गहने 
जानवरों की हड्डियो एवं हाथी दात से बनाये जाते थे। धीरे-धीरे इसमे परिवर्तन हुआ 
और रग-रगीले पत्थरों के गहने बनाये जाने लगे। तत्पश्चात्‌ आभूषणो मे सोना, चाँदी 
व तांबे का उपयोग होने लग! आज से लगभग पॉच-छः हजार वर्ष पूर्व आभूषणो 
का प्रयोग मित्र मे हुआ। आज भी मिश्र के पिरामिडो मे मृतशवों (ममियों) पर गहनो 
के चिह्न दृष्टिगोचर होते हैं। सिन्धु घाटी सभ्यता का काल भी आज से पाँच-छ: हजार 
वर्ष पूर्व का है। उस समय भुजबन्ध, करघनी, कड़ा का प्रयोग नारिया करती थी। 
हड़णा एवं भोहनजोदड़ी की खुदाई मे अर्द्धनारीश्वर की मूर्ति मे पार्वती भुजबन्द से 
सुशोभित होती प्रकट होती हैं। 

आशभुृषणों का यदि वैज्ञनिक अध्ययन किया जाय तो आश्चर्यजनक तथ्य सामने 
आयेगे। माथे मे बोर, गले मे मगलसूत्र एवं हार, हाथो में थुजबन्द, कलाई मे चूड़ियों, 
कमर में करघनी (कन्दौरा), पाँव मे पायल व बिछिया इन सबका एक्युप्रेशर चिकित्सा 
के क्षेत्र में विशेष महत्त्व है। ये आभूषण शरीर के विभिन्न अंगो मे स्थित प्रतिबिम्ब 
केद्रों पर नियमित रूप से दबाव डालते रहते है, जिस कारण वे अंग सक्रिय व 
निसेम बने रहते हैं। सिर जहाँ स्त्रियां बोर बांधती है वह मासिक धर्म विकार का बिन्दु 
है। जहां कान छेदा जाता है वह स्मरण शक्ति एवं अनिद्रा का प्रतिबिम्ब केन्द्र है। जहाँ 
चूड़ियाँ पहनी जाती हैं वह मूत्राशय (ओस्टैट ग्लैड्स) व कुण्डलनी का रिफ्लैक्स बिन्दु 
है। पायजेब कुल्हे, घुटने, कमर एवं पांव के विकासे पर नियंत्रण करती है। 


जआाशुवण और स्वाकतय 405 


इस तरह हम यह कह सके हैं कि आदिम युग मे आधृषणों का निर्धारण 
वैज्ञानिक अध्ययन एवं आरोग्य को मद्देनजर रखते हुए किया गया था। हमारे पूर्दजओों 
ने इन्हें धारण करने की परम्परा तो बनाई लेकिन इनके वैज्ञनिक दृष्टिकोण के बारे मे 
वस्तृत जानकारी प्रदान नही की। आज देझतों में रहने वाली नारियो का आधुषणों से 
लगाव बना हुआ है। लेकिन शहरों में इसके प्रति रुझान कम होता जा रहा है। यही 
वजह है कि अधिकतर खियां सरदर्द, घुटनादर्द, अनियमित मासिक पर्म जैसी बीमारियों 
से ग्रसित हो रही हैं जबकी देहातों की ख्लियां इन बीमारियों से मुक्त हैं। 





आकृत्ति 88 : “'आधषणों से छुस्तज्जित एक महिला 





| 
हर 
श्र 
5 
| 
4, 
शव 


8. (पुंद [हद 
9. | चूडियां शारीरिक ऊर्बा ऋणात्मक व धनात्मक) 
0. | कम्दोस (करघनी) छोटी आंत, बडी आंत एवं उदर (एडिनल ग्लैण्ड) 


पा कस शेप के 


2 | आंख एवं बॉन्कल खुब 


3. | अंडडियां | संचार एव न्वड जरा 


4. काजल... ' मानसिक शाँति 
५ अल सैष्छ 


आभूषण न सिर्फ सौन्दर्य के प्रतीक हैं अपितु शरीर के प्रतिबिम्ब केद्धों पर 
दबाव भी डालते हैं। 


कफ 





राहत पहुँचाने की विधि 


(निशांब्श्क्रांठत 7उलाशएंव५४) 


एक्युप्रेशर चिकित्सा में गमुख बिन्दु यह है कि सर्वप्रथम सम्बन्धित रोगी ६ 
को चिकित्सा हेतु तैयार किया जाता है। “पैरों में ही वे समस्त बिन्दु हैं जो शा 
त्येक अवयव से सम्बन्धित हैं।”' 

चिकित्सा पूर्व के कार्य को ही ॥७॥७८४॥७॥ (राहत तकनीक) कहते हैं। 

रिलेक्शन तकनीक में निम्म नियमों का पालन किया जाना चाहिए--- 

मालिश (७55896)-इस नियम के अन्तर्गत रोगी को सही तरीके 
बिठाकर उसके दोनो पैरो 
एवं तलवो की जांच की 
जाती है। यह भी जांच करना 
जरूरी है कि सम्बन्धित पैर 
में कहीं घाव, चोट अथवा 
अन्य कोई जख्म न हो। 
तत्पश्चातू प्रत्येक पैर पर 
हाथों की पांचों अंगृलियों 
से तलवे के ऊपर से नीचे 
एवं नीचे से ऊपर तक 
इल्की-हल्की मालिश की 

जानी चाहिए। ऐसा 5-20 

बार किया जाना चाहिए। 





498 


2. 


एक्थुप्रेशर-स्वस्य प्राकृतिक जीवन पद्धति 


साइड. मसाज (8086 
(७55०५७)-दूसरे चरण 
मे गेगी को खड़ा करके पंजे 
की दोनो हाथों से, पंजे के 
दोनों ओर ऊपर से नीचे की 
तरफ तथा कुछ हल्के दबाव ' 
से मालिश करनी चाहिए। 
ऐसा ही नीचे से ऊपर की 
तरफ #&77 (/00९-५४५७ 
न जानी चाहिए। इस 
क्रिया को करीबन ॥5-20 

बार दोहराना चाहिए। 200 

पंजे को मोड़ना (४४5079)--इस क्रिया के अन्तर्गत पूरे पंजे को दोनों 
हाथो से इस प्रकार पकड़ें कि हाथो के दोनों अंगूठे पैर के तलवे पर रहें एवं 
बाकी की अंगुलियां पजे के ऊपर रहे। फिर दोनो हाथो से पजे को मजबूती 
से पकड़ कर हाथो को एक-दूसरे की विपरीत दिशा मे घुमाएं। यह क्रिया भी 
5-6 बार दोहराएं। 








लबे का सहारा लेकर बाकी की अगुलियो को पजे के ऊपरी हिस्से पर इस 
कार रखे कि पूरा पजा पकड़ में आ जाए। फिर इन्ही अगुलियो द्वार थोड़ा 
हुगा दबाव देकर धीरे धीरे ऊपरी अगुलियो तक दबाब देते हुए बढ़े। यह 
क्रेया 5-6 बार दोहराएं। 


आकृति 67 

अंगुठा. घुमाना (08 
निएावा9)-इसके बाद एक 
हाथ से पजा पकड़ कर दूसरे 
हाथ से पैर का अंगूठा पकड़ें, 
फिर इसको दोनों दिशाओं मे 
सीधी एवं विपरीत दिशा में 4-5 
बार घुमाये। इसी तरह अंगूठे 
को आगे-पीछे घुमाएं। 





आकृति 88 
अंगुलियाँ घुमाना (॥69/ 4009॥79)-उपरोक्‍्त विधि अनुसार शेष चारों 
अगुलियो को भी एक साथ या 
अलग-अलग घुमाये! 





जब्करी ०» श्जु ह्* 


एक्शुब्रैज्ार-स्वस्त प्राकृतिक " 


टखने को घुमाना (87/0७ 8009#795)-एक हाथ की हथेली 
एड़ी को पकड़ें, तथा दूसरे हाथ 








से पंजे को अंगुलियों की तरफ से 

पकड़ कर, पूरे पंजे को उल्टी व 

सीधी दिशा में 8-0 बार घुमाये। 

टखने से खिन्चाव (87॥28 

508० !४ााक्षों-एक हाथ की 

हथेली में एड़ी को पकड़ें तथा दूसरे 

हाथ से पजे को अंगुलियों से पकड़ 

कर पूरे पंजे की थोड़ी ताकत से मल 

ऊपर की तरफ एवं नीचे की तरफ 

खीचे इससे पूरे पांव मे नीचे की आकृति 70 
तरफ खिंचाव-सा महसूस 
यह क्रिया 4-5 बार करें। 
सारी क्रियाएं दूसरे पांव 

अब रोगी के पांव 

चिकित्सा करे के लिये 
इस प्रकार आवश 
प्रतिब्िम्ब केंद्रों पर दः 
चिकित्सा शुरू करें। 


आकृति 7] 
दबाव के प्रकार (५9७७ ० 85508) 


हल्का दबाव (#७श्ला।ह/ 
॥0०0७९॥)--कुँछ॑ नाबुक 
जाहों पर सिर्फ एक अंगुली 
या अंगूठे से बिल्कुल हल्का 
दबाव देते हैं उसे हल्का दबाव 
कहते हैं। 





कामे की खिशि श्र 


सामान्य दबाद ([एछता।& शि४55घा8)--शरीर पर काफी जगह अंगूर 
अथवा उपकरण ड्रार उठना हीं दबाव हि हद 

देया जाता है जितना रोंगी सहन कर 
सके। 





आकृति 73 

(00906 चिततुष्ष | गए 
श6७५७७/७)-एक अंगुली के ऊप 
दूसरी अंगुली रखकर फिर दोनो अंगुलि 
से दबाव देने को 00फरा8 #70 
95508 कहते हैं। इसी प्रकार ए 
अंगूठे के ऊपर दूसरा अंगूठा रखकर दब 
देने को 00908 ॥एा। 29550| 
कहते हैं। 





हलेली का दक्काय  (?कांता 
97885078)--पूरी हवेली से किसी .. 
जगह पर दबाव देने को (?&॥ग॥ 
7785508) कहते हैं। 





0/+ एकयूप्रेशर-स्वस्य प्राकृशिक जीवन पहुति 


5... दोनों हथेलियों का दबाव (078 7द्वांत्ा 27855घ७7/2)--एक हथेली 
के ऊपर दूसरी हयेली रखकर दबाव देने 
की क्रिया को 0000/9 78॥7 2855076 
कहते हैं। 


8, पूरे शरीर का दबाबथ (8009 
४७! 2855०7७)--दोनो 
हथेलियों द्वार पूरे शगैर का दबाव 
(पूरी ताकत) लगाने को 800, 
एएलंद्ा।ं 778559६ कहते हैं। 





राहत विधि-- 


एक्युप्रेशर चिकित्सा से पूर्व सर्वप्रथम 
नाड़ी संस्थान सक्रिय किया जाता है। इस 
विधि के अंतर्गत रिलेक्स' करते समय 
सर्वप्रथम बायें पैर से शुरूआत की जानी 
चाहिए। पांव को हाथ की दोनो हथेलियों के 
बीच रखकर शुरुआत में हल्के दबाव के 
साथ नीचे से ऊपर की वरफ हल्की मालिश आकृति 77 
करें जिससे रक्त संचरण की शुरूआत हो 
सके। इस प्रक्रिया मे मालिश के दौरान एक हाथ आगे की तरफ चलता रहे और 
दूसरा धीरे-धीरे पीछे की तरफ आये। शुष्क त्वचा होने की दशा में आप '0॥४8 णा' 
ठेल का प्रयोग भी कर सकते हैं। ऐड़ी के मालिश कस्ते समय पाँव को थोड़ा ऊपर 
उठाएं और चारों तरफ उपर्युक्त प्रक्रिया के अनुसार मालिश को। 

इस विधि के अन्तर्गत उपर्युक्त राहत विधि संख्या एक के अनुसार थोड़ा तीव्र 
गति से उसी प्रक्रिया को दोहराया जाना चाहिए। इसमें नाड़ी संस्थान को बल देने के 
लिए मालिश का दौर ऊपर से नीचे की वरफ भी दिया आज चऋहिएा 





राहत पहुँचाने की विधि 443 


इस विधि मे पैर की जकड़न एवं सूजन दूर करने के लिए पैर को आगे एवं 
पीछे ऐड़ी को पकड़ते हुए आहिस्ता आहिस्ता घुमाएं। यह ध्यान रखा जाना चाहिए 
कि पांव को जमीन से थोड़ा ऊपर उठाये रखे। 

उपर्युक्त विधि के अन्तर्गत पांव को हाथ मे लेकर अपने अंगूठे द्वारा दबाव 
देते हुए चागे तरफ घुमाया जाना चाहिए। इससे प्रतिबिम्ब केद्ध सक्रिय होगे और 
आ्राणऊर्जा का प्रवाह निर्विष्म चलने लगेगा। आकृति सं. 68 मे जो दबाव दिया जाएगा 
उससे हृदय वाहिनियो, थायराइड और श्वसन क्रिया को सक्रियता मिलेगी। आकृति 
संख्या 59 में दिये जाने वाले दबाव से गठिया एवं जोड़ों के दर्द मे राहत पहुंचेगी। 

आकृति सं. 70 के अन्तर्गत मरीज के दाएं पैर को पकड़कर अपनी बायी जाघ 
पर इस प्रकार रखे कि पांव की अंगुलिया एवं अंगूठे खुले रहे। इस विधि में अंगूठे 
से अंगुलियो तक बारी-बारी से पहले थोड़ा मालिश करे, बाद मे हल्के रूप से प्रेशर 
देने के साथ आगे की तरफ खीचे, फिर चारो तरफ मालिश करें। इस प्रक्रिया से 
श्वास सम्बन्धी रोग जैसे--साइनस, खांसी, जुकाम, अस्थमा इत्यादि व्याधियो मे 
राहत मिलती है। 


आकृति सं 77 में दी गई विधि से रीढ़ की हड्डी को सक्रियता मिलती है। 
कमर, पीठ एवं मांसपेशियों के दर्द मे यह विधि अत्यन्त उपयोगी है। 


सूर्य केंद्र (8097 ?95005 रि९००८४४०7) :-- 


उपर्युक्त विधि के अन्तर्गत शरीर की महत्वपूर्ण प्राण ऊर्जा का प्रवाह निर्बाध 
रूप से मस्तिष्क की ओर प्रवाहित होता है जिससे मनुष्य की जटिलतम समस्याएं 
जैसे मानसिक तनाव एवं निष्क्रियता सम्बन्धी व्याधियों में आश्चर्यजनक रूप से राहत 
मिलती है। 


अंगूठे से ददाव (00॥0 7855७॥४) :- 


इस विधि के अन्तर्गत पांव के तलुए में ऊपर से नीचे की ओर प्रेशर दिया 
जाता है। यह ध्यान रहे की अंगूठा बिल्कुल सीधा रखकर दबाव दे। इस प्रक्रिया से 
हृदय एवं यकृत के सभी संस्थान सक्रिय रहते हैं। 
नाभिचक्त से सम्बन्धित राहत विधि :-- 


इस विधि के अन्तर्गत आभिचक्र से सम्बन्धित समस्त व्याधियों में शहत मिलती 
है इसमें अगूठे को केड़ा मोड़कर सम्बन्धित केन्द्रों बर दबाव देत॑ है नाभिचक्र के 


॥6 





साथ-साथ श्वास, दमा जैसी समस्याओं का भी निवारण छेता है। 
एड्डी के घुभाव की प्रक्रिया :-- 

इस विधि के अन्तर्गत एड़ी के चारों तरफ प्रेशर दे जिससे शारीरिक थकान 
एवं घुटनों के दर्द में राहत मिलती है। इस विधि में एड़ी से पिंडलियों तक दबाव 
दिया जाना चाहिए। 
पाधन संस्थान, गुर्दे सम्ब्धी व्याधियों में राहत पहुँचाना :-- 

इस विधि में चित्र के अनुसार पांव में मुट्ठी के द्वाए 'आटा गुंथने की' विधि 
द्वारा दबाव दिया जाता है। इससे शरीर के पाचन संस्थान के समस्त रोगों ((॥॥9 
70005) गुर्दे सम्बन्धी गेगों में अत्यन्त लाभप्रद है। 
पुरुषों की गुप्त व्याधियों में राहत विधि :-- 

इस विधि के अन्तर्गत पाँव को एक हाथ से पकड़कर एड़ी से पंजे के चारो 
ओर दबाव दिया जाता है जिससे पुरुषजनित व्याधियों में सुधार होता है। 
ख्ीजनित व्याधियों में राहत विधि :-- 


इस विधि के अन्तर्गत उपर्युक्त प्रक्रिया के अनुसार दबाव देने से ख्री रोगो 
जा धर्म में रुकावट, अधिकता, श्वेत प्रदर, थकान इत्यादि शेगों मे राहत 
मिलती है। 





शर चिकित्सा में प्रयुक्त होने वाले प्रमुख 
उपकरणों का परिचय एवं उपयोग 
धषाण) & ४॥॥/ ता #०097४55078 ॥#8 7 0॥9785) 


7र चिकित्सा में कुछ विशेष उपकरणों की सहायता से गेगी स्वयं ही 
: कर सकते हैं। ये उपकरण जहाँ आसानी से काम में लाए जा सकते 
तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बने होने के कारण दुष्प्रभाव भी नहीं छोड़ते। 
पकरण निम्न प्रकार हैं। 


- (?ठछाश कै) २-० 





448 एछयुग्रेशार-स्वस्थ प्रांसिक जीवन एद्भति 


पावर प्लेट पर दोनो पाँव रखकर 4-5 मिनिट कदमतार (४४०॥१॥७) करने 
से पांवों के सभी अ्तिबिम्ब केन्द्र स्वतः ही दबते हैं। सुबह पांच मिनट किया गया 
कदमताल आधे घंटे के व्यायाम के बराबर सिद्ध होता है। 
इसके नियमित प्रयोग से-- 
शरीर में नई ऊर्जा एवं स्फूर्दि का संचरण होता है। 
शरीर में रक्‍त-संचरण का प्रवाह निर्दाध बना रहता है। 
शरीर की गरेग प्रतिरोधात्मक शवित प्रबल होती है। 
इसके नियमित प्रयोग से अन्तःझ्लावी अंधियाँ नियमित एवं सुचारु रूप से कार्य 
करती हैं जिससे शारीरिक संतुलन स्थापित होता है। 
5... एड्जी-पंजों के दर्द, शियाटिका, घुटनों के दर्द तथा मोटापा कम करने में विशेष 
उपयोगी है। 


एनर्जी रोल (हा।श्ाएुफ निक्ीक्षी) ० 


जिस तरह पांवो में ग्रतिदिम्ब केन्द्र होते हैं उसी तरह हाथों में भी शरीर के 
सभी अंगों के प्रतिबिम्ब केन्द्र स्थित छोते हैं। एनर्जी गेलर को दोनो हथेलियो के बीच 
रखकर घुमाने से यह 
सभी प्रेशर बिंदुओं पर 
समुचित दबाव दे देता 
है जिससे हाथों की 
अकड़न, साइनस, 
के उपचार में सहायता ०, 
मिलती है। पिशामिड 
प्लेट पर कदमताल 
हवेलियों में घुपाना 
चाहिए। यह थकान 532 
और दर्द को तुरंत दूर करने के साथ ही अ्तित्रभाव-रहित भी है 


४ ७ थे :* 





एक्युप्रेशर चिकित्सा में प्रयुक्त होने जाले प्रमुख उपकरणों का परिचय हद॑ उपयोग. ॥१7 


स्पाइन रोलर (59॥8 पिणाछः शांत 4 सिश्तु॥88) :-- 


चुम्बकीय स्पाइन 
गेलर में लगे मेग्नेट दर्द 
को दूर करने के साथ ही 
शरीर में चुम्बकीय ऊर्जा 
का संचार भी करते हैं जो 
रक्‍त-संचरण को निर्बाध 
बनाने में सहायक हैं। 
मरीज की उल्ह लिया 
कर इस गरोलर को कमर 
में चलाने से सरवाईकल 
स्पोन्डोलाइसिस, कमर में 
दर्द एवं जकड़न, 
शियाटिका दर्द में विशेष 
आराम मिलता है। इसी 
प्रकार पांवो के पृष्ठ भाग 
में नितंबी से पिंडलियो तक 
चलाने से यह गेलर घुटनों 
के दर्द तथा पिंडलियों के आकृति 80 
दर्द में भी लाभदायक सिद्ध होता है। 





फुट रोलर (कृपा चक्र) [7008 पछ&/) :-- 


टी १ पाँवों के बिंदुओं पर सामान्य प्रेशर 
री देने के लिए फुट रेलर का उपयोग किया 
जा सकता है। कुर्सी अथवा स्टूल पर 
बैठकर गेलर को जमीन पर रखकर पांवो 
के पंजे इस पर चलाते हैं जिससे पंजो 
को उपयुक्त प्रेशर भी मिल जाता है तथा 
स्फूर्ति बनी रहती है। 





(पूछ एक्युब्रेशर--स्थस्थ जाकृविक 
औशिक काला/सेल्फक मसाजर (6 0 शिक्ष७$8090") :-- 


जैस कि नाम से विदित 
है इसकी सद्धवता से आप स्वयं 
ही शरीर पर मम्ताज कर सकते 
हैं। गर्दन की अकड़न, कच्चे 
एवं पीठ दर्द, हाथ मे दर्द, बाजू 
की नम्त का दर्द हयने के लिए 
इसे दोनों हाथों में थामकर गर्दन, 
कंधे व पीठ के चारों ओर 
घुमाया जाता है। 





आकृति 82 


पिरामिड रोलर 
विताक्ष/ दतश ५५ 
निक्षात।8) :-- 


इस रोलर को 
सहायता से पकड़कर 
पैरों के पंजो तथा हाश् 
से सभी प्रकार के द 
आराम मिलता है। बच्च 
विकास के लिए एनः 
हैण्डल द्वारा पूरे शर्र, 
की जा सकती है। 
पोलियो की चिकित्सा 





में ध्रधुकत्त होने वाले प्रमुख उपकरणों का परिछय शव उपयोग 


३ (भिर्धा9)85% शिक्लेडडश्0छ हा) ३-- 

_ व्हील्स से बना यह रोलर चलने में बड़ा लचीला होने के कार 
? भाग पर आसानी से चलाया जा सकता है। कमर दर्द, गठि 
, कैच एवं बआाजू के दर्द के उपचार के साथ-साथ यह शरीर 
़रता है जिससे तनाव एवं थकान दूर होकर नई स्फूर्ति का संच् 
| तात्पर्य है कि पाँच से दस मिनट इस रोलर को चलाकर श 
उकान को मिटाया जा सकता है। 





आकृति 84 


3४) $-- 

पैरों के तलुवे में स्थित प्रतिबिम्ब केद्रों पर जेशर देने के लिए 
उपकरण है। इस छेद में विभिन्‍न प्रकार की जिम्मियाँ उपलब्ध 
भी सिद्ध हो सकने वाली जिम्मी का घित्र नीचे दिया गया है। ! 
ग्रेशर पाइन्ट्स पर दबाव दिया जाता है तथा मोटे पाइन्ट वाले 
प्र ३3 जा सकते हैं। इसे एनर्जी रोलर की तरह इथेलियों के 
सकता 


एक्यप्रेशर-स्वस्थ प्राकृति 





आकृति 85 
न जिम्मी (एशशं०व) जता पिछीछ) :- 


रामिड रोलर से छोटी होने के कारण इसे 
से शरीर के नाजुक हिस्सों (गर्दन के पीछे, 
पैरो की अंगुलियों, कलाई तथा एड़ी) पर 
से चलाया जा सकता है। 


ल (४#एाक्‍क्श म0॥/ छा9 / 80 / 


. ाााओ 





गठिया और पैराल 





प्रैशार चिकित्सा में प्रचुक्ता होने वाले प्रमुक्क उपकरणों छत परिक्य इस उपयोग 2 


म लाभ जाप्त किया जा सकता है। पोलियो के वे रोगी जो पिशमिड प्लेट पर 
होने में असमर्थ हों वे भी कुर्सी पर बैठकर वंडर रेल का उपयोग कर सकते 


र एक्सरसाइजर :-- 
€४(% कलाई में दर्द होने अथवा हथेलियों और अँगुलियो 


चित्राइसार दबाना चाहिए। 


वि 5 एशए धडठ्हाफां ॥ 0888 छा लाएऊईंएजा, 
॥8808&0॥8 शाएं ॥क्षए0५३8855. 





आकृति 88 
बॉँवर चुम्बक ((.09 ?0शक्ष शिक्षतादा-- शी) 

गेगियों की सुक्धि के लिए इस चुम्बक के अलग-अलग घुवों को लाल एवं 
| रंग से प्रदर्शित किया गया है। लाल रंग वाला भाग दायीं ओर तथा नीले रंग 
॥ भाग शरीर के बायी ओर के प्रभावित हिस्सों पर लगाने से आराम मिलता है। 
कि का लाल रंग वाला भाग उत्तरी घृव तथा नीला भाग दक्षिणी भ्रुव को इंगित 
ग्है। 


ध्कीय नी केप (((766 0980-- 7?) :-- 


घुटनो के दर्द, घुटनों का आर्थराइटिस तथा जोड़ों की 
सुजन होने पर इस बेल्ट को घुटनो पर 5-20 मिनट बाँधने 
से कुछ ही दिनों में विशेष लाभ मिलता है। 


बेद एण्ड बेली बेल्ट फवकाआ५ छा) :- 


येट और कमर सम्बन्धी 
तकलीफों के लिए विशेष प्रकार का 
आकृति 89. उन्बकीय बेल्ट होता है जिसे 5 
30 मिनट तक बांधा जाता है। पेट सम्बन्धी विकार, गैस, 
में में सृजन, भूख न लगना, घोटाषा कम्र करने के लिए 
येट की तरफ करके बाँधते हैं त्था कमर दर्द होने पर 
कमर मे बॉधते हैं। 





22 एकयुप्रेशर-ध्थर्त प्राकृतिक जीवन पर्ुरि 


ध्वब्क्रीय हार (४8८8) २-- 
| [8 ४०७श:2 ब१ 82:07 रब :--- 
4. एधत४॥७:७४. 
2. ५६(४६ 
3, ।4४500 
4. ॥॥8९॥४७५ है. मिल 
8. छर६#।॥॥45 आकृति 9। 
6. #ध#ता 





रक्तचाप बैल्ट (8.9. फ्रद्वणा) -- 

रक्तचाप बैल्ट, उच्च एवं निम्न रक्तचाप दोनों की सामान्य करने मे मदद कर 
है। उच्च रक्तचाप में बैल्ट को दाहिने हाथ की कलाई पर बांधें। 

निम्न रक्तचाप मे--बैल्ट को बाएँ हाथ की कलाई पर बांधें। 

उपयोग का समय--खतचाप सामान्य होने तक नियमित प्रयोग करे। आवश्यव 
पड़ने पर पूरे दिन भी पहन सकते हैं। 


०08 : ॥#5 ७रद्याज) 0085 70 9099 ५४097 8॥000 2855प8 
॥6, 


चुम्बकीय चश्मा (9977270 ६5५७ ८७) :-- 
१98 ४०३80।8 40[--- 
(0 208 9809 
+77 5शाईणा४ 0 ॥0ए॥. 
४९६७॥ 50॥89655 
द्वा अंतरा0७0॥855 
छ७शलाशओं। १0४४६) 


क्‍988---5 चिंगा्पा25 (४४०0 785 
8 99४, ०) ज 085९४ ६५४९६. 





आकृति 92 


एक्युपेशर खिकित्सा में अचुक्त होने वाले प्रमुख उच्छछरणों का परिणय एवं उपयोग  24 


ट्रिबस्टर (छदतए फलिएाए। डिलर्ता०एडा प56--शक्षि/दराए) २ 


वश/ंडफाक 8 3 67 शरद, 0739, 70080॥ >(छालउश, ा।एं 
988 ॥0 ॥#7॥0४8 &४08४५ हि. 


58,852 शी नैछछ/ शीत +8वा. 


विभिन्‍न एक्यूप्रेशर पाइन्ट्स पर इस वाइब्रेटर की सहायता से उपचार दिया जा 
सकता है। विशेष तौर पर मसाजर विद्‌ हीट का उपयोग जोड़ों-की सूजन तथा कमर 
दर्द आदि दूर करने मे भी किया जाता हैं। 


5&%7£7५ ॥/७58#05६£# 08 :-- 


श् 


800 /९॥85 

8# 0॥79. 

इ0#श्ा।8, टाशा॥05. 
वाशभाएं।तु ॥9 राई 8 
न्छ्चिाएएु निक्षा 

्रि.॥0४५85 308 ॥8 
॥१५9एणा9ाक्षि 


8फक्ा।5 


ऋ्क्क 








रोग और उनके उपचार बिन्दु 


(658 एा8 २6775 [07 0॥588525) 





चर 0. छि चन+ 


ं। 


१0. 


है 


शेग संबंधित दाल खिन्दू 

ऑपेन्डिक्स आईवाल्व, डायफ्राम, सोलर 

अलर्जी आईवाल्व, ओड्रीनल, एक्स पोईन्ट्स, पिच्युटरी 

एनीमिया स्लीन, लीवर, के. यू. बी. 

अनगजाईना पेक्सेरिस हार्ट, लेंग्न, सरवाईकल, थोरेसीक, सीगमोईड, डायफ्राम, 
सोलर 

आर्थराईरिस जी पी. रेफरल, रिप्लेक्स एरिया, जी. एल. 4 

अस्थमा चेस्ट पोहन्ट लंग्ज, एड्रीनल, आईवाल्व, डायफ्राम, बोन्केह 


दयूब, इन्ट्रास्केप्यूलर, सायनस नेक पीट पॉइंट्स 
टखने की सूजन. किडनी, ओड्रीनल, लीफ रेफरल एरिया 


मुहांसे लीवर ऑंड्रीगल, जी. एल 4, के. यू. बी , इन्टस्टाईन, 
थावराईड, डायफाम 


अडीनोईडज एम. ओ.., ग्रेट ये, पिच्दुकी, लिम्फ, थाईराईड, पेराथायराईड 
अस्कोहोलिज्म लीवर, पेक्रीयाज, डायफ्राम, ओड्ीनल 

छ्थ में दर्द एम. ओ. नेप, सोल्डर, स्केप्युला, आर्मपोईन्ट, सरवाईकल 
दे की कार्दी में पेस्ट लंम्द, मेयटरसल पिच्युटरी बायराईड 


नेक उफ्सार । "५ 


ब्लेडर, किडनी 
प्रोब्लम 


बर्साईटिस सर्व्हाय- 
कल स्पॉडेलायटीस 


बिस्तर गीला करना 
380 ४४४१४ 


चेहरे का पक्षाघात 
शास में बटनू 
ब्ोन्काईटीस 


कोलन सूजन 
कोलावदीस 


कब्जिञत 
कॉन्स्टिपेशन 


क्रेग्प्स 


पीठ में दर्द 


मोतियाबिन्द, 
कैंटरकर 


बच्चो में शास की 
तकलीफ, आवाज 
स्ली आने लगे 


सीरोसीज़, लीवर का 
सीरोसीज 


सरवाइकल स्पोन्डे- 
लाईसीस 


पाँव के तलवे में 
कील केंलिगिस कॉर्न 


सर्दी (200) 
बच्चों के ग्ेग 


के यू. बी, ओेड़ीनल, लोआर स्थाईन, लिम्फ, जी एल. 4 


ओक्सीपीठटल, स्केप्युसा, हाथ के पोई-ट, सोल्डर का रिफ्लेक्स, 
स्लीन, टो-देवीस्टीग 
के. यू बी, डायफ्राम, लोअर स्पाईन, पिच्युटरी 


सरवाईकल, सावनस, बिग टो, ओक्सीपीटल 

स्टमक, लीवर, इम्टेस्टाइन, सायनस, लिम्फ, बिग टो 
चेस्ट, लंग्ज, आईवाल्व, ओड़ीनल, डायक्राम 

कोलन, लीवर, ओेड्रीनल, लोअर स्पाईन, डायफ्राम, गालब्लेडर , 


लंग्ड 
ओड्रीनल, लोभर स्पाईन, सीग मोईड, आई वाल्व, स्टमंक 9 
पोइन्ट्स, डायक्राम 


ओक्सीपीटल, सोल्डर, स्केप्युला, हिप, नी। शिवाठैका, लोअर 
स्पाईन, पेराथावराईड, ओड्रीनल। 


भेटाटार्सल, डायफ्राम, जी. एल. 4 


आई रीफ्लेक्स, नेक एगीया सरवाइकल, आँख के लोकल 
पॉइंट्स, टो पॉइन्ट्स, के. यू. बी. 


डायफ्राम, ब्रॉंकीअल दयूब, आईं वॉल्व, चेस्ट लंग्ज, ओल 
शोब। 


लीवर, गाल ब्लेडर, जी. एल. 4, एक्सपोइम्ट, पेनक्रीयाज़, 
सलीन, आई बॉल्व, लिम्फ, के. यू बी. 


सोल्डर पॉइन्ट्स, आर्म पॉइन्ट्स, इम्ट्रेस्कोप्पुला, स्पलीन 
ये-टवीस्ट, रिफ्लेक्स पॉइन्ट्स 


जी एल. 4, एक्स पॉइन्स 


चेस्ट, लंग्ज, ओेडीनल, इन्टेस्टईन, पिच्युटरी, लिम्फ 
ऑल ग्लैण्ड्स, डायफ्राम 


मानसिक उदासी 
डिप्रेशन 


डायबीटीज़ या 
मधुमेह 
पाचनतंत्र की 
तकलीफ 


सूखी और तैलीय 
त्वचा 


पेचिश (डायोरिया) 


बहरापन--कान के 
रोग (डेफनेस) 


चक्कर आना 
दिमागी सृजन 


फिदस, (एपिलेप्सि) 
एडेगा, फ्लुईड 


रिटेन्शन 
आँख की प्रोब्लम 


कान का दर्द 
एग्शिमा 
मूर्छित होना 


नसों में चरी की 
पहँँ जमना 


गेस 


हड्डी का टूटना - 
अध्थिभंग 


एक्यग्रेशर-स्वस्द प्राकृतिक जीन एप: 
पिच्युटरी, स्लीन, सोलर, लीवर, डायफ्राम, एड्रीनल 
जी. एल. 4, पेनक्रीवाड, लीवर, गाल ब्लेडर, इन्टेस्टाइन 


लीवर, गाल ब्लेडर, स्टमक, इन्टेस्टाइन, डायफ्राम 


थायराईड, ओड्रीनल 


ओसेडींग कोलन, डायफ्राम, लीवर, ट्रान्सवर्स कोलन, अड़ीनल 


इयर रिफ्लेक्स, सरवाईकल, नेक की बगल, बिग यो की 
बगल, धोट, नेक 


नेक की बगल, इयर रिफ्लेक्स, सरवाईकल 
जी. एल. 4, लिम्फ, ब्रेन पॉइन्ट्स 


डायफ्राम, कोलन, आईवाल्च, स्थाईन, नेक का भाग, जी. एल 
4, एम ओ. 


लिम्फ, के. यू. बी., एड्रीनल 


आईं रिफ्लेक्स, नेक एरिया, सरवाइकल, ओल टोज, पिच्युटरी, 
के. भू. बी. 


इयर रिफलेक्स, ओल टोज, धोट, नेक 

लीवर, ओड्रीनल, कीडनी, इन्टेस्टाईन, बायरड, डायफ्राम 
पिच्युटरी, एम. ओ., नोज पोइन्ट, सायनस लास्ट प्री पॉइन्ट्स, 
लोकल 


धायरोइड, पूरे पाँद के तले में पॉइन्ट्स, जी. पी. 


इन्टेस्टाईन, स्टमक, लीवर, गाल ब्लेडर, पेन्क्रीयाज 
रिफ्लेक्स व रेफरल पोइन्द्स 


उनके उफ्चार घिखु 


ग्लुकीमा 

पिताशय की प्रथरी 
गाउट 

सिरदर्द 


हेमरोइड्स 
(पाईल्‍स) , 


हीप (ढुल्हे) 


हाईपरटेशान, 
हाई ब्लड प्रेशर 


हिचकी 


इंटय रोग, हार्डमिंग 
ऑफ आर्टरीज 


हाई कोलेस्ट्रोल 
(+09# 
()09$#0]) 


लो बी. पी. 
(हायपो-टेन्शन) 


हे-बुखार 


घेट का हर्मिया 
हीयेटस निया 
हाईपोनलोसेमीया 
बुटरस का ऑपरेशन 


अपचन 


वीर्यशक्ति में कमी 
(ईंपोरटैन्सी) 


हा 


आईरिफ्लेक्स, धोट, नेक, ओल टोज, के. यू. बी., डायफ्राम 
चायराइड, गाल ब्लेडर, लीवर 
के. यू. बी. और रिफ्लेक्स पोइन्ट्स 


बिग टो, सायनस, सोलर, स्पाइन, जी. एल. 4, क्ाउन 
पोइन्ट्स, एक्स पॉइन्ट्स 


हेमगेइडस, एड्रीनल, सीभमोइड, लोअर स्पाइन रेक्टम 


झीपनकल, फिपंद जोन, मेटाटारसः: 


डायफ्राम, के. यू. बी., पिच्युटरी, एड्रीनल, धायराईड, एम. 
ओ. नेप, इक, फर्क, ध्रोट, मिड फिनार 


डायक्ाम, इस्टेस्टाईन, स्टमक, सोलर, इन्द्रास्केपुलर 
लंग्ज, हर्ट, डायफ्राम, सोलर गेस्ट्रोइस्टेस्टाईन 


थायराईड, लीवर, गाल ब्लेडर 


एड्रीनल, पिच्युटरी, धाययहड, एम. ओ. ओवसी-पीथल, 
शोल्डर, 


आईवाल्य, ओल टोज, जी. एल, 4, कोलन, वेस्ट, लंग्ज, 
एक्स पाइन्ट 


शोहने एरिया, कौलन, एड्रीनल 

डायफरम, स्टमक, एड्रीनल 

पेक्रीयाज, लीवर, गांले ब्लेडर, डायफ्रम 

द्यूब 

इन्टेस्टाइन, लीग, भाल ब्लेडर, अप, सकक 

एक्स पइर, जी. एल. 4, स्फान, रख खिलेवल, सयक्रम 


बजर्ता 


(्पर्टिलिटी) 


अनिद्रा 
इन्सोम्निया) 


पीलीया - 
(जॉन्डिस) 


गेग संक्रमण 
इन्फैक्शन 


भथरी, 
किडमी स्टोन 


कमर का दर्द 
मेनीमजाईटीस 


रीढ़ मैं/दिमाग में 
रक्त जमना 


भायोस्वेनीया ग्रेवीस 
माईगेन 

क्ीरोग (मेनोपॉज) 
आर्दव एंठन 
सैन्स्टुअल क्रेंग्प) 
आर्तव प्रोब्लम 
'मेन्टटूअल प्रोब्लेम) 
नाक के रोग 


शक्युप्रेशार--श्यस्थ प्राकृतिक जीवन घः 
एक्स पॉइन्ट्स, स्पाईन रिफ्लेक्स, जी एल 4, डायफ्राम 
सावनस, स्पाईन रिफ्लेक्स, ओल ग्लेन्द्स, एक्स पाइन्ट 
लीवर, गाल ब्लेडर, घ्लीन, स्टमक, आईवाल्व 
ओड्रीनल, जिस भाग को लगा उमके लिम्फ, जी, एल 4 
के. यू. बी , डायफ्राम, पेराथाइराईड 


बेक प्रेशर, के. यू बी., स्पाइन रिफ्लेक्स 
बिग थो, हील, स्पाईन, जी. एल 4, एक्स पाइन्ट, लिफ 


स्पाईन, जी. एल 4, एक्स पाइन्ट, डायफ्राम, लिम्फ, ब्रेर 
पोइन्ट 


ओड्रीनल, पेराथाइराईड, बेक प्रेशर 

हेड पोइन्ट, बिग टो, लीवर, गाल ब्लेडर, सोलर 

जी एल 4, धायराईड, डायफ्राम, लोअर स्पाइन, एक्स पाहुर 
एक्स पाइन्ट, लीम्फ, लोअर स्पाईन, के. यू बी , डायफ्राम 


एस पाइनट, लिंग्फ, प्लेटफार्म पोइन्ट, स्पाइन रिफ्लेक्स 


सायनस पोइन्ट्स, बिग टो, आईवाल्व, ओड्ीनल, चेस्ट ल॑ः 
सरे पोइन्ट्स, रेफरल रिफ्लेकस, लोकल 

ओल ग्लेड्स, लोअर इस्टेस्टाइन, किडनी, डायफ्राम, हार्ट 
लिम्फ, आईवाल्व, एड़ीनल, डायफ्राम, चेस्ट, लंग्ज, इन्टेस्टाई- 


आल ग्लेण्ड्स, स्पाईन, लिम्फ, जी. एल 4, लम्बर स्पाइन 
एड्स पाइन्ट 


0+3+8+3 चौथा फानवां खोेन मेटंटरसल 


चर 7 र-म्जरम्परानितल ६३० प्रधाशाफफकीएा 7. रा 


रोग और उनके उप्याद 'किन्‍्दु 


84. 


85. 


86 


87. 
88. 


89, 


90 
58| 


92 


छठ 


94, 
95. 


98. 


छा 


छ8. 
99. 


सोरायसीज 


(9807088/8) 


पघ्लुर्सी 


प्रोस्तेट प्रोब्लम 
जवचा पर खुजली 
सावनोसायटिस 
मम्त्स मे 
वाइब्रेशन्स, स्पाञझम्‌ 
स्लिप्ड डिस्क 

अंगो पर दबाव के 
कारण दर्द (50800) 


अवयवा की क्रिया 
का बंद होना, मेन 
हेमरेज के चिंह 
(50०७8) 

आँख की बिलनी, 
स्टाय 


कम्बे के दर्द 


शारीरिक 
इन बोलेन्टरी कंपी 


गले में दर्द - काकल 
टॉसील, शोअर 
थ्रोर) 

अनियमित धड़कन, 
कम, अधिक 
अचानक झो 

कान में आवाज 


चेहे पर आगे के 
ज्षाग में नर्व का दर्द 


429 


थायराईड, ओड्ीनल, लीवर, इन्टेस्टाईन, डायफ्राम, के. यू 
बी., जी एल, 4, एक्स एहन्ट, दूसरा ओन, रिलेंक्स 


लिमग्फक, आईवाल्व, ओड़ीनल, जी. एल, 4, एक्स पाइनट, 
डायफ्राम, भेस्ट, लग्ब, गैस्ट्रो इन्टेस्टाईग 


एड्स पॉइट्स 
ओड्रीनल, लीवर, डायफ्राम, के. थू वी 
सावनस पॉइंट्स, ओलगेज, आईवाश्व, ओड्रीग्ल, चेस्ट, लंग्ज 


हार्ट, लग्ज, सरवाईकल, व्थोरेसीक, सीगमोइड, कोलन, 
डवफ्राम 


रिफ्लेक्स स्थाईन, बेक प्रेशर 
फ्लेक्स एरिया पाँव पर और रेफरल एरिया 


शेष ऑफ बिग ठो, अपोजीट रैफरल एरिया), साइड के 
रीरिपलेक्स पॉइंट्स 


आइ रिफ्लेक्स, शरे टो के नेक एरिया 


शोल्डर लोकल रिफ्लेक्स, थे गेटेटिंग दो दवीस्टिंग 
साईन, डायफ्राम, एक्स पॉइिंट्स 


लिग्फ, ओल येड, बेक, साईकल, ओड्ीनल 


ओड्ीनल, हार्ट, सरवाईकल, थोगेसीक, थायराईड 


इअर रिफ्लेक्स, सरवाइकल; बिग ये, नेक 
जेष ओरीया, संस्वाईकल, डायफ्राम, के. यू. थी 


॥39 


400. 


१0. 
02. 
१03. 


404 


405 


]07 


08. 


॥॥9. 


खा पर ज्ञाल व 
ब्राऊन दाग पड़ना 


जवान, जीभ 
दाँत में दर्द 
शियाटिका 


पीठ के बीच के 
भाग में दर्द 
अल्सर 


रक्त में नाइट्रोजन 
टोक्सीन युरिमिक 
वर्टीगो 

वेरीकोज वेन्स 

कफ होना, वमन या 
उल्टी, मोशन 
सिकनेस 
(प्रणव) 
श्वेत प्रदर (#॥॥08 
एॉंब्टछा88) 


एकशुब्रेशार--स्वस्द प्राकृतिक जीवन पद्धति 
जी. एल. 4, इम्टेस्टाईन, लीवर, होल ग्पाईन, एक्स पॉइट्स 


बिग थो, नेक एरिया, जीभ के पोइन्ट 
ओलगेज, नाखून के नीचे के हिस्से में दबाना 


0+3+8+3 के सांथ कोसीवजियल, शिवाटीका रिफ्लेक्स, 
हीप पोइन्ट्स, लिम्फ, लम्बर स्पाइन, के यू. दी., हेमोरोईड्स, 
एक्स पॉइंट्स 

स्वाइंन, सोलर प्लेक्सस्‌ 


अल्सर रिफ्लेक्स, डायफ्राम, स्टमक, स्प्लीन, इन्टेस्टाईन, लिम्फ 
के यू. बी., एड्रीनल, लिम्फ 


इअर रिफ्लेक्स, नेक एरिया, सरवाईकल, बिग टो 
कोलन, लीवर, एड्रीनल, रेफरल एरिया हाथ पर, हेमरोईड्स 


इअर रिफ्लेक्स, डायफ्राम, सोलर, गेस्ट्रो-इन्टेस्टाईन, नेक, 
स्माईन 


प्लेटफोर्म पोइन्ट, एड्स पोइन्ट्स, के: यू. बी , लिम्फ 








आहार चिकित्सा (96805-:078) 





अन्न ब्रह्म का मानव देह से सम्बन्ध : 


मानव को प्रभु का पुण्य प्रसाद माना गया है। किसी ने कहा है कि “जैसा खाते 
हैं अन्न, वैसा होता है मर” अतः जब आहार शाग्रैरिक, मानसिक और आध्यात्मिक 
पुष्टि का साधन छोड़कर केवल इन्द्रिय-तृष्ति और विलास का साधन बन जाता है, 
तब वह खाने वाले को ही खा जाता है। अर्थात्‌ उसका आध्यात्मिक पतन प्रारम्भ हो 
जाता है। वस्तुत- आज के भौतिकवादी युग में यही हो रहा है। यही कारण है कि 
मानसिक शांति से हम भटक रहे हैं। वस्तुतः हमें जीवन मे जीने के लिए खाना है 
ने कि खाने के लिए जीना है। स्वस्थ शरीर बनाए रहने के लिए उचित मात्रा मे 
सात्तिक आहार लेना जरूरी है। 

भारतीय संस्कृति में वैदिक काल से ही संतुलित जीवन जीने का महत्व देते 
हुए अन को देवताओं की तरह पूज्य माना गया। किसी भी अन्न को हमारी शास्त्रीय 
मर्यादाओं में अपमानित करने की बात नहीं बताई गई बल्कि उसके प्रति पूजाभाव 
दर्शाया गया है। भोजन हमारे लिए कुछ भी खा-पीकर पेट भरना नहीं अपितु यज्ञ 
समान है। 

हमारे प्राचीन धर्मग्रन्थों में महर्षि मनु ने मनुस्थृति में पंच महायज्ञों की पूजा करने 
की राय दी गई है। ये पंच महायज्ञ हैं--बरह्यज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयह्ड, देवयज्ञ एवं 
मनुष्ययज्ञ। 

वेद शास्त्र अपने घर्मग्रन्य ज्ञान-विज्ञान का साहित्य पठन-पाठन, संध्या उपासना, 
गायी मत्र या अपने इष्ट की बच्चा या ऋषि यज्ञ है 


432 एक्थुप्रेशर--स्वस्थ प्राकृतिक जीवन पद्धति 


नित्य यथाशब्ति शआद्ध, तर्पण पितृ यज्ञ है। हवन देव यह है। बलि भूत यज्ञ है 
और अतिथि सत्कार मनुष्य यज्ञ है। जितना भी सम्भव हो उतना इनमे से करने के 
बाद ही शांतिपूर्वक भोजन करना चाहिए। 

कई लोग शंक्ता-भरा प्रश्न करते है कि उनकी जरूरत क्या है। मनुस्मृति मे 
महर्षि मनु ने स्पष्ट कहा है कि 'गृहस्थ के घर नित्य त्रति चूल्हा, चक्की, झाड़ू चलने 
फिरे से, जलने, दबने आदि से मरने वाले प्राणियों के पाप की निष्कृति के लिए 
इन क्रियाओं की पर्याप्त महत्ता है। इसलिए ये हर रोज आवश्यक हैं। देव यज्ञ से 
देवताओं की, मनुष्य यज्ञ से मनुष्यों की और भूत यज्ञ से भूतो की परितृप्ति भी होती 
है। पितृ तर्पण मे भी देवता, ऋषि, मानव समुदाय, पितर और सम्पूर्ण भूत प्राणियों 
को जलदान करने की विधि है। हमारे यहाँ की इस परम्परा से पहाड़, वनस्पति और 
शत्रु आदि तक को भी जल देकर तृप्त किया जाता है। 

देव यज्ञ में अग्नि मे आहुति दी जावी है। वह पर्दावरण स्वस्थ करती हुई सूर्य 
को प्राप्त होती है और उसी के बल से सूर्य से वर्षा, वर्षा से अन्न, वनस्पति, फल-फूल 
और पूजा की उत्पत्ति भी होती है। 


भूत यज्ञ मे अग्नि, सोम, इन्द्र, वरुण, मरुत तथा विश्वदेवों के निमित्त आहतियाँ 
एवं अन्ग्रास की बलि दी जाती है। सर्वत्र सुख-शांतिमय वातावरण के लिए सभी 
की परितृप्ति का भाव इसमें समाहित है। 


मनुष्य यज्ञ में अपने घर आए हुए अतिथि, साधु-सन्त, विद्वान आदि का सत्कार 
करके यथाशक्ति भोजन कराया जाता है। यदि भोजन कराने की सामर्थ्य नही भी हो 
तो बैठने के स्थान, आसन, दूध, चाय, जल प्रदान करके मृदु वचनो से उनका कुशल 
क्षेम पूछकर स्वागत अवश्य करना चाहिये 


सबको परितृप्त करके भोजन करना ही अभीष्ट है। यही विश्व-बंधुत्व की भावना 
को ज़ीवन में व्यावहारिक रूप से परिपृष्टकारी एवं मंगलकारी है। भगवान श्रीकृष्ण ने 
गीता मे एक जगह कहा है कि-- 


हमें स्वाध्याय और अपनी पारिवारिक धर्म-परम्पस के अनुसार पूजा-अर्चना तथा 
अन्य धार्मिक अनुष्ठानो से ऋषियो और देवताओं का तर्पण और श्राद्ध से पितरों का, 
अन से मनुष्यो का और बलि कर्म से सम्पूर्ण भूत प्राणियो का यथा-योग्य स्वागत 
सत्कार कला चाहिये। सबको भोजन देने के बाद शेष्ष बचा हुआ आहार यज्ञशिष्ट 
होने के कारण अमृत के सगान तृप्तिकारी माना गया हैं हमारों जीवन पद्धति में 


आहार चिकित्सा 433 


सनातन व्यवस्था मे ऐसे ही अन को खाने योग्य माना गया है जो भावना से सबका 
द्वित चाहने वाला हो, वही हितकारी है। इस पद्धत में स्वार्थ त्याग की बात हो पद 
में ही बतलायी गयी हैं। 


आहार शुद्धि :- 


हम कब क्या खाते है, कितना और कैसे खाते हैं, वह किस तरह से अर्जित 
है। इन सभी बातो पर भी ध्यान रखना जरूरी है। छाम्दोग्य उपनिषद मे कहा गया हैं 
कि व्यावाहरिक रूप से देखें तो प्राणी के नेत्र, श्रोत, मुख आदि के द्वार आहारणीय 
रूप, शब्द रस आदि विषय रूप आहार से मन्र की शुद्धि छोती है। 


भोजन कैसे करें :-- 


प्रश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण में हम जल्दी-जल्दी में जो मिला, जैसा मिला, 
जैसे-तैसे खा-पीकर काम पर चल देते हैं। इस तरह लिया गया आहार हो स्वस्थ 
नहीं रहने देता! हमारे यहां शांत चित्त से, प्रसन मन से नित्य कर्मों से निषटकर अपने 
इश्टदेव को मैवेद्य अर्पित करके उनके प्रसाद के कप में ही भोजन प्रसाद स्वीकारने 
का विधान है। 


आरतम्म में इन तीन मंत्रों से तीन आस निकालने की व्यवस्था है। शांत मन से-- 
३७ गभ्रपत्ये बहा 
3०४ धवन पतये स्वाह्न, 
3७ भक्त पते ख्वाह्म॥/ 
उच्चारित करके तीन गास निकाल ले। इसका तात्पर्य है कि सम्पूर्ण पृथ्वी के 
स्वामी और च॒तुर्दश भुग्मों के स्वामी तथा चशावर जग के सम्पूर्ण प्राणियों को मैं 
यह अन प्रदान करता हूँ। 
इसके बाद इन पाच मंत्रंशों को बोलकर आहार पंच आहुति के रूप में लेना 
चाहिए-- 
3० द्ागावस्वाह्म 
32 अपनाय स्वाह्म 
3० व्यानाय स्वाहा 
3० उदानाव स्वाहा 
3.5 प्रश्गयव स्वाह्म 


$24 एक्युग्रेशर-स्वस्द प्राकृति्य जीवन पद्धति 


थदि संभव हो जो लवण रहित पांच आस आत्मा रूपी बह् के लिए पंच आहुति 
रूप में लेना चाहिये। अन्यथा जो भी सामने थाली मे है उसी से पंच आहंति की क्रिया 
पूजी कर लें। इसके पश्चात्‌ बोलें--अग्ृत्रो प्रस्तरणमा । 

इस मंत्र द्वाए शुद्ध जल पावर से जल लेकर आचमन करें। अमृतमय अन देवों 
की आसन प्रदान करता हूँ।' इसके पश्चात्‌ अच्छी तरह आसन पर बैठकर मौन होकर 
भोजन करना चाहिए। जब थोड़ी भूख रह जाय तभी भोजन करना समाप्त करके अमृत 
पिधानमसि' इस मंत्र से फिर आचमन कर लेना चाहिये। 

भोजन करते वक्‍त जहाँ तक सम्भव हो खूब चबा-चबा कर ही खाना चाहिए। 
मुँह में खाद्य पदार्थ जितना अधिक चबाया जाएगा पेट की आंतों को उतना ही आराम 
मिलेगा। मुँह की लार अल के साथ जितनी अच्छी तरह मिलेगी उतना ही आहार 
आसानी से पचेगा। पानी भी भोजन करने से आध घण्टे पहले पर्याप्त मात्रा में पी 
लेना चाहिए, ताकि भोजन के वक्‍त ज्यादा पानी नहीं पीना पड़े। पानी की प्यास लगे 
तो घूंट-घूंट थोड़ा बहुत पी लिया करें। अन्त मे हाथ धोकर कुल्ला करे। ध्यान रहे, 
खाद्य सामग्री का अश मुँह मे जरा भी नहीं रहना चाहिये। दांत रोग का कारण अक्सर 
अन का दातो में रहना ही है। 

क्या खाना है, कौन सी सामग्री पहले ली जाय, इसका निर्णय विवेक से करें। 
प्रसन्‍न मन से भोजन करेगे तो रूखा-सूखा जैसा भी उपलब्ध है वह सुस्वादु भोजन 
का पूरक होगा। भोजन को इस तरह ब्रह्म प्रसाद मानकर आप अन ब्रह्म का महत्व 
बनाए रहेंगे। 

प्रसन मन से जो भी थाली मे परोसा है उसे गहण करें। नाक-भौह सिकोड़ कर 
खाएंगे तो जो उस आहार से शरीर को मिल सकता है वह नहीं मिलेगा। जूठन नहीं 
छोड़े, छोड़ना भी हो तो वह किसी पशु-पक्षी के काम आ सके ऐसी स्थिति में निकाल 
ले। 


अन देव का अपमान शरीर को रुप्ण एवं मानसिक रोगी बनाता है। 
आहार का जीदन में आध्यात्मिक महत्व :-- 


अन्नाहार का हमारे जीवन में अत्यधिक महत्व है। पाश्चात्य विद्वान हवेर्ड 
विलियम्स ने 'आहारनीति' नामक पुस्तक में विभिन्‍न युगो के ज्ञानियो, अवतारों और 
पैगम्बरें के सात्विक आहार पर प्रकाश डाला है। प्राइथोगोरस्त एवं प्रभु ईसा भी 
अन्नाह्मरी थे। मानच दक के बजाय केवल भोजन के फेर-फार पर जोर दे तो स्वस्थ 


आहार चिकित्सा १35 


रह सकता है एवं रोगी भी चगा हो सकता है। भारतीय संस्कृति मे सनातन धर्म मे 
अमावस्या, पूर्णिमा एवं अन्य तिथियों पर फलाहार एवं सन्तुलित आहार पर धार्मिक 
दृष्टि से महत्व दिया गया है। आहार केंचल भोजन मात्र ही पही, यह तो जीवन सत्त्व 
है, वह ब्रह्म है। भारतीय प्राचीन अन्य उपनिषदो मे इस पर व्यापक विवेचन है। 


परमात्मा द्वार रचित इन्द्रियों के अधिष्ठाता अग्नि आदि सब देवता संसार रूपी 
महासमुद्र में आ पड़े अर्थात्‌ हिरण्यगर्भ युरुष के शरीर से उत्पन्न होने के बाद उनको 
कही निर्दिष्ट स्थान नही मिला जिससे वे उस समष्टि शरीर में ही रहे। तब परमात्मा 
तने उस देवताओं के समुदाय को भूख और प्यास से संयुक्त कर दिया, अतः भूख 
और प्यास से पीड़ित होकर वे अग्नि आदि सब देवता अपनी सृष्टि करने वाले 
परमात्मा से बोले--भगवन्‌। हमारे लिए एक ऐसे स्थान की व्यवस्था कीजिए जिसमे 
रहकर हम लोग अन्न भक्षण कर सके। अपना-अपना आहार अहण कर सके! 


इस प्रकार उसके प्रार्थना करने पर सृष्टिकर्ता परमेश्वर ने उन सबके रहने के 
लिए एक गौ का शरीर बनाकर उन्हे दिखाया। उसे देखकर समस्त देवताओं ने कहा-- 
भगवन्‌ वह शरीर हमारे लिए उपयुक्त और पर्याप्त नही है अर्थात्‌ इस शरीर से 
हमारा कार्य भली प्रकार नही होगा। इससे श्रेष्ठ किसी अन्य श्र की रचना कीजिये।' 
तब परमात्मा ने उनके लिए धोड़े का शरीर रचकर दिखाया। उसे देखकर फिर बोले-- 
भगवन्‌ यह शरीर भी हमारे लिए यथेष्ठ नहीं है। इससे भी हमारा कार्य नहीं चल 
सकता। आप कोई तीसरा अन्य शरीर का निर्माण कर हमें दीजिये।' तब परमात्मा ने 
उनके लिए पुरुष शरीर की रचना की। 


उसे देखते ही सब देवता बड़े प्रसन्‍न हुए और गद्गद्‌ होकर बोले--हे भगवान्‌! 
आपने कृपा कर हमारे लिए बहुत सुन्दर निवास स्थान बना दिया है। वस्तुत- मनुष्य 
शरीर सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ कृति है, उसकी महिमा का हमारे धर्मग्रन्थो मे विशेष वर्णन 
किया गया है। 


शरीर की रचना करने के पश्चात्‌ परमात्मा ने देवताओं से कहा, आप लोग 
अपना-अपना योग्य स्थान देखकर इस शरीर में ग्रवेश पा ले। तब सृष्टिकर्ता की आज्ञा 
पाकर अग्नि देवता का रूप धारण किया और मनुष्य शरीर के मुख मे प्रविष्ट होकर 
जिह्ठा को अपना आश्रय बनाया। वरुण देवता रसना इच्द्रिय बनकर मुख में प्रविष्ट हो 
गये। वायु देवता बनकर आँखो मे प्रविष्ट कर गए। दिशाभिमानी देवता श्रोतेख्धिय 
बनकर दोनों कानो मे प्रविष्ट हो गये। औषधि और बनस्पतियों के अभिमानी देवता 
गेम बनकर त्वया में समा गए चन्द्रमा मन का रूप करण कर हृदय में प्रवेश कर 


36 शम्युपैज्र--स्वस्थ आकृतिक जीवन पद्धति 


गए। मृत्यु देववा अपना वादु का रूप घाग्ण कर नाभि मे प्रविष् हो गए। इस प्रकार 
समस्त टेवता इंद्रियों के रूप में अपने-अपने उपयुक्त स्थानों में प्रविष्ठ झे गए। यह 
स्थिति देखकर भूख और प्यास ने परमेश्वर से शर्थना की--भगवान आपने सभी 
देवताओं को रहने के स्थान निर्धारित कर दिये हैं, पर हमारे लिए आपने कोई उपयुक्त 
स्थान निर्धारित नहीं किया है। हमारे प्रति भी न्याय कीजिये। उनकी त्रर्थना सुनकर 
भगवान भें कह्य--तुम दोनो के लिए पृथक्‌ स्थान की कोई आवश्यकता नहीं है। 
प्रत्येक देवता के आहार में सदा तुम्हारा वास रहेगा, तुम दोनों प्रत्येक इन्द्रिय के साथ 
संयुक्त रहोगे!। आज हम यही देख रहे हैं। इन्द्रियों द्वारा जो विषय भोग अहण किये 
जाते हैं उसमे क्षुपा और पियासा स्न्निहित रहती है। इस क्ुधा और पिपासा की तृप्ति 
के लिए ही सृष्टिकर्ता ने अन और जल का संयोजन किया है। 


तब अन्न भक्षण किये जाने के डर से मनुष्य से दूर भागने लगा तो जीवात्मा 
ने वाणी, प्राण, चल्लु, श्रात्रेण, त्वचा, मन, लिंग द्वारा पकड़ना चाहा पर वह वशीभूत 
नहीं हुआ। 

अन्त मे उस पुरुष ने अल को मुख के द्वार से अपान वायु द्वार अहण करने 
की चेष्टा की तब वह सफल रहा और मुख से सारे शरीर में उसे ग्रहण करने का 
सकल्प पूरा कर लिया। इसी कारण प्राण वायु के सम्बन्ध में कह जाता है कि यही 
अन के द्वारा मनुष्य के जीवन की रक्षा करने वाला होने से साक्षात्‌ आयु है। 


अन्न को महिमा -- 


इस पृथ्वी लोक में निवास करने वाले जितने भी प्राणी हैं, वे सब अन्न से ही 
उत्पन हुए हैं। अन्न के परिणामस्वरूप रज और वीर्य से ही उनके शरीर बने हैं, 
उत्पन होने के बाद अन्न से ही उनका पालन-पोषण हुआ है। अतः अन्न ही जीवन 
है। फिर अन्त मे इस अन में ही मल उत्पन्न करने वाली पृथ्वी मे ही विलीन हो 
जाते हैं! शरीरस्थ जीवात्मा अन में विलीन नहीं होते वे प्राणी के साथ इस शरीर से 
निकल कर अन्य शरीरों मे प्रवेश कर लेते है और ये जन्म-मरण का चक्र कर्मो के 
अनुसार चलता ही रहता है। 

अतः स्पष्ट है कि अन ही समस्त प्राणियों की उत्पत्ति आदि का कारण है। 
इसी कारण अन को सर्वेविधि रूप कहा जाता है क्योंकि उसी से प्राणियों का क्षुधाजन्य 
सताप मिटता है। से संतापों का मूल क्षुधा है, अतः उसके शात होने पर सारे संताप 
'मट जाते हैं। 


आाड़ार चिकित्सा )37 


गीता में कहा है--- 
उुन्ाह्र विह्रस्थ 
उक्त चेडस्थ कर्मणु 
जुक्त स्वाशव केषस्य 
थेग्े भर्वाते द:खहरा 
आहार-विहार, खान-पान, सोना-जागना आदि युक्त उचित, मर्यादापूर्ण रखा 
जाय और समस्त कार्य मुक्त रूप से संतुलित रूप से निष्पादित किये जाएँ तो योग 
दुःखनाशक होता है। 
भजृष्यी को चाहिये कि वे उचित पथ्य आहार और नियमों का विधिवत्‌ पालन 
कर शरीर को आसेग्य रखें क्योंकि उसके बिना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चतुर्थ 
युरुषार्थों को प्राप्त नहीं किया जा सकता। 


अतः स्पष्ट है कि हजागे वर्ष पूर्व भी आहार-विहार उचित युक्त रखने की 
अनिवार्यता को महत्व दिया गया। उसकी उपयोगिता केवल आध्यात्मिक बोध, धर्म 
चिंतन आदि के लिए ही नहीं, बल्कि दीर्घायु के लिए स्वीकार की गयी और उस 
स्थिति में आहार-विह्दार और अन्न अहण ज्ञान का सम्बन्ध आयुर्वेद से संयुक्त हुआ। 


आयुर्वेद और आहार संस्कार में पाश्चात्य मिश्रण :-- 


आयुर्वेदिक अन्धों में शरीर रचना और उसके विकास के सम्बन्ध में बताया गय। 
है कि मनुष्य जो खाता-पीता है वह उसके पेट में और वहाँ से आंतों में जाकर पचता 
है, उसका रस बनता है। रस से रचत एवं रक्त से मांस, मांस से मेद, मेद से अस्थि 
और भज्जा और मज्जा से वीर्य बनता है! इस प्रकार भोजन और आहार से ही शरीर 
के अंग-प्रत्यंग बनते हैं। 

पर्तु आह्यर गलत होने पर उसका रस अच्छा नहीं बनता। रस अच्छा नहीं 
बनने से रक्त खराब हो जाता है जिससे शरीरस्थ अन्य धातु भी ठीक से नहीं बन 
पाते। उससे शरीर में शिथिलता आ जाती है और शारीरिक क्रियाओं की यंत्र व्यवस्था 
बिगड़ जाती है, उम्मी से रोग उत्पन होते हैं। 

आयुर्वेद के महान मर्मन्न चरक ने भी स्पष्ट किया है कि समस्त शेग मल दोष 
के कृपित होने से होते हैं। जिसका मुख्य कारण है अहित और दोषयुवत आहार-विहारा 
आहार-विहार जब मर्यादा की सीमा उल्लंघन कर देता है तब दोष घातु और मल की 


438 एक्युप्रेशर--स्वस्थ प्राकृतिक जीवन पद्धति 


वृद्धि करते है। कृपित हुए दोष रक्त के माध्यम से जब रसवहा और रक्तवहा नाड़ियो 
मे रुकावट आ जाती है, वही व्याधि उत्पन हो जाती है। 


आहार संस्कार की भर्वादा :-- 


आयुर्वेद मनीषियों ने रोगो के तीन कारण बताये है--विषयों का अतियोग, 
अयोग और मिथ्यायोग। मर्यादा का अति सेवन अतियोग है, बिल्कुल न सेवन अयोग 
है और गलत रूप से सेवन करना मिथ्यायोग है। आहार संस्कारो के लिए भी यह 
नियम लागू होता है। 


आदार के अतियोग, अयोग और मिथ्यायोग :-- 


आ्रयः सभी आयुर्वेद ग्रन्थों मे इस बात का उल्लेख है कि आहार की मात्रा न 
वो अधिक और न ही अत्यन्त अल्प होनी चाहिये। इस विषय में महर्षि चरक ने स्पष्ट 
लिखा है कि उतनी ही मात्रा में आहार करना चाहिये जो वात, पित्त और कफ प्रकृति 
को कृपित न करे तथा जो शीघ्र ही सुपाच्च हो जाया! इस तरह मर्यादित मात्रा मे 
भोजन करने से ही मानव दीर्घायु होता है, निरोग रहता है और उसके शरीर में बिजली 
की स्फूर्ति रहती है। वास्तव में उचित मात्रा मे लिया गया आहार व्यक्ति की प्रकृति 
में बाधा नहीं पहुँचाते हुए उसे निश्चय ही बल, वर्ण, सुख और पूर्ण आयु से युक्त 
करता है। अर्थात्‌ ऐसा प्राणी स्वस्थ, सुखी और दीर्घ आयु वाला होता है। 

अष्टांग हृदय में भी इस सन्दर्भ में उल्लेख है कि 'माग्रंश स्यात भावार्थ' मात्रा 
के अनुसार ही भोजन करना स्वास्थ्य के लिए श्रेयस्कर है। 

कुछ लोगो की धारणा है कि अधिक से अधिक और स्वादिष्ट से स्वादिष्ट 
शोजन कले से शरीर हृष्ट-युष्ट होता है। इस भ्रम मे अनेक व्यक्ति अपनी जठरम्नि 
पर अधिक दबाव डालकर उसे क्षीणकाय और निर्बल बना देते हैं। उस स्थिति में 
पाचन शक्ति बिगड़ जाती है जिससे रोगोत्पत्ति के मार्ग खुल जाते हैं। 

अति भोजन आरोग्य-नाशक, आयु को कम करने वाला, स्वर्गीय सुखो का 
प्रतिबंधक, पृण्य का नोश करने वाला और लोकनिंदक है, उसका परित्याग करना ही 
श्रेयस्कर है। 

हमारे नीति शाख्रों में लिखा है--'अधिक मात्रा में भोजन करना और बिना 
बात के ही अधिक बोलना, किसी भी व्यक्ति के लिए घातक हों सकते हैं।' हम 
भोजन के लिए जीते हैं, इस भ्रामक धारणा के कारण ही आज सारे संसार में तरह 


आहार खिक्रित्सा 439 


तरह के शसेगो का जाल फैलता जा रह है। स्पष्ट है कि आवश्यकदा से अधिक ग्रहण 
किया हुआ आहार समस्त दोषों को प्रकृपित करके तरह-तरह की व्याधियों को जन्म 
देकर हमारे भावी जीवन की भी दूषित कर देता है। 

इस सन्दर्भ मे अष्टांग हृदय” मे कहा गया है--मानव शरीर को आवश्यकता 
से कम मात्रा में आहार करने से न तो शरीर को बल मिलता है और न ही उसकी 
भांसपेशियो की उचित सर्वृद्धि होती है। अल्पाह्मर से शरीर कांतिहीन हे जाता है और 
इससे बात सम्बन्धी व्याधियां बढ़ने लगती हैं। उससे कुपोषण का भी खतरा बना रहता 
है। इसलिए आहार की मात्रा उतनी अवश्य लेनी चाहिये जिससे संतुलिह आहार की 
भी आवश्यकता पूरी हो जाती हो। 


गलत रूप से आहार का सेवन करना मिथ्यायोग है। इस विषय में हमारे 
आयुर्वेदाचार्यों ने निर्देश दिये हैं कि जितनी धुधा हो, उससे कुछ कम आहार लेना 
ही श्रेयस्कर है ताकि पाचन शक्ति की क्रिया पर अधिक बोझ न पड़े। अति आहार, 
आरोग्य नाशक, दूषित भोजन, आयु को घटाने वाला भोजन त्त्याज्य है। समय, देशकाल 
और ऋतु की प्रकृति के प्रतिकूल आहार का सेवन करना मिथ्यायोग है। प्रातः और 
सांझ को संध्यामाल मे भोजन करना समीचीन नहीं है। सूर्यास्त के पहले भोजन करने 
का निर्देश हमारे शास्त्रों ने दिया है। अधिक देर रात को लिया गया आहार सुपाच्य 
नही होता। इसी प्रकार सात्विक पुरुष को रसयुकत, चिकने और स्थिर रहने वाला 
आहार अहण करना चाहिये। रजस पुरुष को लवण मुक्त, कड़वे, खट्टे, तीदण, रूखे 
आहार लाभगप्रद हैं। इसी तरह तामस प्रकृति के पुरुष को अधपका, बासी भोजन अच्छा 
लगता है। यदि ये दीनो व्यक्ति सात्विक सत्व वाला आह्वर लेने लगें वो पूरा समाज 
स्वस्थ व निसेग रह सकता है। 


आंद्वार की कुछ सावधानियां :-- 


हम सभी स्वस्थ और दीर्घ जीवन की इच्छा रखते हैं। यदि व्यवित दृढ़ निश्चयी 
है तो लक्ष्य को आप्त करना आसान है। जितना सम्भव हो प्रकृति के साथ रहना और 
उसका अनुकूल व्यवहार, करना। इसका उअतिकूल ग्रभाव जीवन पर पड़ता है। अपने 
एर्योवरण और उसके इर्द-गिर्द से उन चीजों को निकाल दीजिये, जो अप्राकृतिक और 
हानिकारक हो। आहयर में उन वस्तुओं को सम्मिलित करें जिसमे पोषण को क्षमता 
हो। आज आधुनिकता के चक्कर में हम रंग-बिरंगी व ऐसी वस्तुएँ खाते हैं जिसमें 
रासायनिक पदार्थों का मिश्रण है। ऐसे खाच्च पदार्थ मारव शरीर के लिए हानिकारक 


१40 शकयुग्रेशर--स्वस्थ प्राकृतिक जीवन पद्धति 


है, उनसे लड़ने की क्षमता प्राप्त करने मे शरीर की स्वाभाविक जीवन-शक्ति कुंठित 
हो जाती है। यद्यपि यह स्वाभाविक बात है कि हम वर्षों से पड़ी आदत शीघ्र नहीं 
छोड़ सकते फिर भी प्रकृति के साथ दाल-मेल बैठाकर प्राकृतिक जीवन जीना भी एक 
क्रम है। यह तो जीवन भर का संतुलित क्रम है! 
एस्ीन और दर्द कम करने के भाम पर दी जाने वाली दवाएँ, पाचक अथवा 
शेचक दवाएँ, ट्रेंक्चिलाइजर आदि जितना इलाज नहीं करती, प्रतिक्रिया सूचक होने 
के कारण उससे अधिक कष्ट पैदा करती हैं। यदि आप सही आहार लेते है, तब 
आपके शरीर की प्रकृति शरीर मे उत्पन्न कचरे को निकाल फेंकने में स्वतः सक्षम 
है। गदि आपको खुलकर शौच न हो तो इसमे खतरे की कोई बात नहीं है। घबराकर 
पाचक दवाएं न लेने लगें क्योंकि रोचक दवाइयाँ खतरा उत्पन करने मे सक्षम है। 
इसी तरह सिर दर्द का इलाज एस्रीन नहीं अपितु उन कारणो को दूर कीजिए, जिससे 
सिर दर्द पैदा होता है। अतः स्वस्थ रहने का पहला आवश्यक कार्य यह है कि आप 
अपने आप डाक्टर बनकर निरर्थक दवाओं को लेते रहने की आदत बद कर दीजिए। 
देखिएगा कि आपकी स्थिति में सुधार आ जाएगा। 
आजकल डब्बा बन्द आहार का प्रचलन आधुनिकता के नाम पर बढ़ रहा है। 
डब्या बद आहार बीमारियों को आमंत्रण देता है। बाजार में ताजा फल व तरकारियाँ 
छूब आती हैं। उनकी ओर नजर दौड़ाकर उनसे पूरा लाभ उठा सकते हैं। जो स्वाद 
: गंध उनसे प्राप्त होती है वह डिब्बे वाली से नहीं। डिब्बे बन्द फल व सब्जियाँ 
डटठामिन तैयार करने की प्रक्रिया मे प्रायः नष्ट हो जाते हैं। उनके डिब्बे मे बन्द करने 
दा प्रक्रिया से उनके एन्जाइम को क्षति पहुंचती है। वियमिन और खनिज लवणो से 
नरपूर होने के विज्ञापनों को पढ़कर बन्द आहार स्वास्थ के लिए हानिकारक हैं। 
आहयीय पदार्थों को डब्बे मे बन्द करने वाली कम्पनियाँ भी इस बात से अवगत 
५ हैं कि उनका प्रदत्त आह्र में ओछा है। इसे छिपाने के लिए उसे रंगते हैं। 
“ बऊपन लाने वाले पदार्थ मिलाते हैं, कीटनाशी दवाइयां डालते हैं। ऐसे डिब्बे बन्द 
मे 7र खाने पर शरीर पर अनेक अप्राकृतिक तत्व विषाक्त भी होते हैं। जो व्यक्ति 
एम बदार्थों का निस्‍न्‍्तर सेवन करता है, वह अपने शरीर शोधक अंगों पर अतिरिक्त 
कार्ग्भार डालता है और उच्च रक्‍त-चाप, यकृत कष्ट अथवा कैंसर जैसे असाध्य रोगों 
के जाल में फप्म जाता है। 
अनेक ऐसी ताजी सब्जियाँ हैं, जिनके लिए पकाने की कोई अपेक्षा ही नही 
रहता सलाद स्वव अपनी ओर आकृष्ट करने घाला है फालक पत्तागोभी हसे मटर 


आदार चिकित्सा थे 


गाजर, चुकन्दर, टमाटर आदि कुछ भी लें और उनका सलाद बना दें! सलाद की 
पत्तियाँ और टमाटर के नियमित सलाद से आप नित्य नए स्वाद का आनन्द ले सकते 
हैं। हरी मटर और चुकन्दर की मिठास का आनन्द अलग है! 


मैदे की बनी पाव रोटियाँ कतई न खाएं। मैदे की पाव रोटी अनेक विकार पैदा 
करती है। कब्ज उनमें प्रमुख है। उनसे एलर्जी की आशंका रहती है और कोशिकाएँ 
विकार युक्त हो जाती हैं। चोकरदार गेटी बहुत ही लाभदायक होती है। चोकरदार 
आटे की रोटी के सेवन और हरी साग-सब्जियों के व्यवहार से कब्ज की शिकायत 
हो ही नहीं सकती। अतएव अपने जीवन और आहार को जहाँ तक संभव हो, प्रकृति 
से तालमेल बैठाकर चलें। 


झोजन का तौर-तरीका :-- 


आकृतिक रूप से हर प्राणी और मानव के शरीर की रचना इस तरह से की 
है कि वह सदा स्वस्थ और सुखी रह सके लेकिन आज की व्यस्त जिन्दगी में सभ्य 
मानव स्वाभाविक आहार और प्रकृति के जीवन ख्नोतों से दूर हो रह हैं। शरीर स्वतः 
अपने को स्वस्थ रखने में क्रियाशील रहता है पर हम जाने अनजाने स्वयं ही प्रकृति 
के विरुद्ध चले जाते हैं। प्राकृतिक आहार से विभुख, जीवन खोतो से वंचित, स्वाभाविक 
शुभ संस्कारों से वंचित और व्यायाम से दूर भागने वाला सभ्य मानव अदृश्य रोगों, 
अपच वे कब्ज, का प्रायः शिकार रहता है। कब्ज ही सारे रोेगो की जननी है। 

हम इस व्यस्त जीवन में पांच मिनट शांति से बैठकर भोजन तक भी नहीं कर 
सकते और फिर उम्मीद करते हैं कि जो कुछ खाया है, आसानी से पच जाए और 
गैस भी नहीं बने। आज हम बफर सिस्टम' को प्रोत्साहन देते हैं किन्तु भोजन बैठकर 
ही करणा उचित है। पेट की व्याधि का मुख्य कारण खड़े खड़े भोजन करना है। 


आहार हमारा तभी पचता है जब शरीर के अन्दर से पाचक रस खबित होते 
हैं और उन्हें स्नविद करने का सहज तरीका है सुखासन में बैठकर खाना। बच्चे में 
यह संस्कार प्रारम्भ से ही डालना हमारा गैतिक कर्तव्य है। भोजन खूब चबाकर खादें। 
भोजन के बाद खाद्य सामग्री का अंश मुंह मे जरा भी नहीं रहे। दन्त रोग का मुख्य 
कारण भोजन का दांतों में सड़ना ही है। 

आज हम पाखाना जाने के लिए भी पाश्चात्य तरीका अपनाते हैं, जबकि देशी 
वरीका इतना सहज है कि उसमें बैठने के बाद कब्ब रहने की गृबाइशा ही नहीं रह 


|42 एक्युजेशर स्वस्थ प्राकृतिक जीवन पद्धति 


है जिससे आंतों मे एक लहरदार क्रिया होती है और मल विसर्जन मे पर्याप्त मदद 
मिलती है। हमारे पूर्वज लघुशंका भी बैठकर करने की हिदायत देते थे। इससे मूत्राशय 
पर अनुकूल असर पड़ता है। लेकिन आज हम सभ्यता की दौड़ मे अपने संस्कार ही 
भूलते जा रहे हैं। 

वज्नासन मुद्रा में बैठने पर भोजन पचता है एवं पाचक रस खवित होता है। 

आहरों से दूँसा आमाशव भोजन को मथने का कार्य ठीक उसी प्रकार से नही 
कर सकता, जैसे पानी से भरा मुंह कुल्ला नहीं कर सकता। कायदे से हमे इतना ही 
आहार करना चाहिए कि आमाशय आधघा ही भर पाए। आमाशय का एक चौथाई भाग 
पानी के लिए खाली रखा जाना चाहिये। 

आप आधुनिक युग की सुविधाओं और वैभव का भले ही लाभ उठाएँ, लेकिन 
शरीर के स्वभाव को, प्रकृति के स्वभाव को और आहार-विहार को आधुनिकता से 
अछूदा रखिए, यही अच्छे स्वास्थ्य और आत्मशांति का मार्ग है! 
उत्तम स्वास्थ्य : एक संदेश :-- 

प्रकृति के प्रदत्त उपहारों में षदऋतुओं में शरद ऋतु को प्रकृति की नववधु 
माना गया है। वर्षा के पश्चात्‌ शरद ऋतु का आगमन होता है। मेघाच्छन्न आकाश 
स्वच्छ हो जाता है, सरिताएँ स्वच्छ हो जाती हैं। चांदगी की आलौकिक छठा सबको 
मनमोहित करती है। भले ही संस्कृत साहित्य में कवियों ने आकाशकुसुमों के वसन 
धारण किए मदनरूपी सुन्दर मुखवाली, उन्मत्त हंसों के कलरब के रूप में अपने 
पायलों की मधुर ध्वनि उपजाती समन्ततः अपनी मनोहारिणी देह धारण किए रूपगर्विता 
नववधु की भांति शरद ऋतु का स्वागत किया है। 

और इसी शरद ऋतु का सर्वोत्तम पर्व स्नेहसिक्त दीपावली अपनी ज्योत्सना 
लिए आ पहुंचता है ठाकि अन्दस की कालिमा व अच्कार नष्ट हो जाए। 

इसी मध्य धनतेरस को प्रारम्भ होने वाले इस दीपावली के पुनीत पर्व पर 
भगवान घन्वन्तरि का भी अवतरण हुआ था। आयुर्वेद का प्रारम्भ यद्यपि सृष्टि के प्रारम्भ 
से ही ब्रह्मजी के समय से है परन्तु उद्धारक के रूप में तो भगवान घनवन्तरि ही 
आयुर्वेद के जन्मद्राता माने बाल्तें थे। आयुर्वेद से प्राणीमाव के दुःख कष्टों को दूर करने 
का भगवान घन्व्रन्तरि का संदेश था। 

हम विचार करें कि शरीर में किस ऋतु में कौन से दोष संचित होते हैं, कौन 
से ह्कुपित और कोन से क्रीण, इस्र पर वियार करें वर्श में फित सचित साय ज्कुपित 


आहार चिकित्सा १43 


और कफ क्षीण होता है, वहीं शरद ऋतु में पित्त प्रकृपित होता है कफ क्षीण हो जाता 
है। शरद ऋतु के खानपान भे इस तरह की आहार विधि दर्शाई है जिनसे स्वास्थ्य 
सन्तुलित रहे। 

हमारी दिनचर्या का भी स्वास्थ्य से बहुत गहरा सम्बन्ध है। वायु के प्रकोष से 
जहां चिन्ता उत्पन होती है जो हाईब्लडप्रेशर को जन्म देती है पित्त की प्रधानता क्रोश 
उत्पन करती है, एलर्जी, अनिद्रा, रक्त विकृतियां सब पिततजन्य प्रकोप ही हैं। कफ 
की अधिकता से निद्रा उत्पन होती है। भोजन के समय जहां कफ की उत्यति होती 
है परिषाक अवस्था में पित्त दोष उत्पन होते हैं, परिषाक हो जाने पर वार्यु दोषहीन 
योग के अतियोग ही दोषोत्पत्ति मे कारण बनते हैं। आगन्तुक कारण भी 
बनते हैं। 

विचारणीय यह है कि वर्षा और ग्रीष्म मे जो भी स्वास्थ्य क्षण से सम्बन्ध में 
लापरवाही बरती है, शरद ऋतु में शरीर के शोषक के पश्चात्‌ हम सजग होकर शीत 
ऋतु के स्वास्थ्य संरक्षण के लिए उच्चत हो जावें। 

आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान ने आहर-विहार ऋतुचर्या को स्वास्थ्य संवर्धन के 
लिए बहुत आवश्यक माना है। आहार शास्त्र की उपयोगिता को देखते हुए विश्व 
स्वास्थ्य संगठन जैसी संस्थाएं आज वो बड़ी बड़ी कांफ्रेस आयोजित करती हैं। 

परन्तु रसों का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है, उनकी उत्पत्ति में संयोग कया 
है, इनमें परिवर्तन क्यों व कैसे होते हैं, यह समझना आवश्यक है। जब तक इस 
परिकल्पना को हम नहीं समझेंगे तब तक वैज्ञानिक दृष्टि से आयुर्वेद का दृष्टिकोण 
समझ ही नहीं पाएंगे। प्राध्य भारतीय शाद्रविदों के गतानुसार शरीर पंच महाभूतों 
पृथ्वी, आकाश, वायू, जल और अग्नि) से निर्मित है। साथ ही संसार के अन्य 
समस्त पदार्थ भी इन्हीं पंच महाभूतों के संयोग से निर्मित हैं। परन्तु समस्त पदार्थों मे 
महापूतों या परिमाण समान नहीं होता किसी पदार्थ में किन्हीं महाघू्तों का आधिक्य 
होता है और किसी में अन्य किन्हीं का। जैसे यदि एक पदार्थ में जल का आधिक्य 
है तो दूसरे में अग्नि का! इसी प्रकार संसार के समस्त पदार्थों में पंच महाभूतों की 
न्यूनाधिकता पायी जाती है। 

महाभूतों की न्यूगधिकवा के कारण ही भिन्न भिन्‍त पदाथों में स्वाद की विभिन्‍्नता 
पायी जाती हैं। किसी पदार्थ का स्वाद मीठा होता है, किसी का खट्टा, किसी का 
चरपरा। 


पक्ष अुकयुग्रैशाग-- स्मरण प्राकृतिक जीवन पद्धति 


आयुर्वेद मे ये पटरस के नाम से विख्यात है-- 
मधुर-मीठा-संयोग --प्रथ्वी जल 
अम्ल-खट्टा-संयोग --अग्नि 
लवण-नमकीन-संयोग---जल व अग्नि 
तिकत-कड़वा-संयोग --वायु और प्रकाश 
कटु-चरपरा-संयोग --वायु और अग्नि 
कंवाय-कषैला-संयोग --वायु और पृथ्वी का आधिक्य 
शारीरिक पंचभुतो की स्थिति ठीक रखने के लिए षड़रसयुक्त पदार्थ सेवन 
करते रहने की आवश्यकता है। यदि इनमे से किन्हीं एक ही या दो तीन रसों का 
सेवन किया जाय तो शरीर मे उन महाभूतो का--जो उस या उन रसो में अधिकता 
से रहते हैं--आधिक्य होकर अन्य की न्यूनता हो जायेगी। ऐसी दशा में स्वास्थ्य पर 
अतिकूल प्रभाव पड़ेगा 


पञ्चमहाभूतों का परिमाण समान नहीं होने से मनुष्यों की प्रकृति भिन्‍नभिन्‍न 
स्वभाव की होती है। अतः भोजन में भी प्रकृति का विचार कर लेना चाहिए। वात, 
पित्त, कफ प्रकृति का विचार कर लेना चाहिए। वात, पित्त, कफ प्रकृति के अनुकूल 
ही रसों का सेवन करें। मधुर सस--सभी प्रकार की प्रकृति वालों के लिए लाभप्रद है, 
परन्तु पित्त प्रधान प्रकृति वालो के लिए विशेष हितकर है। सभी रसो की अपेक्षा मधुर 
रस का सेवन इसलिए लाभप्रद है कि कार्यकारिणी शक्ति मधुर रस के सेवन से 
उत्पन होती है। 

« भधुर रस : सदैव हितकर, बलवर्धक और जख्म तथा क्षीण पुरुषों के लिए 
जीवनशक्ति-दायक है। केशवृद्धि समस्त इन्द्रियों की पुष्टि धृति, मेघा, ओज, 
बल की वृद्धि के लिए इसका सेवन किया जाया यह स्तन्यजनक है अस्थि-संघानक 
(जोड़ने वाला) कण्ठ को मधुर करता है। इसके अति सेवन से डायबीटीज 
ज्ेती है। 

०  आण्ल : पाचक, अग्निवर्धक, रुचिकारक, उष्णकफनाशक और मूदु एवं शीघ्र 
पाचक है। इसके अतिसेवन से दन्त शेग, नेत्र गेग, कंठ रोग, छाती में जलन, 
रक्त पिच्च तथा शरीर में शिधिलता उत्पन्न होती है आग्नेय गुण की अधिकता 
से यह वीर्य को पहला करता हैं। नेत्र ज्योति का नाश करता है। 


* लक्ग : यह प्रचक, मलकोभक और उष्प है अस्थिप्रेकक रक्त नलिकाओं 


हार खिक्ित्सा 445 


के खिंचाव, तनाव तथ स्रोतों के अवरोध (बन्ध) को दूर करता है तथा पसीना 
लाता है। अत्यधिक सेवन से खुजली, कोढ़, प्यास, दौर्बल्थ, नेत्र ज्योति का हास 
एवं सन्धियों में शिधिलता उत्पन करता है। 

विद : विष-कृमि पित्त, तृथा तथा मूर्छा, कुष्ठ, ज्वर्मन (जी मचलाने की सी 
स्थिति), दाह एवं रक्त विकार का नाशक तथा मलमूत्र शोधक है। इसके अधिक 
सेवन से अनेक तरह के वाद गेग, धातुक्षय, नसों में तमाव एवं अरुचि उत्पन 
झोती है। 

कंडु रस : अग्नि दोषक, पाचन मल मूल शोधक, कफ नाशक तथा गरम व 
खुश्क है। इसके अधिक सेवन से शुक्रक्षरण, धातुक्षाणठः, दषावरद्धि और शिराओं 
में कृशता दाह कम्पन उत्पन होते हैं। 

कपाय : कफ-पित माशक, मलावरोधक क्लेशकारक तथा वसा नाशक है। इसके 
अति सेवन से स्थूल अंगी में तनाव, अफास इत्यादि उत्पन्त होते हैं। महर्षि 
चरकाचार्य ने कह्न है कि मनुष्य को माशनुसार ही पोजन हिताहित का विचार 
करके कश्ना चाहिए! जितना आसानी से पचा सके वही आहार लेना चाहिए--- 
मतरानुसार। 


पुनः गुरु लघु पदार्थों के सेवन से जठाशगिन के बल को युक्तिपूर्वक बनाए 
खना चाहिये। आमाशय के दो भाग को भोजन से, एक भाग जल से पूर्ण करना 
गहिये और चौथा वायु संचशण के लिए रत रखना चाहिए। 
दही, दुग्ध, घृत सभी के सेवन के नियम हैं। इनके विपरीत्त चलने पर ये बल 
दान करने के बजाय हानिकारक बन जाते हैं। हनिकारक ही नहीं, विषतुल्य भी | 
दही सेवन के नियम हैं जैसे-- 
न कक दाधि कली 
# चाप्य' छत शर्करम्‌ 
खएदग यूए' ना क्षी् 
ज्रेष्ण ग्रत के किला 
श॒त्रि में दही का सेवन ने करें। उसमें घृत का झुका मिलाकर ही लें। दही 
ऐवन करते समय मूंग की दाल या थोड़ा सा शहद या आंवला अवश्य मिला लें। 
घूल कर भी दही को गमक करके न खाएं। दही अवजमा न हो और शरद ऋतु में 
त्याग देना चाहिए। 


|46 एक्युप्रेशर-स्वस्थ प्राकृतिक जीवन एद्धति 


हमारा जीवन स्वभाव से हानिकारक सयोग विरुद्ध द्रव्जे के सेवन का अभ्यस्त 
हो चुका है। अमृत तुल्य पदार्थों मे भी जब विरोधाभास हो वह विष समान है। इसे 
ही आजकल फूड पाईजन कहते है। 

प्रत्येक पदार्थ के मूल स्वरूप को विकृत किए बिना सेवन किया जाये तो वह 
स्वास्थ्यवर्धक होगा। सारे प्राकृतिक तत्व पदार्थों में सुरक्षित है, सभी शाकों मे अक्तिक 
लवण, अत्यधिक उबालने से नष्ट हो जाते हैं। 

भोजन के समय की मानसिक स्थिति बहुत शान्त होनी चाहिये। ईर्ष्या, भय, 
क्रोघ, लोभ, द्वेष के विचारों से भोजन का परिषाक ठीक से नही होता। इससे अजीर्ण 
उत्पन्न होता है, पाचक तत्त्व नष्ट होने लगते है। 

भोजन पश्चात्‌ त्याज्य कर्म जो है सोना, बैठना, पतले पदार्थ पीना, आग से 
तापना, सवारी पर चढ़ना, व्यायाम एवं मैथुन, गायन और मद्च-पान निषिद्ध है। 

सभी शेगो का मूल कारण अहित आहार-विहार ही है। इनकी समता बनाए 
रखने का अयल करते रहना चाहिए। 


प्रकृति के सानिध्य में आरोग्य :-- 


सृष्टि की समस्त गतिविधियां प्रकृति के नियमानुसार चलती है। मनुष्य अगर 
सदैव स्वस्थ तथा प्रफुल्लित रहना चाहता है तो उसे प्रकृति के चक्र को समझना होगा। 
भुष्य की प्राण शक्ति का अक्षय स्रोत है--सूर्यदेव। सूर्य की रश्मियों में सात रग 
है, मानव शरीर भी सात रंगों का पिण्ड है, सृष्टि की समस्त वसुन्धरा वृक्षों पर सात 
रंगों के फल आरोग्य के लिए प्रदान करती है। अगर मनुष्य इन तीनो का तालमेल 
रुग्णावस्था में आरोग्य के लिए करें तो दुनिया की कोई ऐसी बीमारी नहीं जो ठीक 
नही हो सकती। तभी तो भारतीय संस्कृति मे सूर्योपासना का विशेष महत्व प्रदान 
करते हुए पीपल, तुलसी व सूर्यदेव को अर्घ्य देने का विधान बनाया गया है। सूर्य 
देवता के लाल वर्ण से रक्ताणुओ का गहरा सम्बन्ध है। सूर्योपासना से जहाँ एक ओर 
शरीर मे दिव्य शक्ति का संचालन होता है, वहीं दूसरी ओर शरीर में रोगाणुओ से 
लड़ने न्‍ प्रतिरोधात्मक शक्ति भी प्रज्वलित होती है। जिससे मनुष्य सदा निरोगी बना 
रहता है। 


-प्रगवान धनवन्तरी 


का 


शाज्नों में पोषक तत्त्य एवं उनके प्रभाव-- 





कप 


रुनके प्रभाव 
शरीर की ईंधन (कैलोरी) 
पूर्ति करते हैं 


ऊतकों का निर्माण थ॑ 
मरुमत करते हैं। 


गाढ़ी कैलोरियां देते हैं 
और विशरमिनों (ए, डी, 
ई) से युक्त होते हैं 


रा पोषक ततश 


आवश्यकता के कारण 


विकास, दृष्टि, स्वस्थ 
स्थजा, उत्तम दांत और 
हुड्डियां, संक्रामक रोगों से 
मचाव 


संक्रामक रोगों के अवरोध 
की बमहा, दोतों और 
भसूड़ों की रक्ा, शरीर की 
कलिकाओं का निर्माण वे 
मरूमत 


'लोहिताजुओं का निर्माण 
लोहिताणुओं का शिर्माण 


कार्बोहाइडैट का शरीर में 
सही उपयोग 


कणिकाओं द्वाय सुचा 
कार्य तथा विकास 


खोठ 


चावल, गेहूं, अन्य 
अनाव, आतू, चीनी, गुड़ 


दालें, काप्ठफ़्ल, दूध, 
अंडे! 


सब्दियां एकने के तेल, 
दनस्वति, थी, मूंगफली, 
पिलहर 


हरी परेदार सब्जियां, 
पीले” एल (फीता, 
आम), गाजर 


आंदला, नींबू, चूना, 
झंतर, टमाटर, सैंजने की 


अंकुरित दलें द बने | 


डालें, बौन, बने, इरी 
पर्तेदार सब्दियां 


अपफिसे गेहूँ और चावल, 
ऋष्ठफल, दालें 


दालें, दूध, भी, परेदार 
संब्वियां 


कमी के लक्षण 


वजन में कमी, कमंजोरी, 
मूर्ख 

दिलंबिंत विकाग्, 
न्यूनपार, वजन घटना, 
अस्वस्थत 


प्यूनभार, शुष्क त्वचा 


448 पक््युप्रेशर-स्वस्थ प्राकृतिक जीवन गद्धति 


नियासिन कार्बोहाइड्रेट का सही मूगफली, दाले, गेहूँ, झुर्ड, खुजलीदार त्वचा, 
उपयोग, कणिकाओं का अनपिसे चावल भूछ न लगना और दस्त 
सही कार्य और विकास की डीमारी 
खनिय पद 
कैल्शियम दांत व हड्डियां मजबूत दूध, मलाईं उतारा हुआ विलंबित विकास, खराब 
गनाना, छून के थकक्‍के दूध, दालें, घनिये के दात और हृड्डिया (रिकेट) 
डनाना बीज, तिलहन 
लोझ लोहिताणुओं का निर्माण हरी पर्तेदार संब्जिया, अनीमिया (क्तक्षीणता) 
रागी, बाजरा, मेथी, 
जिगर, अडे 


रु्णावस्था में प्रकट होने बाले लक्षण-- 














पहचान वाहअन्य रोग पित्त-जन्य रोग कछ़-जन्य शेग 
जीभ का स्वाद अस्वाद कड़वा फीका 
जीभ का रंग मैला लाल सफेद 
पिशाव का रंग मैला पीला सफेद 
प्रिशाब की मात्रा. रुक रुक कर आना कम आना अधिक आना 
भूख कम अधिक इच्छा रहित 
प्यास अधिक अधिक कम 
पसीग कम अधिक कम 
आँखों का रंग मैला लाल सफेद 
त्वचा सूखी (चर्म-रोगवृक्त) गर्म शीवल 
शरीर स्थूल हर्बल सामान्य 
नाखून गुलाबी. प्रीले सफेद 
जेल कम व रूखे कं सफेद 


कलों का झड़ना 


अक्त का नाम संबंधित प्रद्ी शरीर से सम्गझ 
सहस्ताघार चक्र. पिनियल अथी मस्तिष्क, दायीं आँख, उच्च रक्तचाप, व्यान वायु, 


(दर्शन केन्र) मनोवैज्ञानिक विकार, उंत्रिका विकार। 

अदन्य चक्र पिटयूटरी मस्तिष्क, बायी आँख, सायनस, नाक, कान व कान की 
(जान केद्) जंथी नाड़ी, प्राण वायु 

3. विशुद्धि चक्र चायरोइड फैफड़ा, श्वास नली, आवाज, भोजन नली, आँखों का 
(विशुद्धि केद्र). ग्थी झपकना, विकास, रक्तात्पता, थकान, एलर्जी, मासिक 


धर्म विकार, अपान वायु । 
4 अनहत चक्र. धायमस उंची. देवदत वायु, प्राण वायु, गंठिया, स्वार्थता, हृदय सम्बन्धी 


(आनन्द केद्) विकार, रक्त परिसंचरण विकार, अल्पर, आठो की सूजन। 
5. मणिपुर चक्र. पेंक्रियाज भूख-प्यास, छीके, डायबिटिज, यकृत, पित्ताशय, 
(तेजस केन्द्र) अथी आमाशय, तंत्रिका तत्र के विकार, चमड़ी के रोग । 
6. स्वाधिष्ठान प्रजनन अंथी अपान वायु, गैस्टीक, पेट सम्बन्धी, प्रजनन प्रणाली 
चक्र (स्वास्थ्य सम्बन्धी विकार, भावात्मकता । 

केद्र) 

7 मूलाथार चक्र. एड्रीनल ग्रंथी रीढ़ की हड्डी, प्रोस्टेट, मलड्वार, चमड़ी, वृवक, मूत्राशय, 
(शक्ति केन्द्र) गर्भाशय, फेलोपियन ट्यूब, अपान वायु । 





कब्ज : गैस, वायु, कारण एवं निराकरण :- 


कब्ज को कोष्ठबद्धता, विवंध, मलबंध, मलावशरेध, आनाह तथा विष्टब्धता आदि 
कई नामों से पुकारते हैं। अंग्रेजी में इसको कान्स्टीपेशन कहते हैं। 


मल जब बड़ी आंत मे जमा हो जाता है और किसी कारण से अपने रास्ते से 
बाहर नहीं निकलता बल्कि वहीं पड़ा-पड़ा सड़ा करता है तो उसे कब्ज होना कहते 
हैं। कुछ लोगों का रोज दस्त होते रहने पर भी कब्ज बना रहता है, और कुछ व्यक्ति 
ऐसे होते हैं जिन्हें दो-दो दिन के बाद में एक बार पाखाना होने पर भी कब्ज नहीं 
रहता। इसलिये हम मे से बहुतों को यह मालूम नहीं रहता कि कब कब्ज रहता है 
और कब नहीं? परन्तु यह सत्य है कि आजकल 99 प्रतिशत व्यक्ति इस रोग के 
शिकार हैं। | 


450 एक्युप्रेशर स्वस्थ प्राकृतिक जीवन पद्धति 


कब्ज के रोगी को पाखाना साफ नहीं होता, हमेशा सुस्ती छाई रहती है, पेडू 
कठोर और पेट भारी रहता है, सिर में दर्द रहा करता है, नींद ठीक से नहीं आती, 
मस्तिष्क खाली सा जान पड़ता है, भूख खुल कर नहीं लगती तथा उसे अन्य कई 
रोग रहते हैं। कोष्ठबद्धता को सब रोगो का जन्म-दाता कहा जाता है। इसमें तनिक 
भी अतिशयोक्ति नहीं है। 

मनुष्य शरीर में दो प्रधान कार्य अनवर्त रूप से जीवन-पर्यन्त होते हैं। प्रथम 
जो कुछ भी हम खाते या पीते हैं वह जठरागिन के संयोग से अनियन््रित जीवनी 
शक्ति द्वारा हमारे शरीर से मिलकर एकाकार होता रहता है। शरीर की इस क्रिया 
को हम एकीकरण (8&5७॥7॥9/0०॥) कहते हैं। द्वितीय, जो शरीर के भीतर पहुंची 
हुई वस्तु शरीर से मिलकर विद्रूप नहीं बन सकतीं, अर्थात्‌ विजातीय द्रव्य अथवा 
शरीर के लिए विकार रूप हैं, विष हैं, शरीर उनको बाहर निकाल फेंकने का प्रयल 
सदा-सर्वदा किया करता है। शरीर की यह क्रिया बहिष्करण (६॥॥9॥9007) कहलाती 
है। इसी क्रिया के लिए पाखाना-पेशाब होते हैं, और नाक, कान, आंख तथा खाल 
आदि से सदैव मल का पसीना निकला करता है। स्पष्ट है कि शरीर मे होने वाले 
दोनों कार्यों में बहिष्करण की क्रिया एकीकरण की क्रिया से अधिक आवश्यक और 
उत्तम स्वास्थ्य के लिये परमोपयोगी है। कारण यदि दो, चार, दस दिन या दो-एक 
महीनों तक मनुष्य भोजन न करे तो वह मर नहीं जायेगा, किन्तु एक दिन के लिए 
भनुष्य का पाखाना-पेशाब रुक जाय तो वह कदापि जीवित नहीं रह सकता है। शरीर 
की इस परमावश्यक क्रिया में अड़चन पड़ने का नाम मलावगेध, कोष्ठबद्धता या 
कब्ज है। 


यदि हम अपने शरीर को एक बड़े शहर से उपमा दें तो कोष्ठ-अरदेश को 
उसका सबसे बड़ा कूड़ाखाना मानना पड़ेगा। वह कूड़ाखाना यदि प्रतिदिन नियमित 
रूप से साफ न होता रहेगा तो निश्चय ही शरीर रूपी शहर मे रहने वाले अगणित 
अज्झेपाड़ रूपी नगर-वासियों का स्वास्थ्य खतरे में पड़ जायेगा और वे बीमार हो 
जायेंगे इसलिये यदि हम पूर्ण स्वस्थ रहना चाहते हैं तो हमे कब्ज कभी नहीं होने देना 
चाहिये। | 

खाक-पान का असंयम कब्ज का मूल कारण है। अनाप-शनाप खाते रहने, 
दूंस-ठूंस कर खाने, बिना भूख के खाने तथा भोजन सम्बन्धी अन्य नियमों के पालन 
न के से करोष्ठबद्धता की शिकायत है 


आहार चिकित्सा १54 


मलावरोध के दुष्परिणाम :- 

जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है शरीर के लगभग सभी रोगों के मूल मे 
मलावरोध अवश्य होती है, जिसके कारण रोगो की तीव्रता बढ़ जाती है। डा. छव 
कहते हैं--शरीर से विजातीय द्रव्य का बाहर निकलना जब बन्द हो जाता है तब 
हर्निया, अलसर तथा हृदय और मूत्राशय के रोग उत्पन होते हैं।'” 


हमारी आंतो में खाद्य पदार्थों का रस चुसने का कार्य अविशम गति से चलता 
रहता है। पर जब उन्हीं आँतो में मल जमा होकर सड़ने लगता है तब हमारी आंते 
उस जम्मा हुये मल से उसके विष को भी चूसती हैं और चूसकर उस विष को रक्त 
में मिला देती हैं, जिससे रक्त विषाक्त हो जाता है जो नाना प्रकार के येगो का कारण 
होता है। तब मनुष्य को आवेग (ुस्सा) ज्यादा आता है। 


घिक्कित्सा :-- 


कब्ज होने पर बहुध्ा लोग जुलाब लेते हैं। किनु अनुभव से जाना गया है कि 
यह प्रयोग अंतड़ियों के लिये अत्यन्त हानिकारक है। चिकित्सकों की राय मे सदैव 
जुलाब लेना भी कब्ज पैदा करता है। इसलिए कंब्ज में जुलाब न लेंकर यदि पहले 
गुनगुने पानी झा तत्पश्चाट्‌ ठंडे पानी का एनिमा कुछ दिनो तक लिया जाय तो बहुत 
लाभकारी सिद्ध होता है। यह सवाल गलत है कि एनिमा लेने से एनिमा की आदत 
पड़ जाती है। 

नीचे कब्ज दूर करने के लिये कुछ अनुभूत उपचार दिये जाते हैं जिनको विधिवत 
चलाने से पुराने से पुराने कब्ज को भी कुछ ही दिनों भे दूर किया जा सकता है-- 
3.. जिन कारणों से कब्ज होता है उनको सर्वप्रथम दूर करना चाहिये। 


2, एक दिन केवल जल पीकर उपवास करना चाहिए फिर दो दिन तक रसाहारा 
रसाहझर के लिए गाजर और पफ्रलक के रस उत्तम रहेगे। तत्पश्चात्‌ 7 से 45 
दिनों तक फलाहार। इन दिनों दोनो वक्त एनिमा लेना चाहिए। फलाहार के 
बाद एक वक्‍त दूध-फल और दूसरे वक्‍त रोठी, सब्जी, दही और सलाद! 
भोजन में फल और सब्जी की मात्र अन से हर हालत में दूनी रहनी चाहिए। 
जब कब्ज दूर हो जाय तो सादे और सात्विक भोजन पर आ जाना चाहिए! 
चोकरसमेत आग, फल, धारोष्ण दूध, ताी साम सब्जियाँ---उबली और कच्ची, 
सादे और सात्विक भोजन वाले खाद्य पदार्थ महत्वपूर्ण हैं। घी, तेल, अचार, 
खठाई और मिठाइयां गुरुषाक होने से उनका सेवन कदापि युक्तिसंगढ नहीं है 


एक्युप्रेशर-स्वस्ण प्राकृतिक जीवन पद्धति 


और मिर्च-मसाले आदि का मोह तो सबसे पहले त्यागना होगा। 

सुबह सोकर उठते ही पसनतु सूर्योदय के प्रथम सा्यकाल का रखा हुआ शुद्ध 
जल लगभग आध सेर या जितना आसानी से पिया जा सके, धीरे धीरे पीकर 
उसके थोड़ी देर बाद शौच जाना कब्ज को अति शीघ्र दूर करता है। इसी 
प्रयोग को वैद्यक शास्त्रों मे उपापाद' कहा गया है। इसके अनेक गुण है। 
सप्ताह मे एक दिन उपवास करने का नियम बना लेना चाहिए। उस दिन ताजे 
जल में कागजी नीबू का रस मिला कर काफी मात्रा में पीना चाहिए। 


प्रतिदिन नियमित रूप से कोई हल्का व्यायाम और गहरी सांस लेने की कसरते 
अवश्य करनी चाहिएं। सुबह शाम 3 से 5 मील तक शुद्ध वायु मे तेजी के 
साथ टहलना एक अच्छा व्यायाम है। 


प्राकृतिक चिकित्सा विशेषज्ञ लुईकूने ने बालू को कब्ज की अचूक दवा कहा 
है। एक चुटकी समुद्री साफ बालू भोजन के बाद दिन में दो तीन बार पानी 
के सहारे निगल लेना चाहिए। ऐसा करने से दूसरे ही दिन आंते ढीली पड़ 
जाती हैं और उनमे जमा पुराना मल निकलना प्रारम्भ हो जाता है, जिससे कुछ 
ही दिनो मे कब्ज से निजात मिल जाती है। 


4 छर्वक गेहूं का साफ चोकर सवेरे शाम भोजन में मिलाकर खाने से भी 
कब्ज दूर होती है। चोकर को चाहे जैसे खाया जा सकता है--रोटी मे मिलाकर, 
तरकारी में मिलाकर या दाल में डालकर। 

आधे गिलास ठंडे पानी में एक कागजी नीबू का रस डालकर दिन मे 4 से 6 
बार तक पीना इस रोग में लाभ करता है। 

एनिमा द्वारा प्रातःकाल गुनगुने पानी से जिसमे दो-तीन बूंद कागजी नीबू का 
रस मिला हो, पेट साफ कर लेना चाहिये। इस प्रयोग को जब भी पेट भारी 
हो, करना चाहिये। 

भोजन करने के आधा घंटा पहले थोड़ा गुनगुना पानी पीना लाभ करता है। 


भोजन के साथ जल बहुत कम या बिल्कुल ही न पिया जाय। भोजन करे के 
दो घटा बाद इच्छानुसार जल पीना चाहिये। 


प्रातः साथ शक्ति अनुसार 5 से 20 मिनट तक उदर स्नान करना, या पेडू पर 
एक घंटे तक मिट्टी की पड़ी बांघना लाभकरी है 


आहार विकित्सा है 


3., मल विसर्जन में कभी व्लम्ब नही करना चाहिये। 
रोगों का पूल कारण 


जब कोई भी व्यक्ति अपने शरीर के गुण-घर्म और क्षमता को बिना जाने 
आहार-विह्चर, खानपान, निद्रा, व्यायाम इत्यादि प्रकृति के नियमो की लम्बे अन्तराल 
तक अवहेलना करता है तो उसके शरीर में अवांछनीय रासायमिक द्रव्य उत्पन्न होकर 
रक्त प्रवाह में अवरोध वैदा करते हैं। मनुष्य के बनाए हुए यज्रों को गठिशील रखने 
के लिए जिस तरह भाष, केरोसीन, पेट्रोल या बिजली की आवश्यकता होती है उसी 
तरह यपरमपिता परमेश्वर के द्वारा बगाए गए इस विशाल कारखाने के रूप में स्वचालित 
(अंग) यंत्र अविराम गति से गतिशील रहें इसके लिए कारखाने को अर्थात्‌ यत्र को 
खून की आवश्यकता होती है। 

शरीर के हर कलपुर्जे व नाड़ी संस्थान को सुव्यवस्थित सप्रमाण खून मिलता 
रहे इसकी प्रकृति मां ने उत्तम व्यवस्थ कर रखी है। इस व्यवस्था मे ऊपर बताए गए 
व्यर्थ द्रव्य बाधा पैदा करते हैं और जब आवश्यक खून सभी अगों को पर्याप्त मात्रा 
में नही मिलता तो शरीर के महत्त्वपूर्ण अंगों में शिधिलता आ जाती है और मनुष्य 
मे कार्य करने की क्षमता धीरे-धीरे घट जाती है। 


शेगों का मूल कारण विषयो का अतियोग, मिथ्यायोग एवं वात, पित्त और कफ 
का कुषित होना है एवं प्रकृति के नियमो का लम्बे अन्तराल तक उल्लंघन करना है। 


आत्मिक बीमारियां ही शारीरिक बीमारियों छा मूल कारण :- 


जब आत्मिक बीमारियां जिसमे दुश्चिन्ता, कुबुद्धि, क्रोध और अहं अशुद्ध संस्कार 
हमारे पचतत्त के शरीर मे विचरण करती हैं तो शरीर का संतुलन बिगड़ जाता है 
फलस्वरूप शारीरिक बीमारियों का उद्भव होता है। आत्मिक बीमारियों के कारण हुई 
शारीरिक बीमारियो का इलाज किसी हकीम, वैद्य अथवा डॉक्टर के पास नहीं होता। 
इसलिए आत्मिक बीमारियों को संतुलित बनाए रखना ही स्वस्थ शरीर की देद्र है। 
“मनुष्य के शरीर मे पचास प्रतिशत से ज्यादा बीमारियों झीनता, भव और 
आत्मविश्वास की कमी के कारण होती है। परिणामस्वरूप शरीर के हारमोन्स अर्संतुलित 
हो जाते है और प्रकृतिप्रदत शरीर की ग्रतिरोधात्मक शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होने 
लगती है। 
शो स्कीनर न्यूयार्क ने गाइकोसजेस्टिव थेरेपी ' को विकसित करने पर 


454 जाकृतिक उहिशम हि 


बल दिया है। इस चिकित्सा के जरिये रागी के आत्मविश्वास्त और दृष्टिक्ीण मे 
परिवर्तन लाना है, जिससे मनुष्य की अन्त जक्ति (७ ?0शछ) को जागृत करना 
होता है। जे। रोगी अपने दृष्टिकोण बदलने व आत्मविश्वास जागृत करने में सफल 
हुए हैं वे आश्चर्यजनक रूप से ठीक हो जाते है। परिणामस्वरूप उनके सोच-समझ्ज 
का नजरिया बदल जाता है और दुश्चिन्ता, हीनता के संस्कार से ऊपर उठते हैं। उठने 
का प्रयास नहीं करते वे धीरे-धीरे जीवन शक्ति खो बैठते हैं और जीवन के प्रति 
उनका लगाव शून्य हो जाता है। अतः जीवन के प्रति रुचि पैदा कर विचारशवित, 
इच्छाशक्ति, संकल्पशक्ति और कर्मशक्ति के बल पर मनुष्य जीवन को सुखमय व 
निरोग बनाये रख सकता है। चिकित्सक का मुख्य कार्य भी रोगी को आत्मबल, 
विचारशवित, एवं संकल्पशक्ति उत्पन करने की शरणा देना है जिससे ईश्वर द्वारा 
दी गई 00 वर्ष की आयु का वह स्वस्थ रह कर उपभोग कर सके। 

प्रायः मां-बाप अपने बच्चों को आधुनिकीकरण के दायरे में रहकर दवाइयो के 
बल पर उन्हें स्वस्थ एवं हृष्टपुष्ट बगना चाहते हैं जो सर्वथा अन्धानुकरण एवं प्रकृति 
विरुद्ध है। वस्तुत- प्रकृति के सगये मे पलकर, सामाजिक वातावरण के परिवेश में 
रहकर, प्रकृति के नियमो का पालन करते से जो स्वास्थ्य प्राप्त किया जा सकता है 
उसकी बराबरी चिकित्सा विज्ञान अथवा आधुनिक परिवेश नहीं कर सकता। 


आहार के प्रकार 
“जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन” शास्रानुसार हमारे ऋषि-मुनियों ने आहार 
को मुख्यतः तीन श्रेणियों में विभाजित किया है “-- 
4 सात्तिक आहार, 2. राजसी आहार, 3 तामसी आहार 
सात्विक आहार :-- 
शास्रो मे सतोगुणी आहार को सर्वश्रेष्ठ आहार माना गया है। महान पुरुष स्वामी 
विवेकानम्द के मतानुसार मनुष्य का शरीर भगवान का मन्दिर है, इस मन्दिर में बैठे 


भगवान को जैसा भोग लगाया जायेगा वैसी ही उसकी वृत्ति बनेगी। तभी यह कहावत 
चरितार्थ होती है कि जैसा खाये अन्न वैसा बने मन! 


सात्विक आहार लेने से मन, ववन और कर्म से मनुष्य सात्तिक विचारों का 
बनता है, वह सदा दूसरों के कल्याण में लगा रहता है। 


अतः आहार यदि मर्बादा के विपरीत लिया जाता है तो वह खाने वाले को 


ही खा जाता है 


प्रकृति के सानिध्य में पके कन्‍्द मूल, फल, शाक-सब्जियाँ, सभी प्रकार की 
दाले, कम मिर्च मसाले से बना भोजन, घी, दूध, दही इत्यादि सभी खाद्य पदार्थ उच्च 
कोटि के सात्तिक आहार माने गये हैं। गीता मे कहा गया है-- 
उुक्ाहरविहासस्थ युक्त चेहस्या कर्मतु / 
जुक्त स्वणा कोधस्य कोग्रो भ्वाति दुःखह्ली ॥ 
--(गीता 6 अध्याय, श्लोक 7) 
यदि हम वह खाते हैं जो हमे नहीं खाना है तो हम वह भुगतते हैं जो हमे 
नहीं भुगतना चाहिये। ठीक उसी प्रकार से यदि मनुष्य ऐसे कर्म करता है जो कि 
मर्यादा के विपरीत हो उसका भी मानव जीवन पर दुष्प्रभाव ही पड़ता है। 
राजसी आहार :-- 


राजसी चृत्ति के लोग रजेगुणी भोजन को पसंद ढरते हैं। इसमें सभी प्रकार के 
मिर्च मसाले, अधिक बिकनाई युक्तः खट्टे-चटपटे-स्वादिष्ट मिठाइयाँ, फल इत्यादि 
आहार सम्मिलित हैं। जिसका प्रचलन तीज त्यौहार, विवाहोत्सव इत्यादि अवसरों पर 
देखने को मिलता है। 

ऐसे आहार सेवन से मनुष्य आसक्तियुक्त कर्मों के फल को चाहने वाला, लोभी 
प्रवृत्ति तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाव वाला बनता है। (गीता ।8/26 श्लोक) 


तामसी आहार :-- 

यह भोजन तामसिक श्रेणी में आता है। इस आहार में उत्तेजक पदार्थों का बाहुलय 
होता है जैसे लहसुन, प्याज, तेज मिर्च-मसाले, घी, दूध, अण्डे, माँस, मछली, शराब 
इत्यादि, जिनके सेवन से शरीर में गर्मी व उत्तेजना पैदा होती है और मनुष्य झगड़ालू, 
क्रूर, विध्वंसक विचारों का बनता है। 

“जो विक्षेययुक्त चित्तवाला, शिक्षा से रहित, घमंडी, धूर्त और दूसरे की 
आजीविका का नाशक एवं शोक करने के स्वभाव वाला आलसी और दीर्घसूत्री है, 
वह कर्त्ता तामस कहा जाता है।” (गीता अध्याय 8, श्लोक 28) 


कक 





वजन घटाने-बढ़ाने हेतु आहार चिकित्स| 


(छाशाएड €चाछ 0 नि९ंध०8 & ॥7778988 | ४/शंतग) 





नाएठा ग्रात: 7 बजे : 


सोमवार | एक कप चाय, 2 बिस्किट या एक | अबृठ भोषन (अकरित अनाज) 
गिलास दूध 


2 उड़द 50 जप या एक मुट्ठी 
3 पूंगफली 50 गरम था एक यु 
4 सोयाबीन 50 आम या एक मुट्ठी 
क्‍ 


200 गम दूध व एक कटोरी धूली 
(मिक्स फल), अनार, पपीता, अंगूर, 
| सेव, कजर, मौसमी, आलूबुखारा या 
| नींबू की शिकंजी, कच्चे नारियल का | 
। पानी 


















काले चने या राजमा 50 ग्राम 





अहाने हेतु अश्यार चिकित्सा ॥587 


मेथी, दाल व लुखी चपाती का सेवन (3 मौसमी या नारंगी का रस 
| कढ़ी दही व लूखी चपादी का सेवन (4 सेवयापपीता 
भिंडी की सब्जी, रायता, दाल व लूखीं | 5 मलाई रहित लस्‍्सी 
| चने की सब्जी, रयता, दाल व लूखी | 8 सेव या आलूबुखाय 

चपाती 












| चंदलाई की सब्जी, का रायटा, | 7. मतीरा | 
| चावल, चाती_ 
शोजन : 

' चप्राती व दाल-नीबू 


लूखी चपाती व कढ़ी, पालक । 









| लूखी चपाती व मेथी-दाल की सब्जी 
लूछी चपाती व चन्दलाई की सब्जी 


लूखी चपाती व दलगालक 
| लूखी चप्मती व उड़द की दाल 


| दाले चावल व नींबू (मिक्स सलाद) 


बजन बढ़ाने हेतु आहार चिकित्सा 


तिल 3 मी न कमल नम अंअआाा आया धारण ७ ७४०७एए७श ७ ७४एएणांतओं 
सर बात" जाश्ग जात भोजन दोपहर का सा्यकालीय आवश्यक 
जाश्त भोजन निर्देश 


तिल मकान हज कलम जल हल मम 0. 2म जनम लक ५०६४ अल नाल 4» 44 
वार अष्ठामृत या अवृत. चुपड़ी चपदी दूध व केला चषाती य॑ मिक्स सलाद 
भोजन व दाल चावल आलू मटर 
400 आम पालक 
2 भंग मौसमी 
5 पत्ते बुलसी 
(श्याम) 


ख् 
+ 


चोट 
तली हुईं वस्तुएं, अधिक मिर्च मसाले 
व अधिक घी-तेल खाना वर्जित है। 









2 पत्ते नीम 

$ नींबू या अविला 
१ तर ककड़ी 

। झमाटर 

4 गाजर या 
जुकन्दर 


शकशुप्रेशर-स्वस्य प्राकृतिक जीक्षन प 


सोमवार अमृत भोजन दाल चावल दूध व केला. चवाती- घृत व दूध 
अंकुरित अनाज पालक पनीर 
20 भ्राम मुगफली 
20 बम सोयाबीन 
20 जब काले चने 
20 आग उड़द 
20 आम मूंग 
मगलवार अंकुरित अनाज आलू. गोभी आम दूध या चणाती घृत य दूध 
चफ़ती पपीता पालक एनीर 


बुधवार दूध, भृत, फल. चन्‍्दलिया मौसमी खिचड़ी, गलवाणी, 
चपाती नारियल पानी कढ़ी या दाल हलुआ 


गुर्वार दलुआ जुड़ा गेटी गाजर का रस॒ अदरक, दर्द 
पालक हल्दी, चणती 
शुक्रवार विल के लू अदरक, हल्दी, अनार या सरखीर पृतव दू! 
गेटी गाजर रस आलू चपाती 
शनिवार नींबू या शहद चना या मृग की मौसभी, खीर भृत थे दूर 
दालव चपाती नारंगीया शकरकन्द 
पपीता चावल मूंग 
की दाल 


ग्रात. उड़द के लड्डू, मेथी का लड्डू एक माह लगातार सेवन करने से वजन शोप्न बढ़ने लगता है। 
कब्न, बवासीर (॥॥७३-+१७७०॥7४009) 
आहार चिकित्सा द्वारा बवासीर एवं अल्सरटिक पाइल्‍स' का निराकरण-- 


-- एक गिलास गर्म पानी सेवन करें व एक तुलसी का पत्ता 
सेवन करें-- 
नाश्ता : 250 ग्राम --- पपीता 
200 ग्राम -- दूध 
या 
एक सेव एवं दूध 
भोजन: ।. चावल मूँग की खिचड़ी -- 2 चम्मच 
दूध या दही के साथ 
2. सलाद इच्छानुसार 


-- कच्चे आस्यिल का पानी, संतरा, मौसम्मी --7 दिन तू 
केला तरबूज पपीता, लीची खरबूजा, 
छीवा अगूर आलूबुखाग 





ऋजन छटाने-बढ़ाने हेतु आहार चिकित्सा 489 


(कोई एक फल अपनी रुचि अनुसार लेवें) 
सायकालीन --- चावल मूँग की खिचड़ी, 
ओजन दूध के साथ 


सोते समय दूध के साथ दो चम्मच 
ईसबगोल लेवें। 


मानव शरीर के लिये अलग-अलग रंगों के फलों का महत्त्व 


१. लाल रंग के फल व उसका शरीर से विजादीय द्रव्यों का विसर्जन करने के लिए 
महत्व: (लोइ तत्व) ब्राकृतिक पिकित्सा में लाल रंग के फल गऔष्ठ पाने गए 
है 


3 तरबूज 
2. चुकन्दर 
3. गाजर 
4, अनार 
5. आलूबुखार 
8 क्षंजीर 
7. देशी अमरूद 
2 पीले रंग के फलों का महत्तः शरीर की प्रतिरोधात्मक शक्ति बढ़ाने व पाचन क्रिया को 
(्वर्ण-तत्व) सबल बनाने के लिये पीले रंग के फल गुणकारी हैं। 
4. यपीता 
२. काशीफल 
3. आम 
4. बील 
5. यणी 


3. सफेद रंग के फलों का झफेद व हरे रंग के फल मानसिक शांति, सिंध्दाई में आहिः 
महत्व : (चन्र-तत्व) गुणकारी हैं। 

+. सेब 

2 केला 

3. बर ककड़ी 

4. खीस 

5. अनानास 

8, मौसमी 


7. खरबजा 





480 एक्युप्रेशर ध्वस्त प्राकंतिक जीवन घदुति 


वजन घटाने हेतु आवश्यक १. प्रातः उठते ही 250 ग्राम पानी वे एक नींबू का सेवन 
निर्देश करा। 
2. रघ्पी कूदना, जोर्गिय करना, पछाड़ो का भ्रमण करना, 
नंगे पांव हरी घास पर भ्रमण करना, एक्युप्रेशर उपकरण 
(फुट ग्रेलर का घांव के तलवों के नीचे चलाना) और 
प्रकृति के नियमी का पालन करना। 


'सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया 


अनेक रोगों की एक दवा - तुलसी : आरोग्य के लिए तुलसी एक संजीवनी 
बूटी है। इसके लगातार तीन माह सेवन करने से जुकाम (साइनस) की प्रवृत्ति, जन्मजात 
जुकाम, श्रॉस रोग (दमा), स्मरण शक्ति का अभाव, सरदर्द, कब्ज, गैस, गुर्दों का 
ठीक से काम न करना, गठिया, विटामिन 'ए” व 'सी' की कमी तथा मासिक धर्म 
मे अनियमितता, इन सभी बीमारियों मे तुलसी का प्रयोग राम-बाण औषधि का काम 
करता है। 


प्रयोग विधि : तुलसी की पाच से दस पत्तियाँ स्वच्छ खरल या सिलबट्टे (जिस 
पर मसाला न पीसा गया हो) पर चटनी की भांति पीस ले और 0 से 30 ग्राम 
मीठे दही में मिलाकर नित्य प्रात: खाली पेट तीन मास तक खायें। ध्यान रहे दही 
खट्टा न हो और यही दही माफिक न आये तो एक-दो चम्मच शहद मिलाकर ले! 
दूध के साथ भूलकर भी न ले। औषधि प्रायः खाली पेट ले। आधा-एक घण्टे बाद 
नाश्ता ले सकते हैं। दवा दिन मे एक बार ही लें। परन्तु कैंसर जैसे असह् दर्द और 
कष्टप्रद शेगों में 2.3 बार भी ले सकते हैं। 


पृथ्वी की संजीवनी-गेहूँ के जवारे : 


प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली के अनुसार गेहूं के जबारे तथा श्यामा (काली) 
तुलसी के रस का एक माह तक सेवन से रक्त दोष, गठिया, नाड़ी रोग अथवा कैंसर 
उपचार मे उपयोगी पाया गया है। प्राकृतिक चिकित्सा मे इस रस को हरा खून कहा 
जाता है तथा हरा खून कैंसर उपचार में विशिष्ट उपयोगी पाया गया है। 

गेहूं के जवारों की निसतर उपलब्धि हेतु सात गमलों में गेहूं बो दे। जब जवारो 
की लम्बाई छः इन्ची हो जाये तो पहले गमले के जवारे निकाल लें तथा दूसरे पुनः 
जो दे अगले दिन गमले के जकरे काम में लिश जावें। इस प्रकार बचारों की 
निरन्तर क्‍नी रहेगी 


खजन घटाने-बबाने देतु आहार चिकित्सा 487 


गेहूं के जवारे तथा श्यामा तुलसी के पाँच पत्तों के साथ पीसकर रस निकाल 
लें। एक खुशक ॥00 मिली लीटर रस की है। यह खुराक प्रातः खाली पेट सूर्य 
रक््मियों का सेवन करते हुए उपयोग करें। 


पशा9, 7798, क्षात॑ #8/0१98 


पद ; 08 88 १ए७ िऐ रण एशर 0जीालं08 0 #8 प्रंपाए क्षाप्र ॥8 
9050#07 छा ॥0एशाशमं, 88 र्सभशाशव 0 छा एग, पैथं9 णशाहशीफा 
[8 0070शआा था0 ०जावप्रण ठ॑ 08 छञाफ्रञ्नंदृप8, ॥$5 गरीएजाँद्ां 0५ 
शाला : 


बह ए७॥४४0जञीए 8) 0 #86 0009, 

# ॥#78 099०0) ए॑ अं5एक्लाप8 ॥ण॥ भ5पक्नी ॥9675. 

# (8 09500१8ल्‍0॥ रण रि56 (000) 800/068 (एव) 0) 

छह 

# [78 शाआउअंणा! क्षार्प एश्ञाग008 जज धां॥8 क्षाप छए9काा5. 

# 9 जपएक्षांए इउलंपा8 009 पर शी9 जीएआंप५8, 

#. [8 (0-/॥9३९७ एा9णीजा एणँ 8 7शा)०५. 

# 8 &जीकषाकार छऐ 86850१ 78805. 

# (2 6७ ए छावाए, क्ार्पणि8 7885ज 800 ६७0१॥०७. 

#. 50वा 7009 ॥ ॥6 [॥98 ५098. 

# 09000 80 आएएँ 9700॥955 दा प।8 0005. 

४७७४ शीछा8 8 8 पीछा 06 वां, | 0887 09909 
णाएपिज्ञणत का तंत्राक्षा णेँ #रछक्, 00आआएलाज। एाॉंठा00 एक 80 
900॥ए शाछशए99 क्षार्प 9#/860 परीशलपें त््नणा।ईं898. 
छएंप्तव : जि 5 00880 ॥# ॥08 5फ़ाश्शा क्षाी ॥४छ 0 8 8 ए0प्ाएपा 
9000. 7॥8 क्षाक्रांरववा क्षार्ण शा40ण78 8० रण 86 फीएश008 दवा 
०जत00580 ०५ ॥9 ५8 (एप जे [औ 80000एशपे थी #छ॥५€पी0 00065. 
जि 5 एप क्षात्ं एललाएश मं ०00पा, प्रतीशिंजी, क्‍फिएं शं५0009, 50०, 
एशि, वि, ॥9/80 ५ 5070. भाएंशाशीएयिं ऐपरए 007दवा : 

के >25एशवो 0जएपा 70 95 000. 

#. एाजाएएजफिी ॥पदोकंए- 

ह# इ्ातए ४0॥8078 9097. 

# (एश्यॉफ। ् ए४098 ऋक्छाशी, 925प एएस 


तर 


श्विए8 : 


शबश्रेशर--स्वस्क- प्रावमिक 


ब0एक्काए8 ॑ 0059, वछ्तांधीए 0 098एछए. 
ख्ए)8 85 लांशीए 8000म्राए09 एा ॥6 अलछ्याणा 


॥ ॥8 0॥9४ 0७8. न्‍ीएआ 0 ४छंघ- छाए शत, घ[औ9 5 8 
घ)8जीए 008९० ग्रा॥08 णौँझा ए ज्रद्मंंला, ॥ 5 फ४8, गछडी 
900दा५, 00, जिछतए क्षात 00%शथ्ाए।, ॥8 प्र$द्ठ ता 0 
दिए (9०१8 00/क्षा]5 : 


ञ् 


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ब्रिश।44५ 


ण 


88॥8॥0॥॥6 #8 ऑछिछाा णा।॥ एज ॥6 एफएशत५७8 का 
ए70ट४2॥४70 आऑ0855. 
छाए 0च४०४४०७, भारत 800 (0५07॥7855. 


बफ्ताह्ा५ 7800४श0, क्वा। जाश् 009४ एशापद्वा 
68000. 


995990॥0 ॥8 [/५४5009 (0 000058 &॥॥॥0शाई, 
पिगांड006 ५६855, 009308 8१7 ॥शा(धि(. 


३5 मल! अल अमल अल 
६ अल अल! पक हक अत 
४५ अल ऑल अमलक। सह! हक 
गम िक। 
2 जल, आल! लिखे बिक मह 
5 आल पल पक अत 
44. 80 अर कल) की किक, 
25: आज आओ और 


#छशाफआ 


० | पद सिद्याए8 22699 निजा३0 तैआबुक सफ़क5 
59) की फ्लो डे 
अएफछ़ दिशा है: हििलआ जतकका ख्त्य फृउमाणा 


4 ॥ 






50.5854.5 | बं2,544.5 , 58858: | 43.४48.5 । 579658,0 । 4 ४54 0 


[७०७० | 2०७0 [०० | ७80 लक [७०७० 
2५०० [७०७० ७०५ 
8० 
क्र वक्त 0७॥ 
् ७०० 
2००० ७०७० 
(इक हा 
66,072 5 87.0/54 8 
65 ४70.0 658 075,0 | 56 0॥83.0 ॥ 72.08।,0 | 58.5/06 0 
7 /5 70077 0 80 68 0 
0735 | 57 08]0 | 75.579 0 | 60,086 5 | 76 ७४७ 82,070 0 
70७ । | ७४85 ४0 









री 


2 
4 





गा 





० «॥/ ० * | 


ज्क्ानाप 


जी एव्राफा।एं 
लिए) ॥ 2098 


निप्र्नाहाएु 


उग्र 


उक्षाशांड 


इसरेता5 


॥0४ (॥॥४४ 
28॥90 


[::॥० ० ५| 


278... 38 


श्जेब. श0 


395 


348 


306 


444 


णणण जा कि! 
कण (8 50 | 
एप ॥20 


धाधथया 9 ॥008 0 2 हिल किले हि, 


्गड 


50:50 शं०७०४/ ॥7 


००००» ७ ० 
नल कि था 


शिनआ ] 


स्तन 
जलता 
"्जाबााटाए 


380वा एशाप 


4.8 ता एल 


84 0 एश ||, 


8.0 ।पत पक 


[»] 
हि 


384 


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492 


688 


०0६४॥9 


92 28. 240 
(09४7 ? 8४ 79 02 थै 32 
हिक्षा।( 90 |, 96, 02 











छा0फ्रक्षा॥4 
छए।( पृणश 
(०१९५ | 
8॥99.॥9 
शा ॥ा] ॥8 


(फतह । 


252 


॥08 


32 


+ 02 


7860गतिा' बात एश्ला।6एंता' चि।ा।त0॥% 


धहात॥6 7"शाप 9859780॥888५४8 08श7 [9॥0890 080 8/( 
0॥१8 एव 0शाॉक्षा) एण ॥8॥0व॥ 8007 ४६७ ए 50 आ॥9/48 75 
0 ढणाएपा8 ४०पा 08070 7880 (एण ॥का0एशाओ ॥088958 ४0५ 
>णाएशाह 3007 >क0आा५ ॥0 35, 


चिन्ह दवा जाति ?िर/४० 8079 ४शंपुए 


शि250७8 (680 ४8४) 
छ06तं ग़ा&ां 460 का! 
फ९०कुशंध्ार 300 (8 
नि095 शा 9008006 400 ता. 
णिद्धां 50 हा. 
5826000 400 हा: 
एजांएंटशा 75 आए 
नि 200 पा: 
धधु्ांत ॥ 500 ॥7॥ 
पीता 5फतुत्ता 20 हछाग& 
£098 0॥| 20 दगा5/वीश 
घध्क्प 4 ॥( 





छत पक 
& . छ७& ज एजी298 शा 30 गा गर कराए 89. 5002. 
छि/89 डी, 
७6. 8880 : 2 5085. 
कक. 5009:॥ 
9. ताजा : 00 छुए5, 
& . धी॥; [80 #5. 
ग्री88॥ 
88805 ७ा पिजाी : 50 0ा॥5. 


के 
७. ए'४: 25 ठाआ5. 

७. च&एर्शनं५8 : 85 089/80ं. 
७. 59930 : 85 ७859॥80. 

8. 5७रध000 ; 400 छाग5. 


बिता! 788 
७. [88 ०एा (र्शा88 भा 30 ॥ व गा ज्ञाएं धाीशा]॥08 गए 
छाएता. 


सि७09वां ॥88| छा 8 ७६४ 

58809 एा पिर्णा : 50 दाा5. 

छद्ठा * 25 दाग5. 

४०पश्षेथ्या ४४ : 88 08७५॥९0॑.-. 

(जएछ) : 75 जञा5. 

शी [॥70)आ7008 5॥6080 एफ 250 ॥॥ ॥7< 


$ थे $# €& ७ 


पिणाशाणा : ७ पाए ग्रीर "क्षा 08 058७ ७0 ॥ 9 त0 5 [2शॉशिा80. 
७ शिक्षाए 79५ 08 ॥0७99080 0 880 ए०0त9।| [00 
& :006 0 जाप 50058 ७000 ॥0 90880 [00॥07. 


जिक्षापा'र वरीह्वांरए 9/0१0 शा 090665 
70707 (600 ॥(68॥) 


एलआाएशंड5 ।60 धा॥5. 
५एपशंघ्ॉ५2 400 (5. 
णि्क्ति 30 (गा5. 


जछ्थ्राए0तं 400 क्ञा5 


खजन घटाने-बढ़ाने हेतु आहार चिकित्शा 


कर ७-६ 

शथिद्वाधा8 59806 000 (#॥5) 
[प्ृणंत ॥॥॥ 

६0002 | 


छ्ाएए8 शिक्षाप 


छा8छविका 
8४680 00008 : 50 08. 
एजील)8 ७ 250 ॥9 77, 


बउ88 / "७णी88 70 शा 5007/0528. 


जशिक्षाएए8 8860 [700 (एा5) : 00 &॥8. 


8&| 270 [आए 
58605 097 निएी : 40 ६75. 


467 


75 कड. 
00 छ्ञा5, 
500 हा 

20 ॥7॥/4ी80. 





शशि. 90 
हिंधए 9० 
998. 00 
+#8४ 90 






#$ . (8६७७) 


नश्रधज 9989 जया 





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कक (805) (904) (४७१5) 


0४7 एछे 30 
9|॥. 9. 80 
है#.| 48 9| 
9॥9.. . ऐ४7 & 


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नजीपण्प 

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(78॥॥॥ 2भा०फरत) ०णछ 
(४५॥०५७७५) ॥5 
(3४०॥8) ४०५/५ 

(००५/४७) ॥7०॥ 329५॥0 
को्रिए७७ एप्नजांबतण 


ध्राप/2००५ |० ०००७९ 


क्ा (४ एग आ 


न्ण 
॥58 





पण्‌॥-१णए 





469 


॥॥77097 


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उ्जशिशि एेपनकेजी।. पा कतभरिफना जा ७ 


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प्रथा 

(॥१89॥) [॥४७/ 

(0५7७) |20 #श्म्छ एम 
[677० ॥880 प्णहर) ७७०7९ 
कर रत प्व्म्ट् जअम्यछ 
(8५०५०) [तु ०४४३७ |४१५७६ 
इत्रक्ना।0व) | छ39॥6 


48908 ४५8९) 
0०095 

9४948 

आष्ध 

4७/७०(१ 
32०५ 

(०७ 


(9७४०) >ण् 
एशाए #०४) ०गजघ 


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४४ की ४ 


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एक्युप्रेशर स्वस्थ फ्रकृतिक जीवन पद्धति 
पद 


(06 
09086 
006 
86८ 


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00 


082 
0॥8 
05६६ 
(८2 
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002 
0 ५६। 
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पद 
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ण्ट् 
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87 
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६६ 
0०८ 
६ 
007 


(42४४)) ॥048:) 

(/५४ए) ४४४४०००:) 

59/898" [20]॥ए५५७॥ 

42४७ ५००४७०१७ 

(॥०0०) १४०४६ 

(8९५ ४६ ०05725) ४७७४७] [0348५7॥६ 
(४७००७) ॥७॥५ 

(0७॥०/५) ४७४४०] ॥8949008 »| 
(४४४५७) ४७४४७] ॥०॥५५४॥३() 
($9॥29| /920(]) ५9029] 4०.४४॥०. 
90४9] ४४४४ [०१५० 

७/४97] ४/५॥०७ 

(9४9 ४०५०) 49700 ॥षपश।४पए 


5उ7क्‍8794393/ ४७३३० 8 833789॥353#/ ५3ए१॥ 


000; 
0 00+ 
000+ 
0[8 


(7920५७॥049) ॥() 2७५०००७ 
(29|॥४००७) ॥0 ?९१४७७००३०४॥। 
8छ& | 

49॥5& 

8]0 9]98/03 8४ 53४ 


ग्ट 


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॥4॥ (२४ || 


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प्ट 
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745] 
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00 
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02८. 
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0]. 
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800 
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0| 0 
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0| 0 
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६00 
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८00 
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६00 
7६ 0 
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700 
0६.0 
909 


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0 #५४०070:7) 

डफत्रनत्र5 0 | 5.॥8 
87890 

(2०७) ण९४५०। 
(फर्जी आफ ॥२ण! 
(५७४४६) ०४४० 
४(2७॥| 

७५०४० 

89७७ 

(2४५8) 4७7५- ४श7७४१ 
(84999) 49फ-"ाजा:) 
49/00॥॥॥१४२) 

४०५७७ 

(जाए) एआ०७ गणाण्प्त 
87४89 

(20पछ॥पपार) ५४४/ 
(धछ)|४७७) 0॥५७३॥] 
णजथण्य 

७0५८५ 


शक्युप्रेशर--स्वस्थ प्राकृतक जीवन पद्धति 


प72 


*:॥4 
॥ 24 
६7 
८ 
प 
८८ 
9. 
5प 
9५ 


499 
छ्ट9 
7५ 
0८५ 
८99५ 
६9५ 
र्प्ररि 


0 टट 
0 ८५ 
0 0६ 
0'9॥ 
00५ 
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500 
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5६00 
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एक्युप्रेश१-स्वस्थ प्राकृतिक जीवन परत 


बात, पित्त, कफ से ग्रसित रुग्णता के लक्षण 









शरीर, मन 
गैर आत्मा 
के गण 
शरीरकी | कमज़ोर, दुबला- 
आकृति | पतला शरीर, हाथ- 
पैर भी पतले और 








ठीकठाक या 
नाजुक शरीर, 
सतुलित डील-डौल, 
हाथ-पैर. नाज़ुक- 
नरम। 


बड़ी शरीर, मज़बूत 
ढांचा, पेट फूला 
हुआ, थोड़ा खाने मे 
भी शरीर फूलता है। 





















वज़न नहीं बढ़ा पाते। | 






जीभ जीभ गुलाबी, लाल। जीभ सफ़ेद, चिक- 

और मुंह | और कालिमा लिए मुह में छाले। नापन लिए होती है। 
झेती है, जिस पर मुंह मे मीठा स्वाद 
सफेद धब्बे दीखते रहता है। 


हैं। कभी-कभी गले 
में रूखापन। 

















भूख, ४ रोज़ एक निश्चित दिन में एक बार नहीं 
रुचि | समय पर भूख नहीं भी खाया, तो फ़र्क़ 
लगती, बल्कि कभी नहीं पड़ता। भूख 

| भी लग जाती है। कम, पर खाने के 


शौकीन। 


थोड़ासा खाने से 
| पैट भारी हो जाता 
है। हज़म होने में 
7-8 घंटे लग जाते 
हैं। 

कब्ज मल अक्सर शौच सरलता से। शौच मे ज्यादा वक्ता! 
सूखा। कभी-कभार न मल पीला और मल चिकना 
सूखा, न गीला। ज्यादा। कभी-कभार 


+ दैज़ित्ो । 





; जींद] घंटों 8 से 0 घंटों की 
जींद चाहिए। मींद 
एकाएक नहीं टूटती। 


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#ष्छछलक :० 3 यिल्ता: लंदन ५८6४ -॥#्रतड, उैआओं पेकांद, >00ग्रग॥ 
अं एॉपिट॥.. पेसेकए)जक, (सा (अंफिकः मिंक्क, 2... अेकाओेन, |. 73॥9 


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अल एऐएएा सतंश गाणाए इलेक्ट्रिक पाइन्ट शोधक जिम्मी 
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हक्शा््वो जडड20/  (40४॥८९) सर्षोइ्कल मसाजए 


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पृकऋप्राएं गाशाएए अंगूठा जिम्मी (8४४76 89 पराप्राए०) 


अलएाछड्पाल एक. एक्यूप्रेशर पोस्टर रमीन ( रो] 


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#ग्रटुश' १६०४४३९९ फिगर मसाजर ( ४००वश९। ) 


६0०98 (४ ५०९7९ (सा) चुन्यकीय जी कैप ([ शा ५०725) 
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(शज्ाएअं 582॥ सर्वाइकल बेल्ट 





| जारश 52१ थडर बेल्ट (7 28) &॥0रतट, 0022 & (शा) 


| ९९0० 72४ चुमन्बकीय पायल [7९0फ2 

छ०6८ भाव छथाए ता चुम्बकीय बैक एप्ड बेली बेल्ट (8) 
940८ 20 50 छेश चुम्दकीय ब्रैक एण्ड बेली बेल्ट (७॥93॥) 
89807 270 52ए 8शा एएरध्षाआर्॑व& ( चुल्वकीय बैक एण्ड 
बेली बेल्ट (कॉपर+पिरामिंड ) 


| ७९॥2(0 (9955 चुम्बकीय ग्लास (छ2) 


£५६ (ध8 चुम्बकीय चश्मा (>शफ़) 

3 9 ४४४० ब्लब्प्रेशर घड़ी (432700 

म 7 छिथी ( ब्लड प्रेशर बेल्ट / [४0९ 07. (४४2०८) 
पि९८ ७८९ चुम्बकीय हार (9९27८:0) प्् 


| पल्लत३०७ छफ्णा कथाएं) चुम्बकीय हार 


स्‍५0७९- 0७ थट2 ७ ख-नाक-गला-बुम्बक (7एछ0 
ति83व 5थ (४/॥४ ४४2॥2) हैड बेल्ट (७४0 [५7 फऋथ) 
2 0ए॥[/९४४४४6 9६0945 एक्यूप्रेशर सैण्डः 
+एजुज 556 (ाशजतवा. एक्यूप्रेशर. चपल ५ 
धका998..... (7088 ... . 
एााशा। (78 पिरामिष चिफ्त (50 ० 9) 


जा एतत एज ६६ ०ए - शितार पिरामिड की 


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एगर्जी बॉल 

9 92760९ रैंक 5 चुम्ककीय मटका स्टेण्ड 
#8छ गावाए. स्टील जिम्मी.. +ठ उपाण: 
5णफ5 प्लाए पजोक सखी हक शाएलह धर 


जप छात्र रूण्|्॑ सरकजर (२कऑश ०००:३४८र्) 


खए0, प्राणखज फ्रा। है चाइज्रेटर चुम्बक सहित 600 
2, रीज्यण पा 8 #0जीताथां+ मिट _.......... ...... सहित 800 


20, रीणवांण फए ]॥ डील चाझ्रेटर डबल स्पीड... 690 
(स्‍आएश एाजव्रांण जीत छा पॉवरफुल मसाजर (फए त&्क ) 750 
एश००० पजफबबछुथ रिलेकसो मसाजर 550 
जि /2॥0 डीठ तकिया 240 
8पएशथ 70फश' 968॥ (७९॥७६ स्टील चुम्बक सुपर पावर 990 
माए। ऐ०प्रश 2०0 (४७7०६ स्टील चुम्बक हाई पॉधर 050 
)शच्यापा। ऐ7फटा 992 ४० स्टील चुम्बक मिक्षियम पाचर 50 
4.0ज ९0७७ 58७ ४छएपाश॑ स्टील चुम्बक लो पॉँधर 350 
मा ऐश ०० हाईपॉवर चुज्अक (फ0 जिशाएं िशा8) 450 
॥(/९पञएणा 00907 (३९४४४ मिडियम पॉाचर चुम्बक 350 
[.0जछ 20 क्षिटएल लो पॉचर चुम्बक (था) 70 


एछाथ्लाणा० एशहताट शाला (फती शीएटा0 ?0॥525)9 2800 
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]00790600 इलेक्ट्रेमिक पेन स्लीवंर पलल्‍्सर ( मैठरी व 
ट्रासप्शवर्मर सहित) । 


डायल हि ( 78080 ॥॥ एस (358 ) /000 
( उलाए + # 0870 + एपए ब्यूशजाट्यांण) (#ण ए९०४ 
वरलएण०छा०४१४) 9एश एशपर बॉडी चेट रिट्यूसर किट (िटरी 


+ एडफ्र + कप एफ़ीकेटर + चेक्यूल पम्प + लोशन सहित) 


न्लिििनननीयलणओ जअजाइड नीली जन लिन डड ली लसललनकत--ज-नस--स पायल पक पका ० 


ध्धशाल ( मिल ) ( 7४/श५+ 7808 तरिश + लिक्षा 5500 
("जाए ) बॉडी पेट रिहयूसर ( बैटरी + फेस थ हेयर काम्ब 
अटेथमेब्ड सहित ) 


ख02738.. (णाएंलंह पिंथध्यात (शाह #े। णि 8 | 4499 
पश्थाएए सा 
(िटापता .-+ एवंशार + ।थ्चष्ठोए 82 + 738 57फएआ + 
(गए + पिल्लत306 [9 + ड08808+ मरंस' उाद्यात 
+ शत रिछी] + उग्ायाए + सा + धाशरत्र एजीश + 
एटटोट्श राशलंडइश + #एप, उठता पाठ + कला, 
ए०डांश + 80०0:+ ॥रफ्नाए शाल्डआए8 + एफ़ांडंश, 
एाणा-ए 5६. 4499 /- 
है प्राएशापल्वा/6 एं2ह रण उप रिए, 2835/- जाए + | 





788 3307४ ए7४(८856, 
टप ५7600 5७३६ (70 शि|88) चुम्बकीय गड्ढी | 350 
7 ! गिल्याल ० 785 जाए ि जा रिशश ठ्का 
गराशई ४०0. णि एं।एज॑० 8लाशड गा । व 
डा पिद्यद्“ॉत €हए०, रच. र. हद, र्छा :) (० 
गज कह छ्लाव 70 छा 0 9 व घिएजछ . धिंगा०० 


(00१७ १/#राजार, ऋजपाजए